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भूमिका
न तत्र सूयां भाति न चन्द्रतारकं नमा विद्युतो भान्ति कुता. ऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्वे तस्य भासा सर्वमिद विभाति ॥
१५.
मानव अस्तित्व के प्रतीत हो जानेके पश्चात् ही तो संसारका भान प्रतीति होता है | इतना ही नहीं उसीके प्रतत्यित्मक प्रकाश से इस जगत् में प्रकाशमानता आती है । स्वयं इस जगत् में प्रकाशमानता नहीं है ! मानव यह जाने कि जगत्को प्रकाशमानता जगत् पर मानव के ही प्रकाशस्वरूप अस्तित्वका उधार है । यहां हमने देखा मानव क्षुद्र वस्तु नहीं है । यहां हमने मानव के अभौतिक, अलौकिक, अनन्त असमाप्य अस्तित्व के दर्शन किये और दूसरी महामहिम स्थितिके सम्बन्ध में परिचय पाया । वास्तव में मानव हृदय बाश्चर्यकारी सामर्थ्य लिये बैठा है उसके शक्तयुन्मेष होने में संकल्पमात्रका विलम्ब है । वह संकल्पमें दृढता लाते ही दिव्य ज्ञानी लोकका दर्शन कर सकता और दिव्य बलका आवाहन कर सकता है । परन्तु मानवके देहाध्यासने ( उसके मैं देह हूं इस भ्रान्त विचारने ) तथा देहाध्यासजन्य क्षुद्र संकल्पों ( इच्छाभों ) ने उसके इस महामहिम सामर्थ्यको कुण्ठित कर रक्खा है ।
इस द्दीन स्थितिमें उत्साहवर्धक समाचार यही है कि मानवके पास या तो ज्ञानी या अज्ञानी बननेकी स्वतन्त्रता है उसकी यह स्वतंत्रता ही समस्त बलों का भंडार हैं। मनुष्य ज्ञानी बननेकी स्वतन्त्रताकी शक्तिके सदुपयोग से ही अपनी निकृष्ट स्थितिको विनष्ट कर सकता, स्वरूपबोधमयी भ्रान्तिशून्य स्थिति पा सकता और उससे संसार में सत्कर्मों की भागीरथी बड़ा सकता है । मानव इच्छामात्र से इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग या दुरुप्रयोग करता है । मानवको जो ज्ञानी या अज्ञानी बनने की स्वतन्त्रता मिली है और उसे जो इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग या दुरुपयोगका अधिकार प्राप्त हुआ है वह उसके लिये सदा ही दो विरोधी मार्गोका संगमक्षेत्र बना रहता है | मानवको मिली यह स्वतन्त्रता उसे केवल एक क्षणमें इतना परिवर्तित कर डालती तथा कर सकती है कि वह या तो उसे चिर