Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal View full book textPage 6
________________ इसके पश्चात् जीवन पथ प्रदाता पू. गुरुदेव श्री के समय में लिखा गया लेख 'सम्यग्दर्शन का विषय ' दृष्टि को ध्रुव की दुनियाँ में पहुँचा देता है। सन् १९७७ में यह लेख आगमपथ में प्रकाशित हुआ था, तब यह विषय पू. गुरुदेव के समक्ष पढ़ा गया, तो वहाँ के अनेक श्रोताओं के चित्त में आशंकाओं का होना स्वाभाविक था । तब समाधान में पू.गुरुदेवश्री के मुखारबिन्द से निकल पड़ा- 'बधू सांचू छे, काँई खोट नथी, ऐमज होय दृष्टिनो बल ।' इसी लेखमाला के कुछ अंश - “ पू. गुरुदेव से पूर्व आध्यात्मिक चिन्तन का रिवाज तो था, किन्तु चिंतन में अध्यात्म नहीं था।” “सम्यग्दर्शन के घर में स्वयं सम्यग्दर्शन के रहने के लिये भी कोई जगह नहीं, उसने अपना कोना-कोना ध्रुव के लिये खाली कर दिया है।” “श्रद्धा की अनंत 'श्रद्धा की अनंत शून्यता में ही ध्रुव की मंगलमय बस्ती बसती है । अहंमय ध्रुव श्रद्धा का श्रद्धेय नहीं होता । श्रद्धा का श्रद्धेय पूर्ण व सर्वोपरि होता है।" इसी संकलन के ज्ञान-स्वभाव लेख में ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता, ज्ञान की जानन कला का आगम के आधार से सुयुक्ति पूर्ण विवेचन है, जिसे पढ़ने पर भ्रामक दृष्टि का अंत होकर साफ सुथरी दृष्टि मिलती है। स्वच्छ ज्ञान की मथानी से मथी स्वस्थ चिंतन धारा व न्यून लेखनी के ये लघुकाय अंश हैं, लेकिन कलेजा दीर्घ है । जैसे गंगा जहाँ से निकलती है उसक़ा पाटं बहुत छोटा और जहाँ जाकर मिलती है वह बहुत विशाल होता है; ऐसे ही चैतन्य की गंगोत्री से निकली मुक्ति की ओर बहती सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की निर्मल धारा का पाट चाहे छोटा हो, किन्तु लोक शिखर में स्थित सिद्धों के केवलज्ञान में जाकर वह कपाट खुला सो खुला...... - इस प्रशस्त कार्य का अवसर मिला मेरा सौभाग्य है, मुझ अज्ञ से कुछ त्रुटि रही हो तो मार्गदर्शन अपेक्षित है। यह त्रिवेणी लेख तन्तु पाठकों के मुरझाये व खण्डित चिन्तन को परिष्कृत कर प्राणवान बना नई ताजगी देंगे । जिससे समस्त प्राणी मुक्ति का उज्ज्वल पथ प्रशस्त करते रहेंगे । - ब्र. नीलिमा जैन, कोटाPage Navigation
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