Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 53
________________ चैतन्य की चहल-पहल 52 1 उसका सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है । अर्थात् वह व्यक्ति जितना कुछ है वह सब न्यायाधीशत्व में समवेत है । इसी प्रकार ज्ञान आत्मा के अनन्त गुण धर्मों के समान यद्यपि आत्मा का एक गुण विशेष ही है, किन्तु उसके बिना आत्मा पहिचाना ही नहीं जा सकता । ज्ञान का व्यापार प्रगट अनुभव में आता है। अन्य शक्तियों में यह विशेषता नहीं है। अतः 'उपयोगो लक्षणम्' की छाया में अनन्त पदार्थों के समुदाय इस घुले-मिले से विश्व में ज्ञान से ही आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्त्व एवं व्यक्तित्व सिद्ध होता है । न केवल आत्मा वरन् जगत के अस्तित्व की सिद्धि भी ज्ञान ही करता है। ज्ञान जगत के निगूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन करता है । अत: ज्ञान ही आत्मा का सर्वस्व है और उसके बिना विश्व में आत्म-संज्ञक किसी चेतनतत्त्व की कल्पना ही व्यर्थ है। -. ज्ञान के स्वभाव को हृदयंगम कर लेने पर सम्पूर्ण आत्मस्वभाव की समझ ही सुलभ हो जाती है। अत: मनीषी ऋषि कुन्दकुन्द ने अपने समयसार परमागम में आत्मा को ज्ञानमात्र ही कहा है। ज्ञान - मात्र कहने में आत्मा का मात्र ज्ञान गुण नहीं, वरन् अनन्त गुण धर्मों के समुदाय एक अखंड ज्ञायक आत्मा की ही प्रतीति होती है। ज्ञान की स्मृति मात्र में ही अखंड चेतन तत्त्व अपनी अनन्त विभूतियों के साथ दृष्टि में आता है। ज्ञान के एक क्षण के परिणमन को देखिये उसमें आत्मा का सर्वस्व ही परिणमित है, अत: आत्मा मानो ज्ञान ही है, अन्य कुछ नहीं । इस प्रकार गुण - गुणी की अभेद दृष्टि में ज्ञान आत्मा ही है। यह ज्ञान आत्मा का त्रैकालिक स्वभाव है, जो स्वभाव त्रैकालिक होता है उसका वस्तु से कभी व्यय नहीं होता और

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