Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 56
________________ ज्ञानस्वभाव-सम्यग्ज्ञान इस चर्चा में ऐसा तर्क भी प्रस्तुत किया जाता है कि यदि बाह्य अग्नि दर्पणाग्नि का कारण नहीं है और दर्पण में उस समय अग्न्याकार परिणमन की स्वतन्त्र योग्यता है तो फिर जब अग्नि न हो तब भी दर्पण का अग्न्याकार परिणाम होना चाहिए अथवा अग्नि की समक्षता में भी दर्पण में अग्नि प्रतिभासित न होकर कुछ अन्य प्रतिभासन होना चाहिए। विचित्र तर्क है यह, जो दर्पण के स्वभाव की स्वतन्त्रता पर एक सीधा प्रहार है। यदि दर्पण के समक्ष अग्नि हो और वह वैसी की वैसी दर्पण में प्रतिबिम्बित न हो तो फिर हम दर्पण किस वस्तु को कहेंगे। वस्तु जैसी हो वैसी ही प्रतिबिम्बित करे उसे ही तो दर्पण कहते हैं। पुन: यदि अग्नि के अभाव में भी दर्पण में अग्नि प्रतिबिम्बित हो अथवा अग्नि की समक्षता में दर्पण में अग्नि के स्थान पर घट प्रतिबिम्बित हो तो दर्पण की प्रामाणिकता ही क्या कहलायेगी। अत: अग्नि का भी होना और दर्पण में भी सांगोपांग वही प्रतिबिम्बित होना यही वस्तुस्थिति है और यही वस्तु का स्वभावगत अनादिनिधन नियम भी है। इसमें पारस्परिक कारण कार्य भाव से उत्पन्न किसी परतन्त्रता अथवा सापेक्षता के लिये रंच भी अवकाश नहीं है। इस प्रकार दर्पण और उसका अग्न्याकार अग्नि से सर्वथा पृथक् तथा निर्लिप्त ही रह जाता है। दर्पण के समान ज्ञान भी ज्ञेय से अत्यन्त निरपेक्ष रहकर अपने ज्ञेयाकार (ज्ञानाकार) का उत्पाद-व्यय करता है। ज्ञान में ज्ञेय या ज्ञेयाकार के इस अभाव को ज्ञान का 'अतत्' स्वभाव कहते हैं और अनेक ज्ञेयों के आकार परिणमित होकर भी प्रत्येक ज्ञेयाकार

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