Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ 56 चैतन्य की चहल-पहल (ज्ञानाकार) में ज्ञानत्व की धारावाहिकता कभी भंग नहीं होती। अर्थात् ज्ञान के प्रत्येक ज्ञेयाकार (ज्ञानाकार) में ज्ञान सामान्य का अन्वय अखण्ड तथा अपरिवर्तित है। ज्ञान के प्रत्येक ज्ञेयाकार में ज्ञान ही प्रतिध्वनित होता है, इसे आगम में ज्ञान का तत्' स्वभाव कहा है। अपने में अनन्त लोकालोक रूप चित्र-विचित्र ज्ञेयाकार नियत समय में उत्पादन करने में ज्ञान अत्यन्त स्वतन्त्र है। इसमें उसे लोकालोक की कोई अपेक्षा नहीं है। न उसे लोक से कुछ लेना पड़ता है और न कुछ देना पड़ता है। 'ज्ञान में जो लोकालोक प्रतिबिम्बित होता है, ज्ञान के उस ज्ञेय जैसे आकार की रचना ज्ञान की उपादान गमग्री से होती है। लोकालोक रूप निमित्त की उसमें रंच भी कारणता नहीं है। अतः ज्ञान लोकालोक को जानता है यह कथन व्यवहार ही है, वास्तव में ज्ञान ज्ञेयोन्मुख न होकर स्वतन्त्ररूप से अपने ज्ञेयाकारों को ही जानता है।' जैसे- हम किसी अट्टालिका की कल्पना करते हैं। अट्टालिका तो पाषाण की बनी होती है, किन्तु हमारी कल्पना की अट्टालिका तो हमारी कल्पना से बनी है, पाषाण से नहीं। इसी प्रकार ज्ञान के ज्ञेयाकार सब ज्ञान की ही सृष्टि हैं और वे ज्ञेय से अत्यन्त भिन्न ही रहते हैं तथा जगत् में ज्ञेय हैं इसलिये ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं यह तर्क ही भ्रम मूलक है जो ज्ञान की अप्रतिहत शक्ति की अवहेलना करके ज्ञान के क्लैव्य की घोषणा करता है। ज्ञेय जैसा आकार ज्ञान में जानने का यह अर्थ तो कदापि नहीं हो सकता कि ज्ञान का वह कार्य ज्ञेय की कृपा से निष्पन्न हुआ है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66