Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 61
________________ चैतन्य की चहल-पहल 60 व्यवच्छेद करके केवल आत्मा का अनुभव किया जाने पर सर्वतः एक विज्ञानघनता के कारण ज्ञानरूप से स्वाद में आता है । " वस्तुतः ज्ञान सामान्य की विस्मृति कर देने पर ज्ञान के अनेकाकार की सृष्टि न बनकर ज्ञेय की सृष्टि बन जाती है और शाक तथा लवण के मिश्रण की भाँति अज्ञानी को सदा ही 'यह देह मैं ही हूँ' यह ज्वर मुझे ही है, ऐसा मिश्र स्वाद आता है । किन्तु ज्ञानी को तो सदा ही ज्ञान सामान्य की ही स्मृति है । मेरा ज्ञान ज्वर तथा देहाकार परिणत होने पर भी मैं देह तथा ज्वर से भिन्न ज्ञान ही हूँ । ज्ञान को देह नहीं और ज्ञान को कभी ज्वर चढ़ता ही नहीं । अतः ज्ञान के ज्वराकार और देहाकार परिणाम भी ज्ञानी को दृष्टव्य नहीं । इसमें यह तर्क भी अपेक्षित नहीं कि यदि निरन्तर ज्ञान सामान्य की ही दृष्टि रहे तो फिर ज्ञान के विशेषों का क्या होगा ? वस्तुत: ज्ञान तो सहज ही ज्ञेय निरपेक्ष रहकर अनेकाकार परिणत होता रहता है। किसी प्रबन्ध के बिना ही वे अनेकाकार ज्ञान में होते रहते हैं। जैसे हमारे घर में झूलते हुए दर्पण में पड़ौस के मकान, मनुष्य आदि सहज मौन भाव से प्रतिबिम्बित होते रहते हैं. हम उनकी व्यवस्था नहीं करते और दर्पण के वे खण्ड भाव (प्रतिबिम्ब) हमारे प्रयोजन की वस्तु भी नहीं होते । यद्यपि वे हमारे जानने में अवश्य आते हैं, किन्तु हमारी अविरल दृष्टि तो अपने अखण्ड दर्पण पर ही केन्द्रित रहती है। यदि हमारी दृष्टि उन खण्ड भावों और प्रतिबिम्बों पर केन्द्रित हो जाए और हम दर्पण की अखण्डता को विस्मृत कर दें तो हमें लगेगा कि हमारे दर्पण में तो कोई मनुष्य अथवा मकान प्रविष्ट हो गया । अतः हम विह्वल हो उठेंगे, किन्तु इन अनेकाकारों

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