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ज्ञानस्वभाव-सम्यग्ज्ञान है। जैसे जल को कीच के साथ देखने पर मलिनता अनुभव में आती है, किन्तु शुद्ध जल-स्वभाव के समीप जाकर देखें तो जल में कीच कहाँ है। जल तो कीच के साथ भी जल ही है। इस प्रकार कर्म और आत्मा की संयोगी दृष्टि में आत्मा में राग-द्वेष, पुण्य-पाप दृष्टिगत होते हैं, किन्तु शुद्ध ज्ञान-स्वभाव की समीपता में ज्ञान में न राग है, न द्वेष है, न पुण्य है, न पाप है, न देह है और न मन वाणी हैं। कर्म और देह के विविध अप्रत्याशित परिणाम ज्ञान का स्पर्श भी नहीं कर पाते।
प्रलयकाल के भयंकर प्लावन के बीच ज्ञान तो अनुभव करता है कि मेरे ज्ञान में प्रलय नहीं हुआ है। मैं तो प्रलय का भी ज्ञाता ही हूँ। प्रलय के द्रव्य ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं, किन्तु ज्ञान प्रलयाकार होने पर भी ज्ञान में प्रलय का प्रवेश नहीं होता। जैसे सागर को समर्पित पुष्पहार अथवा प्रहार सागर के वक्ष में चित्रितमात्र ही रह जाते हैं और सागर रोष अथवा तोष की विषम अनुभूतियों से शून्य एक रूप ही रहता है। इसी प्रकार विश्व का सर्वस्व ज्ञान में प्रतिबिम्बित होने पर भी ज्ञानी उन सम्पूर्ण विशेषों का तिरोभाव करके 'मैं त्रिकाल ज्ञान ही हूँ' विश्व नहीं - इस शुद्ध ज्ञान का ही चिरंतन सचेतन करता है।
जगत् की भयंकर प्रतिकूलताओं और सप्तम नरक की यातनाओं में भी ज्ञानी को शुद्ध ज्ञान का यह संचेतन अबाधित रहता है। जब ज्ञान को देह नहीं, तब प्रतिकूलता का अस्तित्व ज्ञानी की दुनियाँ में ही कहाँ रहा ? प्रतिकूलता और नरक.की यातना का ज्ञान में प्रवेश ही नहीं है, तब प्रतिकूलता और