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ज्ञानस्वभाव-सम्यग्ज्ञान वस्तु की भाँति वह सदा पूर्ण अखंड और शुद्ध होता है। वस्तु उस स्वभाव की ही बनी होती है। अत: वह कभी उससे पृथक् नहीं किया जा सकता, जैसे- उष्णता अग्नि का स्वभाव है, उष्णता अग्नि का सर्वस्व ही है।
ज्ञान का स्वभाव जानना अर्थात् वस्तु का सर्वांग प्रतिभासन करना है, क्योंकि स्वभाव असहाय, अकृत्रिम एवं निरपेक्ष होता है अत: ज्ञान भी जगत से पूर्ण निरपेक्ष एवं असहाय रहकर अपना अनादि अनन्त जानने का व्यापार करता रहता है। अपने जानने के कार्य के सम्पादन हेतु ज्ञान को जगत से कुछ भी आदान-प्रदान नहीं करना पड़ता।
दर्पण के समान ज्ञान की वस्तु को जानने की रीति यह है कि वह सदा एकरूप अखण्ड स्वरूप को सुरक्षित रखकर ज्ञेयाकार (ज्ञेय जैसे आकार) परिणत होता रहता है। ज्ञेयाकार (ज्ञानाकार) परिणति ज्ञान का विशेष भाव है और उस ज्ञेयाकार परिणति में ज्ञानत्व का अन्वय उसका सामान्य भाव है। जैसे - दर्पण अपने स्वच्छ स्वभाव से वस्तुओं को अपने में प्रतिबिम्बित करता है। - दर्पण में वस्तुओं के अनेक आकार-प्रकार बनते-बिगड़ते रहते हैं, किन्तु दर्पण प्रत्येक परिवर्तन में अक्षुण्ण रहता है। वस्तुओं के अनेक आकार-प्रकार के संगठन एवं विघटन में दर्पण की एकरूपता अप्रभावित रहती है। साथ ही उन आकार-प्रकारों से दर्पण की स्वच्छता को आँच नहीं आती। जैसे दर्पण में अग्नि प्रतिबिंबित होती है किन्तु दर्पण में अग्नि के प्रतिबिंब से न तो दर्पण टूटता ही है और न गर्म ही होता है क्योंकि दर्पण में जो अग्नि दिखाई देती है, वह