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चैतन्य की चहल-पहल
अवरुद्ध होते ही नहीं है, क्योंकि इनमें तो उसे चैतन्य का आभास भी नहीं होता; किन्तु राग-द्वेष एवं पुण्य-पाप जैसी आत्म-वृत्तियों में भी उसे चैतन्य का चिह्न नहीं मिलता क्योंकि पर के प्रति आकर्षणशील होने से वे अत्यन्त विकृत हैं, अतः उपादेय नहीं है । जैसे मलेरिया के मच्छर के संयोग में उत्पन्न मलेरियो ज्वर शरीर की पर्याय होने पर भी शरीर का स्वरूप नहीं है; इसी प्रकार कर्म की उदय दशा में उत्पन्न पुण्य-पाप की अवस्था आत्मा की पर्याय होने पर भी आत्मा का स्वरूप सौंदर्य नहीं है। और जैसे जिसकी शक्ति प्रबल है उसे मलेरिया मच्छर का योग ज्वर का निमित्त नहीं होता, इसी प्रकार जिसे अपनी चैतन्य सत्ता का सुदृढ़ अवलम्बन है उसे कर्मोदय विकार का निमित्त नहीं होता वरन् मात्र ज्ञेय कोटि में रहता है। यह तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म अनुसंधान है। उसका मन्तव्य है कि भिन्न लक्षण वाले अनेक भाव एक साथ तो रह सकते हैं पर कभी कहीं । दही के दीर्घ समुदाय में दही के कण-कण के साथ मक्खन दही से भिन्न विद्यमान रहता है और वृंदावन की ग्वालिन भी उसे दही से अलग निकालने से पूर्व ही उसकी पूरी की पूरी प्रतीति में प्रवर्तमान है । किन्तु जैसे एक बालक को दही और मक्खन के भेद का परिज्ञान नहीं होता इसी प्रकार अज्ञानी को भी आत्मा और पुण्य पाप के अंतर का बोध न होने से कभी पाप और कभी पुण्य की उपासना करता रहता है किन्तु तत्त्ववेदी पाप-पुण्य के विकार - पुंज में भी विकार से अत्यन्त भिन्न चैतन्य की अव्याहत प्रतीति में गतिमान रहता है।
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तत्त्वज्ञान की शोध यहीं विराम नहीं ले लेती, किन्तु पुण्य-पाप के आवरणों से आगे वह चैतन्य की खोज में और