Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ सम्यग्दर्शन और उसका विषय ( प्रथम ) 15 ज्ञान में हेय - उपादेय प्रवृत्ति यद्यपि सच्ची श्रद्धा से पूर्व प्रवर्तित होने वाला ज्ञान भी स्वपर के भिन्नत्व का प्रतिपादन करता है, किन्तु देहादि से भिन्न उपादेय स्वरूप निज शुद्ध जीवत्व यदि अनुभूति में न आये तो ज्ञान के द्वारा भिन्नत्व प्रतिपादन का कोई मूल्य नहीं है । इसीलिए दृष्टि सम्यक् होने पर ही ज्ञान में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है और दृष्टि के सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान उपादेय तत्त्व का विज्ञापन तो करता है, किन्तु ज्ञान में उस शुद्धत्व की प्रसिद्धि नहीं होने पाती । अत: अनुभूति शून्य उस ज्ञान को मिथ्याज्ञान की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। फिर वह ज्ञान लोकदृष्टि से विस्तृत होने के कारण भले ही आदरणीय हो, किन्तु प्रयोजनभूत शुद्ध स्वतत्त्व और रागादि विकार तथा देहादि जड़ तत्त्वों में ग्रंथिभेद करने में असमर्थ होने के कारण पर को ही स्वस्थान में सेवन करता हुआ अपने योग्य फल अर्थात् निराकुल सुख का उत्पादन नहीं करता । अतएव श्रद्धा की सचाई के साथ ही ज्ञान में सचाई उत्पन्न होती है। श्रद्धा और ज्ञान - शक्ति के कार्यों की उनके स्व-स्वलक्षणों से भिन्न पहिचान न होने के कारण ज्ञान के “मैं शुद्ध और निर्विकार हूँ" इत्यादि विकल्पों को ही प्राय: सम्यग्दर्शन मानने की भूल की जाती है, किन्तु “मैं शुद्ध ज्ञान तत्त्व हूँ” इस विकल्प की पुनरावृत्ति को वास्तव में सम्यग्दर्शन कहते ही नहीं है। वरन् शुद्ध ज्ञायक तत्त्व की अखंड धारावाहिक निर्विकल्प प्रतीति को सम्यग्दर्शन कहते हैं । विकल्प में ज्ञायक तत्त्व का विचार तो है, किन्तु तत्त्व का स्पर्श नहीं है। यदि “ मैं शुद्ध ज्ञायक तत्त्व हूँ" ज्ञान के इस

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66