Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 19
________________ चैतन्य की चहल-पहल जैसे रसोई होती है, वह किसकी बनी होती है ? जहाँ हम खाना बनाते हैं, पूछा जाता है, दूध कहाँ रखा है ? तो उत्तर मिला रसोई में, लेकिन क्या वह वास्तविक रसोई है ? रसोई तो जिसमें रस भरा हो, जिसके सेवन से क्षुधा निवृत्ति होकर तृप्ति होती है, वह असली रसोई है। पाषाण की रसोई को रसोई कहने पर भी उसे सत्य नहीं मान लेना, यह रसोई नहीं हो तो भोजन नहीं बनता, लेकिन इससे भी भोजन नहीं बनता । यह तो निमित्तमात्र है, निमित्त भी तब कहेंगे, जब हम पाषाणमयी रसोई का विकल्प तोड़कर भोजन की योग्य सामग्री द्वारा भोजन बनाने का भिन्न पुरुषार्थ करेंगे, तो रसोई बनेगी और हमारे प्रयोजन की सिद्धि होगी। यदि पाषाण निर्मित रसोई को रसोई मानकर बैठ जायेंगे तो भूखे ही रहेंगे, कष्ट ही बढ़ेगा। अतः सात तत्त्व की श्रद्धा को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा गया, वह वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं, सम्यग्दर्शन तो शुद्धात्मतत्त्व की निर्विकल्प प्रतीति व अनुभूतिरूप आनंदप्रदायी ही होता है और इसीलिए वहाँ सम्यग्दर्शन के साथ व्यवहार शब्द की योजना की गई हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन श्रद्धागुण की पर्याय ही नहीं है, फिर उसे सम्यग्दर्शन कहा भी कैसे जा सकता है ? करणलब्धि के उपरान्त जब स्वानुभूति पूर्वक सम्यग्दर्शन होता है, तब तो देव-शास्त्र-गुरु व सात तत्त्व का विकल्प भी नहीं रहता । पश्चात् सतत् स्वानुभूति में नहीं रहने पर भी सम्यग्दर्शन तो विद्यमान रहता है। 18 श्रद्धागुण की कार्य प्रणाली श्रद्धागुण की विशेषता अथवा उसका अर्थ यह है कि वह जिसको विषय करता है, उसे ही परिपूर्ण स्व अथवा आत्मा मानता

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