Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 43
________________ चैतन्य की चहल-पहल का अवकाश नहीं पाती। वास्तव में 'पूर्ण' में 'पूर्ण के अहं' के मिलने की भी कोई गुंजाइश नहीं है, अत: उस पूर्ण में 'पूर्ण के अहं' का भी त्रिकाल अभाव है और जिसमें कुछ मिलाया जा सके वह पूर्ण कैसा? अतः यदि श्रद्धा का स्वर यह हो कि 'मैं पूर्ण का अहं हूँ,' तो इस स्वर में 'पूर्ण का अहं' नहीं वरन् 'अहं का अहं' प्रवर्तित होता है और वह तो स्पष्ट मिथ्यादर्शन ही है । 42 यदि श्रद्धा को अपने में ही, पर्याय को पर्याय में ही विश्राम मिल जाता है तो फिर वह आलंबन क्यों तपासती है ? और यदि वह आलम्बन तपासती ही रही तो इसका अर्थ यह है कि उसे स्वयं अपने में विराम नहीं मिला। अतः स्वयं 'अहं' एवं 'अहं' की मिलावट वाला पूर्ण श्रद्धा का आलंबन नहीं होता वरन् निरपेक्ष पूर्ण उसका आलम्बन होता है । अत: श्रद्धा में स्वयं श्रद्धा का भी अत्यंत तिरोभाव होकर एक मात्र 'पूर्ण' का वर्चस्व ही आर्विभूत रहता है। उसमें ज्ञान की भाँति मुख्य एवं गौण की कोई व्यवस्था नहीं है । 'ध्रुव' तत्त्व श्रद्धा के लिये मुख्य तत्त्व नहीं वरन् वह उसका सर्वस्व ही है । इसीलिये सम्यग्दर्शन स्वयं अपने को मिटाकर ध्रुव का दर्शन करता है। वह अपने को गौण' की कक्षा में भी नहीं रखता । वास्तव में अपने को बचाकर श्रद्धेय को अपना समर्पण करने की वार्ता तो एकदम छल एवं छद्म है। स्वयं को मिटाये बिना समर्पण का स्वरूप ही नहीं बन सकता। इसीलिये सम्यग्दर्शन की दुनियाँ में सम्यग्दर्शन संज्ञा वाली कोई वस्तु ही नहीं है। राधा ने जगत् में राधा को कभी देखा ही नहीं । उसकी दुनियाँ कृष्ण की बनी थी। श्रद्धा की इस अनंत शून्यता में ही

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