Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ 44 चैतन्य की चहल-पहल _ 'मेरी सत्ता ध्रुव है', सम्यग्दर्शन को द्रव्य-पर्याय का यह भेद भी बर्दाश्त नहीं है। दृष्टि (श्रद्धा) का स्वरूप ही ऐसा है। उसे ज्ञान की तरह स्व-पर का भेद करना नहीं आता, उसे तो अहं करना आता है। उसके लोक में कोई पर है ही नहीं। वह मिथ्या होती है, तब भी उसे सब स्व ही दिखाई देता है, तब सम्यक् होने पर तो उसकी परिधि में अन्य भावों का प्रवेश कैसे सम्भव है ? और तो और, सम्यग्दर्शन के घर में स्वयं सम्यग्दर्शन के रहने के लिए भी कोई जगह नहीं है। उसने अपना कोना-कोना ध्रुव के लिए खाली कर दिया है। - सौराष्ट्र के सन्त ने भव के अन्त के लिए 'ध्रुव' का यह मंगल सूत्र लोक को दिया। उन्होंने सम्यग्दर्शन के जिस स्वरूप का अनुसंधान किया वह इस युग का एक आश्चर्य है। सम्यग्दर्शन के इस सूक्ष्म एवं अद्भुत स्वरूप का इस युग को स्वप्न भी नहीं था। . वास्तव में श्री कानजीस्वामी इस युग में सम्यग्दर्शन के आविष्कर्ता हैं और यह भवान्तक सम्यग्दर्शन इस युग को उनका सबसे महान् वरदान है। इसके स्वरूप का बोध उनके बिना सम्भवित ही नहीं था। . उन सत्पुरुष ने सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में प्रचलित सभी भ्रान्तियों को प्रक्षालित कर दिया। कोई कहते थे कि सच्चे देव-गुरुधर्म की श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है तो कोई सात तत्त्व की श्रद्धा। किसी ने तो यहाँ तक कहने का दुस्साहस किया कि जैनकुल में जन्म ही सम्यग्दर्शन है। कहीं से आवाज आई कि सम्यग्दर्शन काललब्धि आने पर अपने आप होता है, उसके लिए पुरुषार्थ अपेक्षित नहीं है और उत्पन्न हो जाने पर भी स्वयं को उसका पता नहीं चलता। किन्तु उन महापुरुष ने रहस्योद्घाटन किया कि इनमें से एक भी सम्यग्दर्शन

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66