Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 30
________________ 29 -- - - सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय) बदलने वाली पर्याय। आत्म-पदार्थ के भी इसी प्रकार दो अवयव हैं - एक उसकी श्रद्धा, ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त शक्तिमय, ध्रुव, शुद्ध एवं पूर्ण सत्ता एवं दूसरी उसकी श्रद्धा, ज्ञान आदि पर्याय (मानने-जानने आदि रूप पर्याय)। आत्म सत्ता का ऐसा परिशुद्धस्वरूप स्थापित हो जाने पर आत्मा की श्रद्धा, ज्ञान (जानने-माननेवाली पर्याय) वृत्ति का केवल एक ही काम रहा कि वह आत्मा को पूर्ण एवं शुद्ध ही माने, ऐसा ही जाने एवं ऐसा ही अनुभव करे एवं अन्य सभी जड़-चेतन पदार्थों को अपने से भिन्न जाने। किन्तु आत्मा की इस वृत्ति में सदा से ही यह अज्ञान एवं अविश्वास रहा कि उसने अपने को शुद्ध एवं पूर्ण माना ही नहीं, अतएव अपनी पड़ौसी देहादि सत्ताओं में ही मुग्ध रही। उन्हीं में अहं किया एवं उन्हीं में लीनता। पर-सत्ताओं में अहं की यह वृत्ति महान् व्यभिचारिणी है, क्योंकि उसमें विश्व की अनन्त सत्ताओं को अपने अधिकार में लेकर उनमें रमण करने की चेष्टा है। अत: विश्व की स्वतन्त्र एवं सुन्दर व्यवस्था को समाप्त कर देने की यह हरकत विश्व का सर्व महान् अपराध हुआ और उसकी दण्ड-व्यवस्था में निगोद फलित हुआ। जीव के अनादि अज्ञान का कारण व निवारण परिशुद्ध कांचन-तत्त्व होने पर भी आत्मा की वृत्ति में इतना लम्बा एवं ऐसा भयंकर अज्ञान क्यों रहा ? उसका उत्तर आत्मा से दूर कहीं अन्यत्र तलाश करना एक दार्शनिक अपराध होगा, क्योंकि भिन्न सत्ता की वस्तुओं में कारण-कार्य भाव कभी भी घटित नहीं होता। अत: इसका उत्तर स्वयं आत्मा में ही निहित है और वह यह है कि आत्मा ने सदा से स्वत: ही यह अज्ञान परिणाम किया और वह स्वयं ही अज्ञानी रहा।

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