Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 37
________________ 36 चैतन्य की चहल-पहल ज्ञान का अनेकान्त व दृष्टि का एकान्त स्वरूप ज्वलंत प्रश्न का सरल समाधान एक वार्ता यह भी बहुलता से चलती है कि जब एकान्त पर्यायदृष्टि अर्थात् पर्याय का अहं मिथ्या एवं आकुलतास्वरूप है तो एकान्त द्रव्यदृष्टि भी मिथ्या एवं आकुलतामय होना चाहिए ? यह तर्क ठीक ऐसा ही लगता है कि गर्त में गिरना यदि एकान्त कष्टमय है तो सदन का निवास भी एकान्त कष्टप्रद ही होना चाहिए, किन्तु यह तर्क तो स्पष्ट अनुभूति के विरुद्ध है । जब अनादि से समग्र ही पर्याय - समुदाय अज्ञान, राग-द्वेष एवं अनित्यता का आयतन है और इसके समानान्तर एकमात्र निज चैतन्य सत्ता ही शुद्ध, पूर्ण, ध्रुव एवं आनन्द - निकेतन है तो दोनों में से किसका अहं एवं किसका अवलम्बन श्रेयस्कर होगा ? एक बात और है और वह यह कि ज्ञान सदा अनैकांतिक ही होता है और दृष्टि (श्रद्धा) सदा एकांतिक ही होती है। द्रव्य एवं पर्याय के परस्पर विरुद्ध दोनों पहलुओं का परिज्ञान हो जाने पर सहज ही निर्णय हो जाता है कि वृत्ति (दृष्टि) को दोनों में से कहाँ आराम लेगा । निश्चित रूप में ध्रुव द्रव्य ही शाश्वत आराममय है। इसप्रकार ध्रुव की महिमा ज्ञात हो जाने पर अनादि से क्षणिक वृत्ति - समुदाय में पड़ा श्रद्धा का अहं विगलित होकर निज ध्रुव सत्ता के अहं में परिणत हो जाता है। श्रद्धा का विषय इतना स्पष्ट होने पर भी प्रमाणाभास से ग्रासीभूत आग्रह श्रद्धा के विषय में पर्याय शामिल किये बिना तृप्त नहीं होते । किन्तु हमारा संतुलित विशुद्ध चिन्तन स्वयं हमें यह समाधान देगा कि श्रद्धा के विषयक्षेत्र में पर्याय के भी पदार्पण का हमारा आग्रह अविवेक तो है ही, साथ ही अत्यन्त अव्यावहारिक भी है।

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