________________
सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय)
इस सम्बन्ध में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात सदा दृष्टव्य है - एक प्रश्न है कि श्रद्धा का श्रद्धेय पहले से ही विद्यमान एवं पूर्ण होता है या श्रद्धा के क्षण में स्वयं श्रद्धा आदि वृत्तियाँ श्रद्धेय के साथ मिलकर उसे पूरा करती हैं और तब वह उसका श्रद्धेय होता है ?
यदि श्रद्धा आदि वृत्तियाँ श्रद्धेय को पूरा करती हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि श्रद्धेय सदा ही अपूर्ण है और अपूर्ण श्रद्धेय में श्रद्धा का सर्व-समर्पण एवं लीनता अनन्तकाल में भी सम्भव नहीं है। इस प्रकार श्रद्धेय की अपूर्णता में श्रद्धा का स्वरूप सदैव संदिग्ध, भ्रान्त एवं मलिन ही रहेगा और वह कभी भी सर्व-समपर्ण पूर्वक श्रद्धेय का वरण नहीं करेगी। .. एक बात और है - यह तो सर्वविदित है कि वर्तमान में अज्ञानी
का सर्व पर्याय-समुदाय विकारी है और स्व एवं पर, द्रव्य एवं पर्याय, विकार एवं निर्विकार आदि का तात्विक चिंतन एवं विश्लेषण भी
अज्ञान दशा में ही प्रारम्भ होता है। अत: द्रव्य एवं पर्याय के तात्विक विश्लेषण में पर्याय-समुदाय के विकार एवं अनित्यता का पता लग जाने पर भी उसे निर्विकारी द्रव्य के साथ मिलाकर अनुभव करने का आग्रह तो भयंकर अविवेक ही होगा और क्या इस अविवेकपूर्ण प्रयास में किसी मनोरम, रमणीक एवं परम निर्विकार श्रद्धेय की अनुभूति एवं उपलब्धि हो सकेगी ? विकार को निर्विकार के साथ एकाकार करके अनुभव करने के प्रयास में वास्तव में दोनों कभी एकमेक तो होते ही नहीं वरन् इस दुराग्रह में द्रव्य एकांत विकारी ही अनुभव में आता है, कुछ विकारी एवं कुछ निर्विकारी नहीं। वास्तव में यह आग्रह शुद्ध दूध में राख मिलाकर सेवन करने तुल्य है। जब दूध एवं राख परस्पर विपरीत दो तत्त्व हैं और दोनों की