Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 36
________________ सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय) 35 पर्याय के अनन्त सत्वों से भी वह एक चिन्मय सत्ता बहुत अधिक है। पर्याय जब उस अनन्तात्मक एक का अहं एवं अनुभव करती है तो उस एक की अनुभूति में अनन्त ही गुणों का स्वाद समाहित हो जाता है। इसके विपरीत एक-एक गुण - पर्याय की अनुभूति की चेष्टा स्वयं ही वस्तुस्थिति के विरुद्ध होने से कभी भी फलित नहीं हो पाती, अतः प्रतिक्षण आकुलता ही उत्पन्न करती है; क्योंकि वस्तु के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त गुणों की समष्टि इस तरह संगठित एवं एकमेक होकर रहती है कि उनमें से किसी एक के अनुभव का आग्रह अनंत काल में भी साकार नहीं होता वरन् अज्ञानी अपनी इस चेष्टा में प्रतिक्षण विफल-प्रयास होने से निरन्तर प्रचण्ड आकुलता को उपलब्ध करता रहता है । गुण पर्याय के अहं में अनन्त गुण - पर्याय की एकछत्र स्वामिनी भगवती चैतन्य सत्ता का महान् अपमान भी होता है । अत: गुण पर्याय का अहं भी जड़ सत्ताओं के अहं के समान मिथ्यादर्शन ही है। आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय एक ही समय में ज्ञान के विषय तो बनते हैं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि इनको अहं भी एक ही साथ समान रूप से समर्पित किया जाये । अनेक को एक साथ जानना एक बात है और फिर उनमें से श्रद्धा (अहं) के विषय का चयन करना बिलकुल भिन्न दूसरी बात है । सभी ज्ञेय श्रद्धेय नहीं होते वरन् आत्मा के द्रव्य - गुण - पर्यायमय परस्पर विरुद्ध स्वरूप को जानकर ज्ञान ही यह निर्णय लेता है कि ये तीनों समान रूप से उपादेय नहीं हो सकते वरन् तीनों में मात्र निरपेक्ष, निर्भेद एवं निर्विशेष द्रव्य सामान्य ही उपादेय अथवा श्रद्धेय होने योग्य है । अन्य की उपादेयता स्पष्ट मिथ्यादर्शन है।

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