Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 39
________________ 38 चैतन्य की चहल-पहल अत्यन्त भिन्न अनुभूति हो सकती है तो दोनों को मिलाकर सेवन करने का आग्रह तो मात्र बालचेष्टा ही होगा। इस चेष्टा में कभी भी शुद्ध दूध की अनुभूति संभवित नहीं होगी एवं कुछ शुद्ध दूध की अनुभूति और कुछ अशुद्ध दूध की अनुभूति – ऐसा द्वैत न होकर एकांत अशुद्धता का ही अनुभव होगा। इसी प्रकार परम-निर्विकार द्रव्य एवं क्षणिक विकारी पर्याय समुदाय - दोनों परस्पर विपरीत दो भाव होने से दोनों में से एक समय में एक का ही अहं एवं अनुभूति, अत्यन्त असंदिग्ध है। तब फिर दोनों को मिलाने का दुराग्रह क्यों ? और यह आग्रह तो तब होना चाहिए जब एक समय में एक के बिना दूसरे का संचेतन असम्भव हो। किन्तु दोनों भाव परस्पर विपरीत होने से शुद्ध चैतन्यतत्त्व की अनुभूति अशक्य एवं दुःसाध्य तो है ही नहीं वरन् सरलतम, सुखद एवं परम मंगलमय होती है, अतः क्षणिक एवं विकारी पर्याय के सम्मिश्रण के बिना परम निर्विकार द्रव्य के वेदन की अशक्यता का प्रतिपादन ज्ञान का भयंकर क्लैव्य है, फलस्वरूप तिरस्करणीय है। क्या है पर्याय का हेयत्व ? वस्तुत: अज्ञानी को अपनी विशुद्ध चिंतनधारा में जब यह पता लगता है कि मेरी सत्ता तो नितान्त शुद्ध एवं अक्षय है और मेरी ही वृत्ति उसे अशुद्ध एवं नश्वर घोषित करती रही तो वृत्ति-समुदाय के मिथ्या प्रलाप का उद्घाटन हो जाने पर वृत्ति-समुदाय में पड़ा उसका विश्वास स्खलित होकर शुद्ध चैतन्य सत्ता में अपने अहं की स्थापना कर लेता है। इस विश्वास में सदैव ही पर्याय के स्वर का निषेध प्रवर्तित होता है। इसी को पर्याय का हेयत्व कहते हैं। स्पष्ट बात तो यह है कि दृष्टि में

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