Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 32
________________ 31 सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय) का मर्म जिसे अपने ज्ञान में प्रतिभासित हुआ है उसे यह विशुद्ध चिंतनधारा प्रारम्भ होती है। एक प्रश्न हमारा और हो सकता है कि अज्ञानी को ज्ञान ही नहीं है, वह यह सब कैसे करता होगा ? तो ऐसा नहीं है कि उसके पास ज्ञान का अभाव है। अज्ञानी के पास ज्ञान तो बहुत है, किन्तु परसत्तासक्ति के कारण उसके ज्ञान का सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्यवसाय भी पर में ही होता है। किन्तु यही ज्ञान सद्गुरु भगवन्त से आनन्द निकेतन स्व-सत्ता की महिमा सुनकर उसके प्रति उग्र व्यवसाय करके सम्यग्ज्ञान में परिणत हो जाता है और अतीन्द्रिय आनन्द का. वेदन करने लगता है। अज्ञानी के ज्ञान का यह ईहात्मक प्रश्न है कि अज्ञान का अन्त कैसे हो ?' अज्ञान को एक खुली चुनौती है। इस प्रश्न में अज्ञानी को अज्ञान का स्वरूप विदित हो चुका है। अब वह समझने लगा है कि मेरी चैतन्य सत्ता तो अनादि-अनंत, पूर्ण, ध्रुव, अक्षयानन्द स्वरूप एवं सर्व सम्बन्ध विहीन है और मेरी ही वृत्ति ने उसे नश्वर, । अपूर्ण, दुःखी, अज्ञानी एवं पराधीन कल्पित किया है। यही मेरा अज्ञान था और अज्ञान आत्मा की पर्याय होने पर भी झूठा होने से कभी भी अनुशीलन के योग्य अर्थात् श्रद्धेय नहीं है, क्योंकि अज्ञान के अनुशीलन में कभी भी सही आत्मसत्ता की उपलब्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार अज्ञान को वह स्व-सत्ता विरोधी एवं नितान्त मिथ्या मानकर अज्ञान एवं अज्ञान से प्रादुर्भूत पर-सत्तावलम्बी पुण्य एवं पाप की वृत्तियों एवं अनन्त पर-सत्ताओं से एकत्व तोड़ता हुआ एवं समर्थ भेदज्ञान के बल से स्व-सत्ता में ही एकत्व एवं अहं की स्थापना

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