Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 15
________________ सम्यग्दर्शन और उसका विषय (प्रथम) दर्शन शब्द विविध मत-मतांतर, चाक्षुष-ज्ञान, सामान्य अवलोकन तथा श्रद्धा आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। सम्यग्दर्शन के प्रकरण में दर्शन श्रद्धा के अर्थ में ग्राह्य होता है। श्रद्धा, विश्वास, दृष्टि, प्रतीति, रुचि आदि शब्द 'दर्शन' के पर्यायान्तर हैं। श्रद्धा आत्मा की एक शक्ति है। उसकी पर्याय का विषय ध्रुव स्वतत्त्व है। सम्यग्दर्शन - श्रद्धा शक्ति की निर्मल, निर्विकार दशा है। सहीदृष्टि विश्वार्थों का सही अवलोकन करती है और उनमें से अपने उपादेय तत्त्व को चुनकर उसी का आश्रय करती है। इसके विपरीत गलत-दृष्टि अथवा मिथ्या-दृष्टि स्व से सर्वथा भिन्न विश्व के पदार्थों के साथ एकत्व अथवा कारण-कार्य भाव की स्थापना करती है। सम्यग्दर्शन अथवा सही-दृष्टि का अर्थ यह नहीं है कि अपने से भिन्न शरीरादि पर-पदार्थों को पर कह दिया जाय, चेतन को चेतन अथवा जड़ को जड़ कह दिया जाय और अपने अबद्ध अस्पृष्ट अक्षय स्वभाव का चिन्तन कर लिया जाय वरन् स्व-पर के बीच जो मौलिक भेद विद्यमान है, उसकी सर्वांगीण (षट्कारकीय) स्वीकृति पूर्वक स्वतत्त्व की निर्विकल्प अनुभूति में सम्यग्दर्शन का अवतरण होता है।

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