Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 9
________________ चैतन्य की चहल-पहल की थाह लेता है। उसका अनुसंधान अति सूक्ष्म एवं गम्भीर है। वह ऐसा गोता खोर है जो सागर के घनत्वों को तब तक वेधता जाता है जब तक उसे सीपी के संपुट में मोती उपलब्ध नहीं होता। तत्त्वज्ञान का सम्पूर्ण विधान आत्मा के लिये है। वस्तुतः वह आत्मा की ही परिशुद्ध बोधावस्था है। वह आत्मा के अनन्त कष्टों के कारणों का निदान कर जीवन के शांति निकेतन का उद्घाटन करता है। वह कहता है कि आत्मा सदा ही अविनाशी, अनन्त शान्ति का निधान, परम वीतराग, सबसे अलग-थलग, अनंत शक्ति पुंज एक सम्पूर्ण चैतन्य सत्ता है। अनंत महिमावंत वस्तु होने पर भी आत्मा को सदा से ही अपने गौरव की प्रतीति एवं बोध नहीं है वरन् अनादि से ही वह देह और देह के परिकर अगणित जड़-स्कंधों में अपनी प्राण-प्रतिष्ठा करता रहा है। वस्तु व्यवस्था के आलोक में जब आत्मा की इस प्रवृत्ति की मीमांसा की जाती है तो वह अपराधिनी सिद्ध होती है; क्योंकि कण-कण की स्वाधीनता में व्यवस्थित विश्व को यह बहुत बड़ी चुनौती है, कुदरत की सत्ताओं को अपने तंत्र में लेकर निगलने का यह सर्व महान् अपराध है, अत: दण्डनीय है। किन्तु अपने इस प्रयास में आत्मा कभी भी कृत-कार्य नहीं होता क्योंकि पर सत्ताओं में उसके हस्तक्षेप की चरितार्थता कभी भी संभव नहीं है। अत: विवशता की कारा में तड़पता ही रहता है। - आत्मा की अनंत कष्टावलियों के सम्बन्ध में तत्त्वज्ञान का यह त्रैकालिक निदान है और तत्त्वज्ञान उनके सार्वभौमिक और सार्वकालिक परिहार का पथ भी निर्दिष्ट करता है। वह कहता है कि सुख और

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