Book Title: Chaitanya Ki Chahal Pahal
Author(s): Yugal Jain, Nilima Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 10
________________ तत्त्वज्ञान : एक अनूठी जीवन कला शांति आत्मा का स्वरूप ही है। अत: किसी अन्य पदार्थ एवं इन्द्रिय भोगों को उसका साधन मान कर संग्रह की चेष्टा करना मूर्खतापूर्ण अपराध है। इस विश्वास के कारण आत्म-वृत्ति एक अनाचारी पुरुष की तरह सदैव पर सत्ताओं में परिभ्रमण शील रहती है। अत: अपनी चैतन्य वाटिका की महिमा में अविराम चिंतन द्वारा भ्रमणशील चैतन्य वृत्तियों को आत्मस्थ करके स्वरूप सौन्दर्य का संवेदन करना ही मुक्ति का एक मार्ग है, दूसरा नहीं। तत्त्वदृष्टा को देह और उसके परिकर अगणित इन्द्रिय विषयों का सानिध्य भी रहता है। इनका कभी मनोवांछित परिणमन भी होता है और कभी परम प्रतिकूल भी, किन्तु परत्व बोध के बल से वह इन सभी परिस्थितियों में अप्रभावित रह लेता है। इसी प्रकार अज्ञान के निमित्त से आत्मा के साथ संश्लिष्ट कर्म बन्धनों के प्रति भी तत्त्वज्ञ अत्यन्त मध्यस्थ हो जाता है क्योंकि जैसे एक समझदार अपराधी इस तथ्य को असंदिग्ध भाव से जानता है कि उसके बन्धन उसके पूर्व-कृत अपराधों के प्रतिफल मात्र हैं किन्तु अपराधों के कारण नहीं हैं, उसी प्रकार तत्त्वज्ञान की यह अत्यन्त निःशंक और स्पष्ट मान्यता है कि कर्म बन्धनों का उसकी अशुद्धतम संसार दशा और शुद्धतम मोक्ष दशा के प्रति किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है। तत्त्वज्ञान तत्त्व-दर्शी की प्रयोगशाला है। वह आत्मा से संयुक्त विजातीय परतों का एक्सरे की रश्मियों की तरह तब तक भेधन करता जाता है जब तक उसे आनन्द-निधान चैतन्य के दर्शन नहीं होते। काया और कर्म की माया में तो उसके चरण

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