Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ छहढाला पहली ढाल भावार्थ :- हे भद्र प्राणियो! यदि अपना हित चाहते हो तो अपने मन को स्थिर करके यह शिक्षा सुनो । जिसप्रकार कोई शराबी मनुष्य तेज शराब पीकर, नशे में चकचूर होकर, इधर-उधर डगमगाकर गिरता है, उसीप्रकार यह जीव अनादिकाल से मोह में फँसकर, अपनी आत्मा के स्वरूप को भूलकर चारों गतियों में जन्म-मरण धारण करके भटक रहा है।।३।। इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता और निगोद का दुःख तास भ्रमन की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मँझार, वीत्यो एकेन्द्री तन धार ।।४।। अन्वयार्थ :- (तास) उस संसार में (भ्रमन की) भटकने की (कथा) कथा (बहु) बड़ी (है) है (पै) तथापि (यथा) जैसी (मुनि) पूर्वाचार्यों ने (कही) कही है [तदनुसार मैं भी] (कछु) थोड़ी-सी (कहूँ) कहता हूँ [कि इस जीव का] (निगोद मँझार) निगोद में (एकेन्द्री) एकेन्द्रिय जीव के (तन) शरीर (धार) धारण करके (अनंत) अनंत (काल) काल (वीत्यो) व्यतीत हुआ है। भावार्थ :- संसार में जन्म-मरण धारण करने की कथा बहुत बड़ी है। तथापि जिसप्रकार पूर्वाचार्यों ने अपने अन्य ग्रन्थों में कही है, तदनुसार मैं (दौलतराम) भी इस ग्रन्थ में थोड़ी-सी कहता हूँ। इस जीव ने नरक से भी निकृष्ट निगोद में एकेन्द्रिय जीव के शरीर धारण किये अर्थात् साधारण वनस्पतिकाय में उत्पन्न होकर वहाँ अनंतकाल व्यतीत किया है।।४।। निगोद का दुःख और वहाँ से निकलकर प्राप्त की हुई पर्यायें एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मस्यो भस्यो दुखभार। निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो ।।५।। अन्वयार्थ :- [निगोद में यह जीव] (एक श्वास में) एक साँस में (अठदस बार) अठारह बार (जन्म्यो) जनमा और (मस्यो) मरा [तथा] (दुखभार) दुःखों के समूह (भस्यो) सहन किये [और वहाँ से] (निकसि) निकलकर (भूमि) पृथ्वीकायिक जीव (जल) जलकायिक जीव, (पावक) अग्निकायिक जीव (भयो) हुआ तथा (पवन) वायुकायिक जीव [और] (प्रत्येक वनस्पति) प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव (थयो) हुआ। भावार्थ :- निगोद [साधारण वनस्पति] में इस जीव ने एक श्वासमात्र (जितने) समय में अठारह बार जन्म और मरण करके भयंकर दुःख सहन किये हैं और वहाँ से निकलकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के रूप में उत्पन्न हुआ।।५।। __ तिर्यंचगति में त्रस पर्याय की दुर्लभता और उसका दुःख दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपील अलि आदि शरीर, धर धर मत्यो सही बहु पीर ।।६।। अन्वयार्थ :- (ज्यों) जिसप्रकार (चिन्तामणि) चिन्तामणि रत्न (दुर्लभ) कठिनाई से (लहि) प्राप्त होता है (त्यों) उसीप्रकार (बसतणी) त्रस की (पर्याय) पर्याय [भी बड़ी कठिनाई से] (लही) प्राप्त हुई। [वहाँ भी] (लट) १. नया शरीर धारण करना। २. वर्तमान शरीर का त्याग। ३. निगोद से निकलकर ऐसी पर्यायें धारण करने का कोई निश्चित क्रम नहीं है; निगोद से एकदम मनुष्य पर्याय भी प्राप्त हो सकती है। जैसे कि - भरत के ३२ हजार पुत्रों ने निगोद से सीधी मनुष्य पर्याय प्राप्त की और मोक्ष गये।

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