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छहढाला
पाँचवीं ढाल
पाँचवीं ढाल का सारांश ये बारह भावनाएँ चारित्रगुण की आंशिक शुद्ध पर्यायें हैं; इसलिये वे सम्यग्दृष्टि जीव को ही हो सकती हैं। सम्यक् प्रकार से ये बारह प्रकार की भावनाएँ भाने से वीतरागता की वृद्धि होती है; उन बारह भावनाओं का चितवन मुख्यरूप से तो वीतरागी दिगम्बर जैन मुनिराज को ही होता है तथा गौणरूप से सम्यग्दृष्टि को होता है। जिसप्रकार पवन के लगने से अग्नि भभक उठती है, उसीप्रकार अन्तरंग परिणामों की शुद्धता सहित इन भावनाओं का चितवन करने से समताभाव प्रकट होता है और उससे मोक्षसुख प्रकट होता है। स्वोन्मुखतापूर्वक इन भावनाओं से संसार, शरीर और भोगों के प्रति विशेष उपेक्षा होती है और आत्मा के परिणामों की निर्मलता बढ़ती है। (इन बारह भावनाओं का स्वरूप विस्तार से जानना हो तो 'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा', 'ज्ञानार्णव' आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए।)
अनित्यादि चितवन द्वारा शरीरादि को बुरा जानकर, अहितकारी मानकर, उनसे उदास होने का नाम अनुप्रेक्षा नहीं है; क्योंकि यह तो जिसप्रकार पहले किसी को मित्र मानता था, तब उसके प्रति राग था और फिर उसके अवगुण देखकर उसके प्रति उदासीन हो गया। उसीप्रकार पहले शरीरादि से राग था, किन्तु बाद में उनके अनित्यादि अवगुण देखकर उदासीन हो गया; परन्तु ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है। किन्तु अपने तथा शरीरादि के यथावत् स्वरूप को जानकर, भ्रम का निवारण करके, उन्हें भला जानकर राग न करना तथा बुरा जानकर द्वेष न करना - ऐसी यथार्थ उदासीनता के हेतु अनित्यता आदि का यथार्थ चितवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २२९ - श्री टोडरमल स्मारक ग्रन्थमाला से प्रकाशित)।
पाँचवीं ढाल का भेद-संग्रह अनुप्रेक्षा अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, अथवा भावना :- आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म -
ये बारह अनुप्रेक्षा के भेद हैं। इन्द्रियोंके विषय :-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द - ये पाँच हैं। निर्जरा :- के चार भेद हैं :- अकाम, सविपाक, सकाम,
अविपाक। योग :
द्रव्य और भाव। परिवर्तन :- पाँच प्रकार हैं :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। मलद्वार :- दो कान, दो आँखें, दो नासिका छिद्र, एक मुँह तथा
मल-मूत्रद्वार दो - इसप्रकार नौ। वैराग्य :- संसार, शरीर और भोग - इन तीनों से उदासीनता। कुधातु :- पीव, लह, वीर्य, मल, चर्बी, मांस और हड्डी
आदि सात।
पाँचवीं ढाल का लक्षण-संग्रह अनुप्रेक्षा (भावना):- भेदज्ञानपूर्वक संसार, शरीर और भोगादि के स्वरूप का
बारम्बार विचार करके उनके प्रति उदासीनभाव
उत्पन्न करना। अशुभ उपयोग :- हिंसादि में अथवा कषाय, पाप और व्यसनादि निन्दापात्र
कार्यों में प्रवृत्ति। असुरकुमार :- असुर नामक देवगति-नामकर्म के उदयवाले भवनवासी
देव। कर्म :- आत्मा रागादि विकाररूप से परिणमित हो तो उसमें
निमित्तरूप होनेवाले जड़कर्म-द्रव्यकर्म । गति :- नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यरूप जीव की अवस्था
विशेष को गति कहते हैं; उसमें गति नामक नामकर्म
निमित्त है। ग्रैवेयक :- सोलहवें स्वर्ग से ऊपर और प्रथम अनुदिश से नीचे,
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