Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 65
________________ १२० छहढाला अन्यत्वभावना में अन्तर बतलाओ । (३) अनुप्रेक्षा, अनित्यता, अन्यत्व और अशरणपने का स्वरूप दृष्टान्त सहित समझाओ। (४) अकाम निर्जरा का निष्प्रयोजनपना, अचल सुख की प्राप्ति, कर्म आस्रव का निरोध, पुण्य के त्याग का उपदेश और सांसारिक सुखों की असारता आदि के कारण बतलाओ । (५) अमुक भावना का विचार और लाभ, आत्मज्ञान की प्राप्ति का समय और लाभ, औषधि सेवन की सार्थकता - निरर्थकता, बारह भावनाओं चितवन से लाभ, मंत्रादि की सार्थकता और निरर्थकता । वैराग्य की वृद्धि का उपाय, इन्द्रधनुष तथा बिजली का दृष्टान्त क्या समझाते हैं ? लोक का कर्ता हर्ता मानने से हानि, समता न रखने से हानि, सांस सुख का परिणाम और मोक्ष - सुख की प्राप्ति का समय - आदि का स्पष्ट वजन पीयो धी धारी, जिनवाणी सुधा-सम जानिके ॥ टेक ॥। (६) मावि तथा कुट्टी का अन्य भावार्थ समझाओ। लोक का गौतमा न बना और पाचव्यापी परम सुरुचि करतारी ॥ १ ॥ सलिल समान कलिल - मलगंजन, बुधमनरंजन हारी । भंजन विभ्रम धूलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी ।। २ ।। कल्याणकतरु उपवनधरिनी, तरनि भवजलतारी । बंधविदारन पैनी छैनी, मुक्ति नसैनी सारी ।। ३ ।। स्वपरस्वरूप प्रकाशन को यह, भानुकला अविकारी । मुनिमनकुमुदिनि-मोदनशशिभा, शमसुखसुमन सुवारी ॥४ ॥ जाके सेवत बेवत निजपद, नसत अविद्या सारी । तीन लोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी ।। ५ ।। कोटि जीभ सों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी । 'दौल' अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारन हारी || ६ || 65 छठवीं ढाल (हरिगीत छन्द) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य महाव्रत के लक्षण षट्काय जीव न हननतें, सब विध दरवहिंसा टरी । रागादि भाव निवारतें, हिंसा न भावित अवतरी ।। जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयो गहैं। अठदश सहस विध शील घर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहें ।। १ ।। अन्वयार्थ :- (षट्काय जीव) छह काय के जीवों को (न हननतें) घात न करने के भाव से (सब विध) सर्व प्रकार की (दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा (टरी) दूर हो जाती है और (रागादि भाव) राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों को (निवार) दूर करने से (भावित हिंसा) भाव हिंसा भी (न अवतरी) नहीं होती, (जिनके) उन मुनियों को (लेश) किंचित् (मृषा) झूठ (न) नहीं होती, (जल) पानी और (मृण) मिट्टी (हू) भी (बिना दीयो) दिये बिना (न गहँ) ग्रहण नहीं करते तथा (अठदश सहस) अठारह हजार ( विध) प्रकार के (शील) शील को - ब्रह्मचर्य को (धर) धारण करके (नित) सदा (चिद्ब्रह्म में) चैतन्यस्वरूप आत्मा में (रमि रहैं) लीन रहते हैं। भावार्थ:- निश्चयसम्यग्दर्शन- ज्ञानपूर्वक स्वरूप में निरन्तर एकाग्रतापूर्वक रमण करना ही मुनिपना है। ऐसी भूमिका में निर्विकल्प ध्यानदशारूप सातवाँ गुणस्थान बारम्बार आता ही है। छठवें गुणस्थान के समय उन्हें पंच महाव्रत, नग्नता, समिति आदि अट्ठाईस मूलगुण के शुद्धभाव होते हैं, किन्तु उसे वे धर्म नहीं मानते; तथा उस काल भी उन्हें तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्ध परिणति निरन्तर वर्तती ही है। छह काय (पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर काय तथा एक त्रस काय) के जीवों का घात करना, सो द्रव्यहिंसा है और राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान

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