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अध्यात्मप्रेमी कविवर पण्डित श्री दौलतरामजी कृत
छहढाला
(टीका सहित)
गुजराती टीकाकार : श्री रामजी माणेक चन्द दोशी
हिन्दी अनुवादक: श्री मगनलाल जैन
प्रकाशक:
विमल ग्रन्थमाला प्रकाशन, दिल्ली
पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४, बापूनगर, जयपुर - ३०२०१५
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प्रथम उन्तीस संस्करण १ लाख ११ हजार ५००
( १९६५ से अद्यतन )
तीसवाँ संस्करण (२७ मई, २००७)
मूल्य: बारह रुपये
योग
टाइपसैटिंग : त्रिमूर्ति कम्प्यूटर्स ए-४ बापूनगर, जयपुर
मुद्रक : प्रिन्ट 'ओ' लैण्ड बाईस गोदाम, जयपुर
३ हजार
: १ लाख १४ हजार, ५००
पण्डित दौलतरामजी का जीवन परिचय 'छहढाला' जैसी अमर कृति के रचनाकार पण्डित दौलतरामजी का जन्म वि.सं. १८५५-५६ के मध्य सासनी, जिला- हाथरस में हुआ था। उनके पिता का नाम टोडरमलजी था, जो गंगटीवाल गोत्रीय पल्लीवाल जाति के थे। आपने बजाजी का व्यवसाय चुना और अलीगढ़ बस गये।
आपका विवाह अलीगढ़ निवासी चिन्तामणि बजाज की सुपुत्री के साथ हुआ। आपके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़े टीकारामजी थे।
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दौलतरामजी की दो प्रमुख रचनाएँ हैं एक तो 'छहढाला' और दूसरी 'दौलत-विलास'। छहढाला ने तो आपको अमरत्व प्रदान किया ही; साथ ही आपने १५० के लगभग आध्यात्मिक पदों की रचना की, जो दौलत-विलास में संग्रहित हैं। सभी पद भावपूर्ण हैं और 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं।
"छहढाला' ग्रन्थ का निर्माण वि. सं. १८९१ में हुआ। यह कृति अत्यन्त लोकप्रिय है तथा जन-जन के कंठ का हार बनी हुई है। इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण जैनधर्म का मर्म छिपा हुआ है।
वि. सं. १९२३ में मार्ग शीर्ष कृष्णा अमावस्या को पण्डित दौलतरामजी का देहली में स्वर्गवास हो
गया।
(ii)
2
प्रकाशकीय
( परिवर्धित नवीन संस्करण)
अध्यात्म प्रेमी कविवर पण्डित श्री दौलतरामजी कृत छहढाला ग्रन्थ आज दिगम्बर जैन समाज में इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि पाठशालाओं के माध्यम से इसके छन्द बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़े हुए हैं।
यद्यपि दौलतरामजी कृत इस छहढाला के पूर्व पण्डित श्री बुधजनजी एवं पण्डित श्री द्यानतरायजी ने छहढाला की रचना की थी, परन्तु उनका समाज में अपना कोई विशिष्ट स्थान नहीं बन पाया। दोनों छहढाला में ढालों के विषय सम्बन्धी क्रम में भी मौलिक अन्तर है।
इसमें संसारी जीव के भ्रमण की कथा है तथा किसप्रकार यह जीव संसाररूपी समुद्र को पार करके मोक्षपद प्राप्त कर सकता है इसका मार्ग सुगमता से बताया गया है। छहढाला से तात्पर्य इस ग्रन्थ में वर्णित ढालों से है। जिसप्रकार युद्धक्षेत्र में शत्रु पक्ष
-
के वारों से बचाव के लिए ढालों का प्रयोग किया जाता है, उसीप्रकार इस संसार चक्र में इस जीव को चौरासी लाख योनियों में भटकानेवाले मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञानमिथ्याचारित्र से बचाव के लिए छहढाला ग्रन्थ है।
सर्वप्रथम यह जीव मिथ्यात्व के वशीभूत होकर किन-किन गतियों व किन-किन योनियों में भटकता है - इसका सुविशद व संक्षिप्त वर्णन पहली ढाल में किया गया है। जिनके वशीभूत होकर यह जीव संसार चक्र में जन्म-मरण के अनन्त दुःख उठा रहा है, उन मिथ्यादर्शन - मिथ्याज्ञान- मिथ्याचारित्र (अगृहीत व गृहीत) का स्वरूप क्या है - इसका वर्णन दूसरी ढाल में सूत्रात्मक शैली में किया गया है।
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तीसरी ढाल में मोक्षमार्ग का सामान्य स्वरूप दर्शन व सम्यग्दर्शन का विशेष लक्षण, फल एवं महिमा का वर्णन बहुत ही सुन्दर रीति से किया गया है।
चौथी ढाल में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप फल एवं महिमा के साथ-साथ सम्यक्चारित्र के अंतर्गत पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक के बारह व्रतों का चित्रण भी प्रामाणिकता के साथ किया गया है।
देशव्रती श्रावक जब स्वयं विशेष पुरुषार्थ करके मुनिव्रत अंगीकार करता है, तब वह कैसी भावना भाता है इसका सर्वांगीण चित्रण बारह भावनाओं के रूप में पाँचवीं ढाल में अत्युत्तम रीति से किया गया है।
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समाज में अभी भी इन अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का चिन्तवन रो-रोकर किया जाता है, परन्तु यहाँ तो पाँचवीं ढाल के शुरू में पण्डित दौलतरामजी कहते हैं
इन चिन्तन सम-सुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागे।
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विषय-सूची
पृष्ठ संख्या
GIArm038
जिसप्रकार वायु के स्पर्श से अग्नि और अधिक प्रज्वलित हो जाती है, उसीप्रकार भावनाओं के चिन्तवन से समतारूपी सुख और अधिक वृद्धिंगत हो जाता है अर्थात् बारह भावनाओं का चिन्तवन न तो रो-रोकर और न ही हँस-हँसकर; बल्कि वीतराग भाव से करना चाहिए, जिससे समतारूपी सुख उत्पन्न हो।
छठवीं ढाल में मुनि से लेकर भगवान बनने तक की सारी विधि सविस्तार बताई गई है। यहाँ पण्डितजी ने छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन करने के पश्चात् स्वरूपाचरण चारित्र का वर्णन किया है, जिसमें आत्मानुभव का चित्रण बड़ी ही मगनता के साथ किया गया है; ऐसा लगता है - मानो पण्डितजी स्वयं मुनिराज के हृदय में बैठे हों और उनके अन्तरंग भावों का अवलोकन कर रहे हों। ___ इस छहढाला ग्रन्थ की रचना पर पण्डित टोडरमलजी कृत मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। दोनों ग्रन्थों की विषयवस्तु के क्रम में बहुत अधिक समानता है। संसार-दशा के चित्रण का निरूपण, तत्पश्चात् मोक्षमार्ग का स्वरूप - इन तीनों विषयों सम्बन्धी क्रम दोनों ग्रन्थों में समानता से पाया जाता है। मिथ्यात्व के गृहीत और अगृहीत - ये दो भेद भी इन ग्रन्थों में ही स्पष्टतया देखने को मिलते हैं, अन्यत्र नहीं।
इस सम्बन्ध में एक बात यह है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक के आद्य तीन अध्यायों का सार-संक्षेप छहढाला की पहली ढाल में व बाद के पाँच अध्यायों का सार-संक्षेप दूसरी ढाल में आ गया है। इसीप्रकार नौवें अध्याय की शुरुआत 'आत्मा का हित मोक्ष ही है। - से हुई है, उसीतरह तीसरी ढाल की शुरुआत 'आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये' - इस पंक्ति से हुई है।
छहढाला और मोक्षमार्ग प्रकाशक की इस समानता पर दृष्टिपात करने पर एक अनुसंधानात्मक पहलू सामने आता है कि यदि कोई विद्वान चाहे तो छहढाला की तीसरी, चौथी, पाँचवीं एवं छठवीं ढाल का आश्रय लेकर उसका विस्तार करते हुए इस अपूर्ण मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ को पूर्ण करने की जिम्मेदारी का कार्य पूर्ण कर सकता है।
आप सभी इस अद्वितीय कृति के माध्यम से अध्यात्म का मर्म समझकर अपना आत्मकल्याण करें, इसी भावना के साथ -
१५-२१
विषय पहली ढाल मंगलाचरण ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य, जीव की चाह गुरु-शिक्षा और संसार का कारण ग्रन्थ की प्रामाणिकता निगोद के दुःखों का वर्णन तिर्यंचगति में त्रसपर्याय की दुर्लभता और उसका दुःख नरकगति के दुःख, भूमि, वृक्ष, नदी, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास का वर्णन मनुष्यगति के दुःख देवगति के दुःख पहली ढाल का सारांश : भेद-संग्रह, अन्तर-प्रदर्शन एवं प्रश्नावली दूसरी ढाल संसार-परिभ्रमण का कारण अगृहीत मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्व का लक्षण जीवतत्त्व के विषय में मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा) मिथ्यादृष्टि का शरीर तथा परवस्तुओं संबंधी विचार अजीव और आस्रवतत्त्व की विपरीत श्रद्धा बन्ध और संवरतत्त्व की विपरीत श्रद्धा निर्जरा और मोक्ष की विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान अगृहीत मिथ्याचारित्र का लक्षण गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरु के लक्षण कुदेव - मिथ्यादेव का स्वरूप कुधर्म, गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत मिथ्याज्ञान गृहीत मिथ्याचारित्र, उसके त्याग तथा आत्महित में लगने का उपदेश दूसरी ढाल का सारांश : भेद-संग्रह, लक्षण-संग्रह एवं प्रश्नावली
ब्र. यशपाल जैन प्रकाशन मंत्री
३२-३३ ३४-३५ ३६-३९
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४१ से ७३
८३-८४
८५-८६
तीसरी ढाल
आत्महित, सच्चा सुख तथा दो प्रकार से मोक्षमार्ग का कथन निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का स्वरूप व्यवहारसम्यक्त्व का स्वरूप जीव के भेद, बहिरात्मा और उत्तम अन्तरात्मा मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा निकल परमात्मा का लक्षण तथा परमात्मा के ध्यान का उपदेश अजीव - पुद्गल, धर्म और अधर्म के लक्षण तथा भेद आकाश, काल और आस्रव के लक्षण तथा भेद । आस्रवत्याग का उपदेश, बन्ध, संवर, निर्जरा का लक्षण मोक्ष का लक्षण, व्यवहारसम्यक्त्व का लक्षण तथा कारण सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण सम्यक्त्व के आठ गुण और शंकादि आठ दोष मद नामक आठ दोष छह अनायतन और तीन मूढ़ता दोष अव्रती सम्यग्दृष्टि की इन्द्रादि द्वारा पूजा और गृहस्थपने में अप्रीति सम्यक्त्व की महिमा, सम्यग्दृष्टि के अनुत्पत्ति स्थान तथा सर्वोत्तम सुख और सर्वधर्म का मूल सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र का मिथ्यापना तीसरी ढाल का सारांश : भेद-संग्रह, लक्षण-संग्रह, अन्तर-प्रदर्शन एवं प्रश्नावली चौथी ढाल सम्यग्ज्ञान का लक्षण और उसका समय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में अन्तर सम्यग्ज्ञान के भेद, परोक्ष और देशप्रत्यक्ष के लक्षण सकलप्रत्यक्ष ज्ञान का लक्षण और ज्ञान की महिमा ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश में अन्तर ज्ञान के दोष और मनुष्यपर्याय आदि की दुर्लभता सम्यग्ज्ञान की महिमा और कारण सम्यग्ज्ञान की महिमा और विषयेच्छा रोकने का उपाय
(vi)
पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेध, तात्पर्य की बात सम्यक्चारित्र का समय और भेद, अहिंसा तथा सत्याणुव्रत अचौर्य ब्रह्मचर्य-परिग्रहपरिमाण अणुव्रत तथा दिव्रत देशव्रत (देशावकाशिक) नामक गुणव्रत अनर्थदण्डव्रत के भेद और उनका लक्षण सामायिक, प्रौषध, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग व्रत निरतिचार श्रावकव्रत पालने का फल चौथी ढाल का सारांश : भेद-संग्रह, लक्षण-संग्रह, अन्तर-प्रदर्शन एवं प्रश्नावली १३-१०० पाँचवीं ढाल
१०२ से १२० भावनाओं के चिन्तवन का कारण, उसके अधिकारी और उसका फल १०२ भावनाओं का फल और मोक्षसुख की प्राप्ति का समय
१०२-१०३ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्वभावना, अन्यत्व, अशुचिभावना, आसव, संवर, निर्जरा, लोकभावना, बोधिदुर्लभ एवं धर्मभावना १०३ से ११४ आत्मानुभवपूर्वक भावलिंगी मुनि का स्वरूप पाँचवीं ढाल का सारांश : भेद-संग्रह, लक्षण-संग्रह, अन्तर-प्रदर्शन एवं प्रश्नावली ११५-१२० छठवीं ढाल
१२१ से १५२ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य महाव्रत के लक्षण
१२१ परिग्रहत्याग महाव्रत, ईर्यासमिति, भाषासमिति
१२३ एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति
१२५ तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियों पर विजय
१२६-१२७ मुनियों के छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण
१२८ मुनियों के शेष गुण तथा राग-द्वेष का अभाव ।
१२९-१३० मुनियों के तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरण चारित्र शुद्धोपयोग का वर्णन
१३४ स्वरूपाचरण चारित्र का लक्षण और निर्विकल्प ध्यान स्वरूपाचरण चारित्र और अरहन्तदशा सिद्धदशा (सिद्ध स्वरूप) का वर्णन मोक्षदशा का वर्णन
१४१ रत्नत्रय का फल और आत्महित में प्रवृत्ति का उपदेश
१४२ अन्तिम सीख ग्रन्थ-रचना का काल और उसमें आधार छठवीं ढाल का सारांश : भेद-संग्रह, लक्षण-संग्रह, अन्तर-प्रदर्शन एवं प्रश्नावली १४५-१५२
६४-६५
६६-७२ ७४-१०१
७४-७५
१४३
८२-८३
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श्रीसद्गुरुदेवाय नमः अध्यात्मप्रेमी कविवर पण्डित दौलतरामजी कृत
छहढाला (सुबोध टीका)
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प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करनेवाले दातारों की सूची १. गुप्तदान हस्ते राजेन्द्रकुमार पंकजकुमारजी झालानी
७५०.०० पुष्पाबाई की स्मृति में, कुबड़ोद २. श्री अमोल विनयकुमारजी मेहता, बीजापुर
५१०.०० ३. श्री महिला मुमुक्षु मण्डल, बाँरा
५००.०० ४. अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन, बारा
५००.०० ५. श्री रतनमाला सोनी उदयपुरवाले, जयपुर
५००.०० ६. श्री सनतकुमारजी जैन, भोपाल
५००.०० ७. श्री सुरेन्द्रकुमारजी जैन, एडवोकेट, जयपुर
५००.०० ८. श्रीमती कमलाबाई श्रीपालजी बड़जात्या, इन्दौर ९. श्रीमती कुंदाबाई सा., इन्दौर
५००.०० १०. श्रीमती कुसुम जैन ध.प. विमलकुमारजी जैन, 'नीरू केमिकल्स', दिल्ली ५०१.०० ११. श्री शान्तिनाथजी सोनाज, अकलूज
२५१.०० १२. स्व. बाबूलाल तोतारामजी जैन, भुसावल
२५१.०० १३. श्रीमती पतासीदेवी इन्द्रचन्दजी पाटनी, लाडनूं
२५१.०० १४. श्रीमती रश्मिदेवी वीरेशजी कासलीवाल, सूरत
२५१.०० १५. कु. कुसुम जैन, बाहुबली, कुम्भोज
२५१.०० १६. श्री धर्मेन्द्रकुमार नवीनकुमार जैन, दिल्ली
२५०.०० १७. श्रीमती श्रीकान्ताबाई ध.प. पूनमचन्दजी छाबड़ा, इन्दौर
२०१.०० १८. श्रीमती नीलू ध.प. राजेन्द्रकुमार मनोहरलाल काला, इन्दौर २०१.०० १९. श्रीमती पतासीदेवी मनोहरलालजी सेठी, गौहाटी
१५१.०० २०. स्व. धापूदेवी ध.प. स्व. ताराचन्दजी गंगवाल, जयपुर की पुण्य स्मृति में १५१.०० २१. श्रीमती कंचनबाई दुलीचन्दजी जैन, खैरागढ़
१०१.०० कुल राशि ७,५७१.००
पहली ढाल - मंगलाचरण -
(सोरठा) तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं।।१।। अन्वयार्थ :- (वीतराग) राग-द्वेष रहित, (विज्ञानता) केवलज्ञान (तीन भुवन में) तीन लोक में (सार) उत्तम वस्तु (शिवस्वरूप) आनन्दस्वरूप [और] (शिवकार) मोक्ष प्राप्त करानेवाला है, उसे मैं (त्रियोग) तीन योग से (सम्हारिक) सावधानी पूर्वक (नमहुँ) नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ :- राग-द्वेषरहित “केवलज्ञान" ऊर्ध्व, मध्य और अधो - इन तीन लोकों में उत्तम, आनन्दस्वरूप तथा मोक्षदायक है, इसलिये मैं (दौलतराम) अपने त्रियोग अर्थात् मन-वचन-काय द्वारा सावधानी पूर्वक उस वीतराग (१८ दोष रहित) स्वरूप केवलज्ञान को नमस्कार करता हूँ।।१।। नोट:- इस ग्रन्थ में सर्वत्र ( ) यह चिह्न मूल ग्रन्थ के पद का है और [ ] इस चिह्न का प्रयोग
संधि मिलाने के लिए किया गया है।
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छहढाला
पहली ढाल
छहढाला
(धार) करके (दुःखहारी) दुःख का नाश करनेवाली और (सुखकार) सुख को देनेवाली (सीख) शिक्षा (कहैं) कहते हैं।
भावार्थ :- तीन लोक में जो अनन्त जीव (प्राणी) हैं, वे दुःख से डरते हैं और सुख को चाहते हैं; इसलिये आचार्य दुःख का नाश करनेवाली तथा सुख को देनेवाली शिक्षा देते हैं ।।२।।
गुरु शिक्षा सुनने का आदेश तथा संसार-परिभ्रमण का कारण ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान । मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ।।३।।
ग्रन्थ रचना का उद्देश्य और जीवों की इच्छा जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दुखतें भयवन्त । तातै दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार ।।२।।
अन्वयार्थ :- (त्रिभुवन में) तीनों लोकों में (जे) जो (अनन्त) अनन्त (जीव) प्राणी [हैं वे] (सुख) सुख की (चाहैं) इच्छा करते हैं और (दुखते) दुःख से (भयवन्त) डरते हैं (तातें) इसलिये (गुरु) आचार्य (करुणा) दया
अन्वयार्थ :- (भवि) हे भव्यजीवो! (जो) यदि (अपनो) अपना (कल्यान) हित (चाहो) चाहते हो तो] (ताहि) गुरु की वह शिक्षा (मन) मन को (थिर) स्थिर (आन) करके (सुनो) सुनो [कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी] (अनादि) अनादिकाल से (मोह महामद) मोहरूपी महामदिरा (पियो) पीकर, (आपको) अपने आत्मा को (भूल) भूलकर (वादि) व्यर्थ (भरमत) भटक रहा है।
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छहढाला
पहली ढाल
भावार्थ :- हे भद्र प्राणियो! यदि अपना हित चाहते हो तो अपने मन को स्थिर करके यह शिक्षा सुनो । जिसप्रकार कोई शराबी मनुष्य तेज शराब पीकर, नशे में चकचूर होकर, इधर-उधर डगमगाकर गिरता है, उसीप्रकार यह जीव
अनादिकाल से मोह में फँसकर, अपनी आत्मा के स्वरूप को भूलकर चारों गतियों में जन्म-मरण धारण करके भटक रहा है।।३।।
इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता और निगोद का दुःख तास भ्रमन की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा। काल अनन्त निगोद मँझार, वीत्यो एकेन्द्री तन धार ।।४।।
अन्वयार्थ :- (तास) उस संसार में (भ्रमन की) भटकने की (कथा) कथा (बहु) बड़ी (है) है (पै) तथापि (यथा) जैसी (मुनि) पूर्वाचार्यों ने (कही) कही है [तदनुसार मैं भी] (कछु) थोड़ी-सी (कहूँ) कहता हूँ [कि इस जीव का] (निगोद मँझार) निगोद में (एकेन्द्री) एकेन्द्रिय जीव के (तन) शरीर (धार) धारण करके (अनंत) अनंत (काल) काल (वीत्यो) व्यतीत हुआ है।
भावार्थ :- संसार में जन्म-मरण धारण करने की कथा बहुत बड़ी है। तथापि जिसप्रकार पूर्वाचार्यों ने अपने अन्य ग्रन्थों में कही है, तदनुसार मैं (दौलतराम) भी इस ग्रन्थ में थोड़ी-सी कहता हूँ। इस जीव ने नरक से भी निकृष्ट निगोद में एकेन्द्रिय जीव के शरीर धारण किये अर्थात् साधारण वनस्पतिकाय में उत्पन्न होकर वहाँ अनंतकाल व्यतीत किया है।।४।।
निगोद का दुःख और वहाँ से निकलकर प्राप्त की हुई पर्यायें एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मस्यो भस्यो दुखभार। निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो ।।५।।
अन्वयार्थ :- [निगोद में यह जीव] (एक श्वास में) एक साँस में (अठदस बार) अठारह बार (जन्म्यो) जनमा और (मस्यो) मरा [तथा] (दुखभार) दुःखों के समूह (भस्यो) सहन किये [और वहाँ से] (निकसि) निकलकर (भूमि) पृथ्वीकायिक जीव (जल) जलकायिक जीव, (पावक) अग्निकायिक जीव (भयो) हुआ तथा (पवन) वायुकायिक जीव [और] (प्रत्येक वनस्पति) प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव (थयो) हुआ।
भावार्थ :- निगोद [साधारण वनस्पति] में इस जीव ने एक श्वासमात्र (जितने) समय में अठारह बार जन्म और मरण करके भयंकर दुःख सहन किये हैं और वहाँ से निकलकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के रूप में उत्पन्न हुआ।।५।।
__ तिर्यंचगति में त्रस पर्याय की दुर्लभता और उसका दुःख दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपील अलि आदि शरीर, धर धर मत्यो सही बहु पीर ।।६।।
अन्वयार्थ :- (ज्यों) जिसप्रकार (चिन्तामणि) चिन्तामणि रत्न (दुर्लभ) कठिनाई से (लहि) प्राप्त होता है (त्यों) उसीप्रकार (बसतणी) त्रस की (पर्याय) पर्याय [भी बड़ी कठिनाई से] (लही) प्राप्त हुई। [वहाँ भी] (लट) १. नया शरीर धारण करना। २. वर्तमान शरीर का त्याग। ३. निगोद से निकलकर ऐसी पर्यायें धारण करने का कोई निश्चित क्रम नहीं है; निगोद से
एकदम मनुष्य पर्याय भी प्राप्त हो सकती है। जैसे कि - भरत के ३२ हजार पुत्रों ने निगोद से सीधी मनुष्य पर्याय प्राप्त की और मोक्ष गये।
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६
छहढाला
इल्ली (पिपील) चींटी (अलि) भँवरा (आदि) इत्यादि के (शरीर) शरीर (धर धर) बारम्बार धारण करके (मयो) मरण को प्राप्त हुआ [और] (बहु पीर) अत्यन्त पीड़ा (सही) सहन की।
भावार्थ :- जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस जीव नेत्रस की पर्याय बड़ी कठिनता से प्राप्त की। उस त्रस पर्याय में भी लट ( इल्ली) आदि दो इन्द्रिय जीव, चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव और भँवरा आदि चार इन्द्रिय जीव के शरीर धारण करके मरा और अनेक दुःख सहन किये || ६ ||
तिर्यंचगति में असंज्ञी तथा संज्ञी के दुःख
कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो । सिंहादिक सैनी है क्रूर, निबल पशु हति खाये भूर ॥ ७ ॥
अन्वयार्थ :- [ यह जीव] (कबहूँ) कभी (पंचेन्द्रिय) पंचेन्द्रिय (पशु) तिर्यंच (भयो) हुआ [तो] (मन बिन) मन के बिना (निपट) अत्यन्त (अज्ञानी) मूर्ख (थयो) हुआ [और] (सैनी) संज्ञी [भी] ( है ) हुआ [ तो ] ( सिंहादिक) सिंह आदि (क्रूर) क्रूर जीव (है) होकर (निबल) अपने से निर्बल, (भूर) अनेक (पशु) तिर्यंच (हति) मार-मारकर (खाये) खाये ।
भावार्थ :- यह जीव कभी पंचेन्द्रिय असंज्ञी पशु भी हुआ तो मनरहित होने से अत्यन्त अज्ञानी रहा; और कभी संज्ञी हुआ तो सिंह आदि क्रूर-निर्दय होकर, अनेक निर्बल जीवों को मार-मारकर खाया तथा घोर अज्ञानी हुआ ।। ७ ।। तिर्यंचगति में निर्बलता तथा दुःख
कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन ।
छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन, हिम, आतप त्रास ।।८।।
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पहली ढाल
अन्वयार्थ :- [यह जीव तिर्यंच गति में] (कबहूँ) कभी (आप) स्वयं (बलहीन) निर्बल (भयो) हुआ [तो] (अतिदीन) असमर्थ होने से (सब करि) अपने से बलवान प्राणियों द्वारा (खायो ) खाया गया [ और ] (छेदन) छेदा जाना, (भेदन) भेदा जाना, (भूख) भूख (पियास) प्यास, (भार वहन) बोझ ढोना, (हिम) ठण्ड (आतप) गर्मी [आदि के] (त्रास) दुःख सहन किये।
भावार्थ :- जब यह जीव तिर्यंचगति में किसी समय निर्बल पशु हुआ स्वयं असमर्थ होने के कारण अपने से बलवान प्राणियों द्वारा खाया गया तथा उस तिर्यंचगति में छेदा जाना, भेदा जाना, भूख, प्यास, बोझ ढोना, ठण्ड, गर्मी आदि के दुःख भी सहन किये ॥ ८ ॥
तिर्यंच के दुःख की अधिकता और नरकगति की प्राप्ति का कारण बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभ तैं जात न भने । अति संक्लेश भावतैं मस्यो, घोर श्वभ्रसागर में परयो ।। ९ ।
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छहढाला
पहली ढाल
अन्वयार्थ :- [इस तिर्यंचगति में जीव ने अन्य भी] (वध) मारा जाना, (बंधन) बँधना (आदिक) आदि (घने) अनेक (दुख) दुःख सहन किये; [व] (कोटि) करोड़ों (जीभतें) जीभों से (भने न जात) नहीं कहे जा सकते। [इस कारण] (अति संक्लेश) अत्यन्त बुरे (भावत) परिणामों से (मस्यो) मरकर (घोर) भयानक (श्वभ्रसागर में) नरकरूपी समुद्र में (पस्यो) जा गिरा।
भावार्थ :- इस जीव ने तिर्यंचगति में मारा जाना, बँधना आदि अनेक दुःख सहन किये; जो करोड़ों जीभों से भी नहीं कहे जा सकते और अंत में इतने बुरे परिणामों (आर्तध्यान) से मरा कि जिसे बड़ी कठिनता से पार किया जा सके - ऐसे समुद्र-समान घोर नरक में जा पहुँचा ।।९।।
नरकों की भूमि और नदियों का वर्णन तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसे नहिं तिसो। तहाँराध-श्रोणितवाहिनी, कृमि-कुल-कलित, देह-दाहिनी ।।१०।।
तथा उस नरक में रक्त, मवाद और छोटे-छोटे कीड़ों से भरी हुई, शरीर में दाह उत्पन्न करनेवाली एक वैतरणी नदी है, जिसमें शांतिलाभ की इच्छा से नारकी जीव कूदते हैं, किन्तु वहाँ तो उनकी पीड़ा अधिक भयंकर हो जाती है।
(जीवों को दुःख होने का मूल कारण तो उनकी शरीर के साथ ममता तथा एकत्वबुद्धि ही है; धरती का स्पर्श आदि तो मात्र निमित्त कारण है।)।।१०।।
नरकों के सेमल वृक्ष तथा सर्दी-गर्मी के दुःख सेमर तरु दलजुत असिपत्र, असि ज्यों देह विदारै तत्र । मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ।।११।।
अन्वयार्थ :- (तत्र) उन नरकों में, (असिपत्र ज्यों) तलवार की धार की भाँति तीक्ष्ण (दलजुत) पत्तोंवाले (सेमर तरु) सेमल के वृक्ष [हैं, जो] (देह) शरीर को (असि ज्यों) तलवार की भाँति (विदाएँ) चीर देते हैं [और] (तत्र) वहाँ [उस नरक में] (ऐसी) ऐसी (शीत) ठण्ड [और] (उष्णता)गरमी (थाय) होती है कि] (मेरु समान) मेरु पर्वत के बराबर (लोह) लोहे का गोला भी (गलि) गल (जाय) सकता है।
अन्वयार्थ :- (तहाँ) उस नरक में (भूमि) धरती (परसत) स्पर्श करने से (इसो) ऐसा (दुख) दुःख होता है [कि] (सहस) हजारों (बिच्छू) बिच्छू (डसे) डंक मारें, तथापि (नहिं तिसो) उसके समान दुःख नहीं होता [तथा] (तहाँ) वहाँ [नरक में] (राध-श्रोणितवाहिनी) रक्त और मवाद बहानेवाली नदी [वैतरणी नामक नदी] है, जो (कृमिकुलकलित) छोटे-छोटे क्षुद्र कीड़ों से भरी है तथा (देहदाहिनी) शरीर में दाह उत्पन्न करनेवाली है।
भावार्थ :- उन नरकों की भूमिका स्पर्शमात्र करने से नारकियों को इतनी वेदना होती है कि हजारों बिच्छू एकसाथ डंक मारें, तब भी उतनी वेदना न हो।
भावार्थ :- उन नरकों में अनेक सेमल के वृक्ष हैं, जिनके पत्ते तलवार की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। जब दुःखी नारकी छाया मिलने की आशा लेकर उस वृक्ष के नीचे जाता है, तब उस वृक्ष के पत्ते गिरकर उसके शरीर को चीर देते हैं। उन नरकों में इतनी गर्मी होती है कि एक लाख योजन ऊँचे सुमेरु
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पर्वत के बराबर लोहे का पिण्ड भी पिघल जाता है तथा इतनी ठण्ड पड़ती है कि सुमेरु के समान लोहे का गोला भी गल जाता है। जिसप्रकार लोक में कहा जाता है कि ठण्ड के मारे हाथ अकड़ गये, हिम गिरने से वृक्ष या ना जल गया आदि। यानि अतिशय प्रचंड ठण्ड के कारण लोहे में चिकनाहट कम हो जाने से उसका स्कंध बिखर जाता है ।। ११ ।।
नरकों में अन्य नारकी, असुरकुमार तथा प्यास का दुःख तिल-तिल करें देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड । सिन्धुनीर तैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूँद लहाय ।।१२ ।।
अन्वयार्थ :- [उन नरकों में नारकी जीव एक-दूसरे के ] (देह के) शरीर के ( तिल-तिल) तिल्ली के दाने बराबर (खण्ड) टुकड़े (करें) कर डालते हैं [और] (प्रचण्ड) अत्यन्त (दुष्ट) क्रूर (असुर) असुरकुमार जाति के देव
१. मेरुसम लोहपिण्डं सीदं उन्हे विलम्मि पक्खितं ।
पण लहदि तलप्पदेशं विलीयदे मयणखण्डं वा ।।
२. मेरुसम लोहपिण्डं उण्हं सीदे विलम्मि पक्खितं ।
ण लहदि तलं पदेशं विलीयदे लवणखण्डं वा ।।
१. अर्थ:- जिसप्रकार गर्मी में मोम पिघल जाता है (बहने लगता है) उसीप्रकार सुमेरु पर्वत
के बराबर लोहे का गोला गर्म बिल में फेंका जाये तो वह बीच में ही पिघलने लगता है। २. तथा जिसप्रकार ठण्ड और बरसात में नमक गल जाता है (पानी बन जाता है), उसी प्रकार सुमेरु के बराबर लोहे का गोला ठण्डे बिल में फेंका जाये तो बीच में ही गलने लगता है। पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे नरक की भूमि गर्म है; पाँचवें नरक में ऊपर की भूमि गर्म तथा नीचे तीसरा भाग ठण्डा है। छठवें तथा सातवें नरक की भूमि ठण्डी हैं।
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[एक-दूसरे के साथ] (भिड़ावें) लड़ाते हैं; [तथा इतनी ] ( प्यास) प्यास [लगती है कि] (सिन्धुनीर तैं) समुद्रभर पानी पीने से भी ( न जाय ) शांत न हो, (तो पण) तथापि (एक बूँद) एक बूँद भी (न लहाय) नहीं मिलती।
भावार्थ :- उन नरकों में नारकी एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं अर्थात् कुत्तों की भाँति हमेशा आपस में लड़ते रहते हैं। वे एक-दूसरे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं, तथापि उनके शरीर बारम्बार पारे' की भाँति बिखर कर फिर जुड़ जाते हैं। संक्लिष्ट परिणामवाले अम्बरीष आदि जाति के असुरकुमार देव पहले, दूसरे तथा तीसरे नरक तक जाकर वहाँ की तीव्र यातनाओं में पड़े हुए नारकियों को अपने अवधिज्ञान के द्वारा परस्पर वैर बतलाकर अथवा क्रूरता और कुतूहल से आपस में लड़ाते हैं और स्वयं आनन्दित होते हैं। उन नारकी जीवों को इतनी महान प्यास लगती है कि मिल जाये तो पूरे महासागर का जल भी पी जायें, तथापि तृषा शांत न हो; किन्तु पीने के लिए जल की एक बूँद भी नहीं मिलती ।। १२ ।।
नरकों की भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्ति का वर्णन तीनलोकको नाज जुखाय, मिटै न भूख कणा न लहाय । ये दुख बहु सागर लौं सहै, करम जोगतैं नरगति लहै ।। १३ ।।
अन्वयार्थ :- [उन नरकों में इतनी भूख लगती है कि ] (तीन लोक को) तीनों लोक का (नाज) अनाज (जु खाय) खा जाये तथापि (भूख) क्षुधा (न मिटै) शांत न हो [परन्तु खाने के लिए] (कणा) एक दाना भी ( न लहाय )
१. पारा एक धातु के रस समान होता है। धरती पर फेंकने से वह अमुक अंश में छार छार होकर बिखर जाता है और पुनः एकत्रित कर देने से एक पिण्डरूप बन जाता है।
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पहली ढाल
मनुष्यगति में बाल, युवा और वृद्धावस्था के दुःख बालपने में ज्ञान न लो, तरुण समय तरुणी-रत रह्यो। अर्धमृतकसम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखै आपनो ।।१५।।
नहीं मिलता। (ये दुख) ऐसे दुःख (बहु सागर लौं) अनेक सागरोपमकाल तक (सहै) सहन करता है, (करम जोगतै) किसी विशेष शुभकर्म के योग से (नरगति) मनुष्यगति (लहै) प्राप्त करता है।
भावार्थ :- उन नरकों में इतनी तीव्र भूख लगती है कि यदि मिल जाये तो तीनों लोक का अनाज एकसाथ खा जायें, तथापि क्षुधा शांत न हो; परन्तु वहाँ खाने के लिए एक दाना भी नहीं मिलता। उन नरकों में यह जीव ऐसे अपार दुःख दीर्घकाल (कम से कम दस हजार वर्ष और अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम काल तक) भोगता है। फिर किसी शुभकर्म के उदय से यह जीव मनुष्यगति प्राप्त करता है।।१३।।
मनुष्यगति में गर्भनिवास तथा प्रसवकाल के दुःख जननी उदर वस्यो नव मास, अंग सकुचतँ पायो त्रास । निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ।।१४।।
अन्वयार्थ :- [मनुष्यगति में] (बालपने में) बचपन में (ज्ञान) ज्ञान (न लह्यो) प्राप्त नहीं कर सका [और] (तरुण समय) युवावस्था में (तरुणी-रत) युवती स्त्री में लीन (रह्यो) रहा, [और] (बूढ़ापनो) वृद्धावस्था (अर्धमृतकसम) अधमरा जैसा [रहा, ऐसी दशा में] (कैसे) किसप्रकार [जीव] (आपनो) अपना (रूप) स्वरूप (लखै) देखे - विचारे।
भावार्थ :- मनुष्यगति में भी यह जीव बाल्यावस्था में विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया; यौवनावस्था में ज्ञान तो प्राप्त किया, किन्तु स्त्री के मोह (विषय-भोग) में भूला रहा और वृद्धावस्था में इन्द्रियों की शक्ति कम हो गई अथवा मरणपर्यंत पहुँचे - ऐसा कोई रोग लग गया कि, जिससे अधमरा जैसा पड़ा रहा। इसप्रकार यह जीव तीनों अवस्थाओं में आत्मस्वरूप का दर्शन (पहिचान) न कर सका ।।१५।।
देवगति में भवनत्रिक का दुःख कभी अकामनिर्जरा करै, भवनत्रिक में सुरतन धरै। विषय-चाह-दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुख सहो ।।१६ ।।
अन्वयार्थ :- [मनुष्यगति में भी यह जीव] (नव मास) नौ महीने तक (जननी) माता के (उदर) पेट में (वस्यो) रहा; [तब वहाँ] (अंग) शरीर (सकुचत) सिकोड़कर रहने से (त्रास) दुःख (पायो) पाया, [और] (निकसत) निकलते समय (जे) जो (घोर) भयंकर (दुख पाये) दुःख पाये (तिनको) उन दुःखों को (कहत) कहने से (ओर) अन्त (न आवे) नहीं आ सकता। ___ भावार्थ :- मनुष्यगति में भी यह जीव नौ महीने तक माता के पेट में रहा; वहाँ शरीर को सिकोड़कर रहने से तीव्र वेदना सहन की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कभी-कभी तो माता के पेट से निकलते समय माता का अथवा पुत्र का अथवा दोनों का मरण भी हो जाता है।।१४ ।।
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अन्वयार्थ :- (जो) यदि (विमानवासी) वैमानिक देव (ह) भी (थाय) हुआ [तो वहाँ] (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शन (बिन) बिना (दुख) दुःख (पाय) प्राप्त किया [और] (तहँत) वहाँ से (चय) मरकर (थावर तन) स्थावर जीव का शरीर (धरै) धारण करता है; (यों) इसप्रकार [यह जीव] (परिवर्तन) पाँच परावर्तन (पूरे करै) पूर्ण करता रहता है। __भावार्थ :- यह जीव वैमानिक देवों में भी उत्पन्न हुआ, किन्तु वहाँ इसने सम्यग्दर्शन के बिना दुःख उठाये और वहाँ से भी मरकर पृथ्वीकायिक आदि स्थावरों के शरीर धारण किये; अर्थात् पुनः तिर्यंचगति में जा गिरा । इसप्रकार यह जीव अनादिकाल से संसार में भटक रहा है और पाँच परावर्तन कर रहा है।॥१७॥
अन्वयार्थ :- [इस जीव ने] (कभी) कभी (अकाम निर्जरा) अकाम निर्जरा (कर) की [तो मरने के पश्चात् (भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी में (सुरतन) देवपर्याय (धरै) धारण की, [परन्तु वहाँ भी] (विषय चाह) पाँच इन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी (दावानल) भयंकर अग्नि में (दह्यो) जलता रहा [और] (मरत) मरते समय (विलाप करत) रो रो कर (दुख) दुःख सहन किया। ___ भावार्थ :- जब कभी इस जीव ने अकाम निर्जरा की, तब मरकर उस निर्जरा के प्रभाव से (भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में से किसी एक का शरीर धारण किया। वहाँ भी अन्य देवों का वैभव देखकर पंचेन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी अग्नि में जलता रहा। फिर मंदारमाला को मुरझाते देखकर तथा शरीर और आभूषणों की कान्ति क्षीण होते देखकर अपना मृत्युकाल निकट है - ऐसा अवधिज्ञान द्वारा जानकर "हाय! अब ये भोग मुझे भोगने को नहीं मिलेंगे।" - ऐसे विचार से रो-रोकर अनेक दुःख सहन किये।।१६।। __ अकाम निर्जरा यह सिद्ध करती है कि कर्म के उदयानुसार ही जीव विकार नहीं करता, किन्तु चाहे जैसा कर्मोदय होने पर भी जीव स्वयं पुरुषार्थ कर सकता है।
देवगति में वैमानिक देवों का दुःख जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय । तहँतें चय थावर तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै ।।१७।।
सार
संसार की कोई भी गति सुखदायक नहीं है। निश्चय सम्यग्दर्शन से ही पंच परावर्तनरूप संसार समाप्त होता है। अन्य किसी कारण से - दया, दानादि के शुभराग से संसार नहीं टूटता । संयोग सुख-दुःख का कारण नहीं है, किन्तु मिथ्यात्व (पर के साथ एकत्वबुद्धि - कर्ताबुद्धि, शुभराग से धर्म होता है, शुभराग हितकर है - ऐसी मान्यता) ही दुःख का कारण है। सम्यग्दर्शन सुख का कारण है।
__पहली ढाल का सारांश तीन लोक में जो अनंत जीव हैं, वे सब सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं; किन्तु अपना यथार्थ स्वरूप समझें, तभी सुखी हो सकते हैं। चार गतियों के संयोग किसी भी सुख-दुःख का कारण नहीं हैं, तथापि पर में एकत्वबुद्धि द्वारा इष्ट-अनिष्टपना मानकर जीव अकेला दुःखी होता है; और वहाँ भ्रमवश होकर कैसे संयोग के आश्रय से विकार करता है, वह संक्षेप में कहा है।
तिर्यंचगति के दुःखों का वर्णन - यह जीव निगोद में अनंतकाल तक रहकर, वहाँ एक श्वास में अठारह बार जन्म धारण करके अकथनीय वेदना १. मिथ्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रिय होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।
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पहली ढाल
सहन करता है। वहाँ से निकलकर अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है। त्रसपर्याय तो चिन्तामणि रत्न के समान अति दुर्लभता से प्राप्त होती है। वहाँ भी विकलत्रय शरीर धारण करके अत्यन्त दुःख सहन करता है। कदाचित् असंज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो मन के बिना दुःख प्राप्त करता है । संज्ञी हो तो वहाँ भी निर्बल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता है। बलवान जीव दूसरों को दुःख देकर महान पाप का बंध करते हैं और छेदन, भेदन, भूख, प्यास, शीत, उष्णता आदि के अकथनीय दुःखों को प्राप्त होते हैं।
नरकगति के दुःख - जब कभी अशुभ-पाप परिणामों से मृत्यु प्राप्त करते हैं, तब नरक में जाते हैं। वहाँ की मिट्टी का एक कण भी इस लोक में आ जाये तो उसकी दुर्गंध से कई कोसों के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मर जायें। उस धरती को छूने से भी असह्य वेदना होती है। वहाँ वैतरणी नदी, सेमलवृक्ष, शीत, उष्णता तथा अन्न-जल के अभाव से स्वतः महान दुःख होता है । जब बिलों में औंधे मुँह लटकते हैं, तब अपार वेदना होती है। फिर दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्ते की भाँति उस पर टूट पड़ते हैं और मारपीट करते हैं। तीसरे नरक तक अम्ब और अम्बरीष आदि नाम के संक्लिष्ट परिणामी असुरकुमार देव जाकर नारकियों को अवधिज्ञान के द्वारा पूर्वभवों के विरोध का स्मरण कराके परस्पर लड़वाते हैं; तब एक-दूसरे के द्वारा कोल्हू में पिलना, अग्नि में जलना, आरे से चीरा जाना, कढ़ाई में उबलना, टुकड़े-टुकड़े कर डालना आदि अपार दुःख उठाते हैं - ऐसी वेदनाएँ निरन्तर सहना पड़ती हैं । तथापि क्षणमात्र साता नहीं मिलती; क्योंकि टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी शरीर पारे की भाँति पुनः मिलकर ज्यों का त्यों हो जाता है। वहाँ आयु पूर्ण हुए बिना मृत्यु नहीं होती। नरक में ऐसे दुःख कम से कम दस हजार वर्ष तक तो सहना पड़ते हैं, किन्तु यदि उत्कृष्ट आयु का बंध हुआ तो तेतीस सागरोपम वर्ष तक शरीर का अन्त नहीं होता।
मनुष्यगति का दुःख - किसी विशेष पुण्यकर्म के उदय से यह जीव जब कभी मनुष्यपर्याय प्राप्त करता है, तब नौ महीने तक तो माता के उदर में ही पड़ा रहता है, वहाँ शरीर को सिकोड़कर रहने से महान कष्ट उठाना पड़ता है। वहाँ
से निकलते समय जो अपार वेदना होती है, उसका तो वर्णन भी नहीं किया जा सकता । फिर बचपन में ज्ञान के बिना, युवावस्था में विषय-भोगों में आसक्त रहने से तथा वृद्धावस्था में इन्द्रियों की शिथिलता अथवा मरणपर्यंत क्षयरोग
आदि में रुकने के कारण आत्मदर्शन से विमुख रहता है और आत्मोद्धार का मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता।
देवगति का दुःख - यदि कोई शुभकर्म के उदय से देव भी हुआ, तो दूसरे बड़े देवों का वैभव और सुख देखकर मन ही मन दुःखी होता रहता है। कदाचित् वैमानिक देव भी हुआ, तो वहाँ भी सम्यक्त्व के बिना आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर पाता तथा अंत समय में मंदारमाला मुरझा जाने से, आभूषण और शरीर की कान्ति क्षीण होने से मृत्यु को निकट आया जानकर महान दुःख होता है और आर्तध्यान करके हाय-हाय करके मरता है। फिर एकेन्द्रिय जीव तक होता है अर्थात् पुनः तिर्यंचगति में जा पहुँचता है। इसप्रकार चारों गतियों में जीव को कहीं भी सुख-शांति नहीं मिलती। इस कारण अपने मिथ्यात्व भावों के कारण ही निरन्तर संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है।
पहली ढाल का भेद-संग्रह एकेन्द्रिय :- पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक जीव, अग्निकायिक जीव,
वायुकायिक जीव और वनस्पतिकायिक जीव । गति :- मनुष्यगति, तिर्यंचगति, देवगति और नरकगति । जीव :- संसारी और मुक्त। त्रस :- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । देव :- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक। पंचेन्द्रिय :- संज्ञी और असंज्ञी। योग :- मन, वचन और काय; अथवा द्रव्य और भाव । लोक :- ऊर्ध्व, मध्य, अधः । वनस्पति :- साधारण और प्रत्येक ।
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वैमानिक:-कल्पोत्पन्न, कल्पातीत । संसारी :- त्रस और स्थावर; अथवा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
और पंचेन्द्रिय।
पहली ढाल का लक्षण-संग्रह अकामनिर्जरा :- सहन करने की अनिच्छा होने पर भी जीव रोग, क्षुधादि
सहन करता है। तीव्र कर्मोदय में युक्त न होकर जीव पुरुषार्थ
द्वारा मंदकषायरूप परिणमित हो, वह। अग्निकायिक :- अग्नि ही जिसका शरीर होता है - ऐसा जीव । असंज्ञी :
शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति रहित जीव को
असंज्ञी कहते हैं। इन्द्रिय :- आत्मा के चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। एकेन्द्रिय :- जिसे एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है - ऐसा जीव । गति नामकर्म :- जो कर्म जीव के आकार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव
जैसे बनाता है। गति :- जिसके उदय से जीव दूसरी पर्याय (भव) प्राप्त करता है। चिन्तामणि :- जो इच्छा करने मात्र से इच्छित वस्तु प्रदान करता है -
ऐसा रत्न। तिर्यंचगति :- तिर्यंचगति नामकर्म के उदय से तिर्यंचों में जन्म
धारणकरना। देवगति :- देवगति नामकर्म के उदय से देवों में जन्म धारण करना।
पापकर्म के उदय में युक्त होने के कारण जिस स्थान में जन्म लेते ही जीव असह्य एवं अपरिमित वेदना अनुभव करने लगता है तथा दूसरे नारकियों द्वारा सताये जाने के कारण दुःख का अनुभव करता है तथा जहाँ तीव्र द्वेषपूर्ण जीवन व्यतीत होता है - वह स्थान । जहाँ पर क्षणभर
भी ठहरना नहीं चाहता। नरकगति :- नरकगति नामकर्म के उदय से नरक में जन्म लेना। निगोद :- साधारण नामकर्म के उदय से एक शरीर के आस्रव से
अनंतानंत जीव समानरूप से जिसमें रहते हैं, मरते हैं और
पैदा होते हैं, उस अवस्थावाले जीवों को निगोद कहते हैं। नित्यनिगोद :- जहाँ के जीवों ने अनादिकाल से आज तक त्रसपर्याय
प्राप्त नहीं की - ऐसी जीवराशि, किन्तु भविष्य में वे जीव
त्रस-पर्याय प्राप्त कर सकते हैं। परिवर्तन :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवरूप संसारचक्र में
परिभ्रमण। पंचेन्द्रिय :- जिनके पाँच इन्द्रियाँ होती हैं - ऐसे जीव । पृथ्वीकायिक :- पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर है - वे। प्रत्येक वनस्पति :- जिसमें एक शरीर का स्वामी एक जीव होता है - ऐसे
वृक्ष, फल आदि। भव्य :- तीन काल में किसी भी समय रत्नत्रय प्राप्ति की योग्यता
रखनेवाले जीव को भव्य कहा जाता है। मन:- हित-अहित का विचार तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण
करने की शक्ति सहित ज्ञान-विशेष को भाव मन कहते हैं। हृदय स्थान में आठ पंखुड़ियोंवाले कमल की आकृति समान जो पुद्गलपिण्ड, उसे जड़-मन अर्थात्
द्रव्य-मन कहते हैं। मनुष्यगति :- मनुष्यगति नामकर्म के उदय से मनुष्यों में जन्म लेना अथवा
उत्पन्न होना। मेरु:- जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में स्थित एक लाख योजन ऊँचा
एक पर्वत विशेष।
नरक:
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मोह :
लोक :
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पर के साथ एकत्वबुद्धि से मिथ्यात्वमोह है; यह मोह अपरिमित है तथा अस्थिरतारूप रागादि सो चारित्रमोह है; यह मोह परिमित है ।
जिसमें जीवादि छह द्रव्य स्थित हैं, उसे लोक अथवा लोकाकाश कहते हैं।
विमानवासी :- स्वर्ग और ग्रैवेयक आदि के देव ।
वीतराग का लक्षण -
जन्म', जरा', तिरखार, क्षुधा, विस्मय, आरत, खेद" । रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता ४, स्वेद ५ । राग, द्वेष, अरु मरण" जुत, ये अष्टदश दोष । नाहिं होत जिस जीव के, वीतराग सो होय ।। श्वास :- रक्त की गति प्रमाण समय, कि जो एक मिनट में ८० बार से कुछ अंश कम चलती है।
सागर :- दो हजार कोस गहरे तथा इतने ही चौड़े गोलाकार गड्ढे को, कैंची से जिसके दो टुकड़े न हो सके ऐसे तथा एक से सात दिन की उम्र के उत्तम भोगभूमि के मेंढे के बालों से भर दिया जाये। फिर उसमें से सौ-सौ वर्ष के अंतर से एक बाल निकाला जाये। जितने काल में उन सब बालों को निकाल दिया जाये, उसे 'व्यवहार पल्य' कहते हैं; व्यवहार पल्य से असंख्यातगुने समय को 'उद्धारपल्य' और उद्धारपल्य से असंख्यातगुने काल को 'अद्धा पल्य' कहते हैं। द कोड़ाकोड़ी (१० करोड़ -- १० करोड़) अद्धा पल्यों का एक सागर होता है।
संज्ञी :- शिक्षा तथा उपदेश ग्रहण कर सकने की शक्तिवाले मनसहित प्राणी । स्थावर :- स्थावर नामकर्म के उदय सहित पृथ्वी-जल- अग्नि वायु तथा वनस्पतिकायिक जीव ।
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अन्तर- प्रदर्शन
(१) त्रस जीवों को त्रस नामकर्म का उदय होता है, परन्तु स्थावर जीवों को स्थावर नामकर्म का उदय होता है। दोनों में यह अन्तर है।
नोट :- त्रस और स्थावरों में, चल सकते हैं और नहीं चल सकते इस अपेक्षा से अन्तर बतलाना ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने से गमन रहित अयोगीकेवली में स्थावर का लक्षण तथा गमन सहित पवन आदि एकेन्द्रिय जीवों में त्रस का लक्षण मिलने से अतिव्याप्ति दोष आता है।
(२) साधारण के आश्रय से अनन्त जीव रहते हैं, किन्तु प्रत्येक के आश्रय से एक ही जीव रहता है।
(३)
संज्ञी तो शिक्षा और उपदेश ग्रहण कर सकता है, किन्तु असंज्ञी नहीं । नोट :- किन्हीं का भी अन्तर बतलाने के लिए सर्वत्र इस शैली का अनुकरण करना चाहिए; मात्र लक्षण बतलाने से अन्तर नहीं निकलता । पहली ढाल की प्रश्नावली
(१) असंज्ञी, ऊर्ध्वलोक, एकेन्द्रिय, कर्म, गति, चतुरिन्द्रिय, त्रस, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, अधो लोक, पंचेन्द्रिय, प्रत्येक, मध्यलोक, वीतराग, वैक्रियिक शरीर, साधारण और स्थावर के लक्षण बतलाओ ।
(२) साधारण ( निगोद) और प्रत्येक में, त्रस और स्थावर में, संज्ञी और असंज्ञी में अन्तर बतलाओ ।
(३) असंज्ञी तिर्यंच, त्रस, देव, निर्बल, निगोद, पशु, बाल्यावस्था, भवनत्रिक, मनुष्य, यौवन, वृद्धावस्था, वैमानिक, सबल, संज्ञी, स्थावर, नरकगति, नरक सम्बन्धी भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, भूमिस्पर्श तथा असुरकुमारों के दुःख; अकाम निर्जरा का फल, असुरकुमारों का कार्य तथा गमन; नारकी के शरीर की विशेषता और अकाल मृत्यु का अभाव, मंदारमाला, वैतरणी तथा शीत से लोहे के गोले का गल जाना इनका स्पष्ट वर्णन
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छहढाला
दूसरी ढाल पद्धरि छन्द ( १५ मात्रा)
संसार (चतुर्गति) में परिभ्रमण का कारण ऐसे मिथ्या दृग-ज्ञान-चर्णवश, भ्रमत भरत दुख जन्म-मर्ण । ता” इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान ।।१।।
करो। (४) अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण, भवनत्रिक में उत्पन्न होना तथा
स्वर्गों में दुःख का कारण बतलाओ। असुरकुमारों का गमन, सम्पूर्ण जीवराशि, गर्भनिवास का समय, यौवनावस्था, नरक की आयु, निगोदवास का समय, निगोदिया की इन्द्रियाँ, निगोदिया की आयु, निगोद में एक श्वास में जन्म-मरण तथा
श्वास का परिमाण बतलाओ। (६) त्रस पर्याय की दुर्लभता १-२-३-४-५ इन्द्रिय जीव तथा शीत से लोहे
का गोला गल जाने को दृष्टांत द्वारा समझाओ। (७) बुरे परिणामों से प्राप्त होने योग्य गति, ग्रन्थ रचयिता, जीव-कर्म सम्बन्ध,
जीवों की इच्छित तथा अनिच्छित वस्तु, नमस्कृत वस्तु, नरक की नदी, नरक में जानेवाले असुरकुमार, नारकी का शरीर, निगोदिया का शरीर, निगोद से निकलकर प्राप्त होनेवाली पर्यायें, नौ महीने से कम समय तक गर्भ में रहनेवाले, मिथ्यात्वी वैमानिक की भविष्यकालीन पर्याय, माता-पिता रहित जीव, सर्वाधिक दुःख का स्थान और संक्लेश परिणाम सहित मृत्यु होने के कारण प्राप्त होने योग्य गति का नाम बतलाओ।
पनी इच्छानुसार किसी शब्द, चरण अथवा छद का अर्थ या भावार्थ कहो। पहली ढाल का सारांश समूझाओ, गतियों के दुःखों पर एक निख लिखोअद्भश्चवावीर जिना अविचकोर चित हारी।
चिदानन्द अबुधि अब उछरयो भव तप नाशन हारी ।।टेक।। सिद्धारथ नृप कुल नभ मण्डल, खण्डन भ्रम-तम भारी। परमानन्द जलधि विस्तारन, पाप ताप छय कारी ॥१।। उदित निरन्तर त्रिभुवन अन्तर, कीरत किरन पसारी। दोष मलंक कलंक अखकि, मोह राहु निरवारी ।।२।। कर्मावरण पयोध अरोधित, बोधित शिवमगचारी। गणधरादि मुनि उड्गन सेवत, नित पूनम तिथि धारी।।३।। अखिल अलोकाकाश उलंघन, जासु ज्ञान उजयारी। 'दौलत' तनसा कुमुदिनिमोदन, ज्यों चरम जगतारी ।।४।।
(८)
अन्वयार्थ :- [यह जीव] (मिथ्या दृग-ज्ञान-चर्णवश) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर (ऐसे) इसप्रकार (जन्म-मरण) जन्म और मरण के (दुख) दुःखों को (भरत) भोगता हुआ [चारों गतियों में] (भ्रमत) भटकता फिरता है। (तात) इसलिये (इनको) इन तीनों को (सुजान) भलीभाँति जानकर (तजिये) छोड़ देना चाहिए। [इसलिये] इन तीनों का (संक्षेप) संक्षेप से (कहूँ बखान) वर्णन करता हूँ, उसे (सुन) सुनो।
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भावार्थ :- इस चरण से ऐसा समझना चाहिए कि मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र से ही जीव को दुःख होता है अर्थात् शुभाशुभ रागादि विकार तथा पर के साथ एकत्व की श्रद्धा, ज्ञान और मिथ्या आचरण से ही जीव दुःखी होता है; क्योंकि कोई संयोग सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता - ऐसा जानकर सुखार्थी को इन मिथ्याभावों का त्याग करना चाहिए । इसीलिये मैं यहाँ संक्षेप से उन तीनों का वर्णन करता हूँ।।१।।
__ अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्व का लक्षण जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधैं तिनमाहिं विपर्ययत्व । चेतन को है उपयोग रूप, विन मूरत चिन्मूरत अनूप ।।२।।
श्रद्धान करना, उसे अगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा है। अमूर्तिक, चैतन्यमय तथा उपमारहित है।
जीवतत्त्व के विषय में मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा) पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनः न्यारी है जीव चाल । ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान ।।३।।
अन्वयार्थ :- (पुद्गल) पुद्गल (नभ) आकाश (धर्म) धर्म (अधर्म) अधर्म (काल) काल (इन ) इनसे (जीव चाल) जीव का स्वभाव अथवा परिणाम(न्यारी) भिन्न (है) है; [तथापि मिथ्यादृष्टि जीव] (ताकों)उस स्वभाव को (न जान) नहीं जानता और (विपरीत) विपरीत (मान करि) मानकर (देह में) शरीर में (निज) आत्मा की (पिछान) पहिचान (करे) करता है।
भावार्थ :- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये पाँच अजीव द्रव्य हैं । जीव त्रिकाल ज्ञानस्वरूप तथा पुद्गलादि द्रव्यों से पृथक् है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आत्मा के स्वभाव की यथार्थ श्रद्धा न करके अज्ञानवश विपरीत मानकर, शरीर ही मैं हूँ, शरीर के कार्य मैं कर सकता हूँ, मैं अपनी इच्छानुसार शरीर की व्यवस्था रख सकता हूँ - ऐसा मानकर शरीर को ही आत्मा मानता है। (यह जीवतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है।) ।।३।।
मिथ्यादृष्टि का शरीर तथा परवस्तुओं सम्बन्धी विचार मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गो-धन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण ।।४।।
अन्वयार्थ :- (जीवादि) जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष (प्रयोजनभूत) प्रयोजनभूत (तत्त्व) तत्त्व हैं, (तिनमाहि) उनमें (विपर्ययत्व) विपरीत (सरधैं) श्रद्धा करना [सो अगृहीत मिथ्यादर्शन है] (चेतन को) आत्मा का (रूप) स्वरूप (उपयोग) देखना-जानना अथवा दर्शन-ज्ञान है [और वह] (विन मूरत) अमूर्तिक (चिन्मूरत) चैतन्यमय [तथा] (अनूप) उपमा रहित है।
भावार्थ :- यथार्थरूप से शुद्धात्मदृष्टि द्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन सात तत्त्वों की श्रद्धा करने से सम्यग्दर्शन होता है। इसलिये इन सात तत्त्वों को जानना आवश्यक है। सातों तत्त्वों का विपरीत
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अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शन के कारण से मानता है कि (मैं) मैं (सुखी) सुखी (दुखी) दुःखी, (रंक) निर्धन, (राव) राजा हूँ, (मेरे) मेरे यहाँ (धन) रुपया-पैसा आदि (गृह) घर (गो-धन) गाय, भैंस आदि (प्रभाव) बड़प्पन [है; और] (मेरे सुत) मेरी संतान तथा (तिय) मेरी स्त्री है; (मैं) मैं (सबल) बलवान, (दीन) निर्बल, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुन्दर, (मूरख) मूर्ख और (प्रवीण) चतुर हूँ।
भावार्थ:-(१)जीवतत्त्व की भूल :जीव तो त्रिकाल ज्ञानस्वरूप है, उसे अज्ञानी जीव नहीं जानता और जो शरीर है; सो मैं ही हूँ, शरीर के कार्य मैं कर सकता हूँ, शरीर स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगों से मैं सुखी
और प्रतिकूल संयोगों से मैं दुःखी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुन्दर - ऐसा मानता है; शरीराश्रित उपदेश तथा उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व मानता है - इत्यादि मिथ्या अभिप्राय द्वारा जो अपने परिणाम नहीं हैं, उन्हें आत्मा का परिणाम मानता है, वह जीवतत्त्व की भूल है।
अजीव और आस्रवतत्त्व की विपरीत श्रद्धा तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट ये दुःख देन, तिनही को सेवत गिनत चैन ।।५।।
(तन) शरीर के (नशत) नाश होने से (आपको) आत्मा का (नाश) मरण हुआ - ऐसा (मान) मानता है। (रागादि) राग, द्वेष, मोहादि (ये) जो (प्रगट) स्पष्ट रूप से (दुःख देन) दुःख देने वाले हैं (तिनही को) उनकी (सेवत) सेवा करता हुआ (चैन) सुख (गिनत) मानता है।
भावार्थ :- (१) अजीवतत्त्व की भूल : मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा मानता है कि शरीर की उत्पत्ति (संयोग) होने से मैं उत्पन्न हुआ और शरीर का नाश (वियोग) होने से मैं मर जाऊँगा, (आत्मा का मरण मानता है;) धन, शरीरादि जड़ पदार्थों में परिवर्तन होने से अपने में इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन मानना, शरीर क्षुधा-तृषारूप अवस्था होने से मुझे क्षुधा-तुषादि होते हैं: शरीर कटने से मैं कट गया - इत्यादि जो अजीव की अवस्थाएँ हैं, उन्हें अपनी मानता है - यह अजीवतत्त्व की भूल है।
(२) आस्रवतत्त्व की भूल :- जीव अथवा अजीव कोई भी पर पदार्थ आत्मा को किंचित् भी सुख-दुःख, सुधार-बिगाड़, इष्ट-अनिष्ट नहीं कर सकते, तथापि अज्ञानी ऐसा नहीं मानता । पर में कर्तृत्व, ममत्वरूप मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि शुभाशुभ आस्रवभाव प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले हैं, बंध के ही कारण हैं, तथापि अज्ञानी जीव उन्हें सुखकर जानकर सेवन करता है और शुभभाव भी बन्ध का ही कारण है - आस्रव है. उसे हितकर मानता है। परद्रव्य जीव को लाभ-हानि नहीं पहुँचा सकते, तथापि उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें प्रीति-अप्रीति करता है; मिथ्यात्व, राग-द्वेष का स्वरूप नहीं जानता; पर पदार्थ मुझे सुख-दुःख देते हैं अथवा राग-द्वेष-मोह कराते हैं - ऐसा मानता है, वह आस्रवतत्त्व की भूल है।
बंध और संवरतत्त्व की विपरीत श्रद्धा शुभ-अशुभ बंध के फल मंझार, रति-अरति करै निज पद विसार । आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्टदान ।।६।।
अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (निज पद) आत्मा के स्वरूप को (विसार) भूलकर (बंध के) कर्मबंध के (शुभ) अच्छे (फल मँझार) फल में १. आत्मा अमर है; वह विष, अग्नि, शस्त्र, अस्त्र अथवा अन्य किसी से नहीं मरता और न
नवीन उत्पन्न होता है। मरण (वियोग) तो मात्र शरीर का ही होता है।
अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (तन) शरीर के (उपजत) उत्पन्न होने से (अपनी) अपना आत्मा (उपज) उत्पन्न हुआ (जान) ऐसा मानता है और
१.जो शरीरादि पदार्थ दिखाई देते हैं, वे आत्मा से भिन्न हैं; उनके ठीक रहने या बिगड़ने से
आत्मा का कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं होता; किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इससे विपरीत मानता है।
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(रति) प्रेम (करै) करता है और कर्मबंध के (अशुभ) बुरे फल से (अरति) द्वेष करता है; तथा जो (विराग) राग-द्वेष का अभाव [अर्थात् अपने यथार्थ स्वभाव में स्थिरतारूप सम्यक्चारित्र] और (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान [और सम्यग्दर्शन] (आत्महित) आत्मा के हित के (हेतु) कारण हैं (ते) उन्हें (आपको) आत्मा को (कष्टदान) दुःख देनेवाले (लखै) मानता है।
भावार्थ :- (१) बंधतत्त्व की भूल :- अघातिकर्म के फलानुसार पदार्थों की संयोग-वियोगरूप अवस्थाएँ होती हैं। मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें अनुकूलप्रतिकूल मानकर उनसे मैं सुखी-दुःखी हूँ - ऐसी कल्पना द्वारा राग-द्वेष, आकुलता करता है। धन, योग्य स्त्री, पुत्रादि का संयोग होने से रति करता है; रोग, निंदा, निर्धनता, पुत्र-वियोगादि होने से अरति करता है; पुण्य-पाप दोनों बंधनकर्ता हैं, किन्तु ऐसा न मानकर पुण्य को हितकारी मानता है; तत्त्वदृष्टि से तो पुण्य-पाप दोनों अहितकर ही हैं; परन्तु अज्ञानी ऐसा निर्धाररूप नहीं मानता - वह बन्धतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है।
(२) संवरतत्त्व की भूल :- निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही जीव को हितकारी हैं; स्वरूप में स्थिरता द्वारा राग का जितना अभाव वह वैराग्य है
और वह सख के कारणरूप है। तथापि अज्ञानी जीव उसे कष्टदाता मानता है - यह संवरतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है।
निर्जरा और मोक्ष की विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान रोके न चाह निजशक्ति खोय, शिवरूप निराकुलतान जोय ।
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक अज्ञान जान ।।७।। १. अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ही आत्मा का सच्चा स्वरूप है।
अन्वयार्थ :- [मिथ्यादृष्टि जीव] (निजशक्ति) अपने आत्मा की शक्ति (खोय) खोकर (चाह) इच्छा को (न रोके) नहीं रोकता और (निराकुलता) आकुलता के अभाव को (शिवरूप) मोक्षका स्वरूप (न जोय) नहीं मानता। (याही) इस (प्रतीतिजुत) मिथ्या मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जो कुछ ज्ञान है (सो) वह (दुखदायक) कष्ट देनेवाला (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान है - ऐसा (जान) समझना चाहिये।
भावार्थ :- (१) निर्जरातत्त्व की भूल :- आत्मा में आंशिक शुद्धि की वृद्धि तथा अशुद्धि की हानि होना, उसे संवरपूर्वक निर्जरा कहा जाता है; वह निश्चयसम्यग्दर्शन पूर्वक ही हो सकती है। ज्ञानानन्दस्वरूप में स्थिर होने से शुभ-अशुभ इच्छा का निरोध होता है वह तप है। तप दो प्रकार का है :(१) बालतप (२) सम्यक्तप; अज्ञानदशा में जो तप किया जाता है, वह बालतप है, उससे कभी सच्ची निर्जरा नहीं होती; किन्तु आत्मस्वरूप में सम्यक् प्रकार से स्थिरता-अनुसार जितना शुभ-अशुभ इच्छा का अभाव होता है, वह सच्ची निर्जरा है - सम्यक्तप है; किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता । अपनी अनन्त ज्ञानादि शक्ति को भूलकर पराश्रय में सुख मानता है, शुभाशुभ इच्छा तथा पाँच इन्द्रियों के विषयों की चाह को नहीं रोकता - यह निर्जरातत्त्व की विपरीत श्रद्धा है।
(२) मोक्षतत्त्व की भूल :- पूर्ण निराकुल आत्मिक सुख की प्राप्ति अर्थात् जीव की सम्पूर्ण शुद्धता वह मोक्ष का स्वरूप है तथा वही सच्चा सुख है; किन्तु अज्ञानी ऐसा नहीं मानता।
मोक्ष होने पर तेज में तेज मिल जाता है अथवा वहाँ शरीर, इन्द्रियाँ तथा विषयों के बिना सुख कैसे हो सकता है? वहाँ से पुनः अवतार धारण करना
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पड़ता है - इत्यादि । इसप्रकार मोक्षदशा में निराकुलता नहीं मानता, वह मोक्षतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है।
(३) अज्ञान :- अगृहीत मिथ्यादर्शन के रहते हुए जो कुछ ज्ञान हो, उसे अगृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं; वह महान् दुःखदाता है। उपदेशादि बाह्य निमित्तों के आलम्बन द्वारा उसे नवीन ग्रहण नहीं किया है, किन्तु अनादिकालीन है, इसलिये उसे अगृहीत (स्वाभाविक-निसर्गज) मिथ्याज्ञान कहते हैं ।।७।।
अगृहीत मिथ्याचारित्र (कुचारित्र) का लक्षण इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्त । यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत, सुनिये सुतेह ।।८।।
अन्वयार्थ :- (जो) जो (विषयनि में) पाँच इन्द्रियों के विषयों में (इन जुत) अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करता है (ताको) उसे (मिथ्याचरित्त) अगृहीत मिथ्याचारित्र (जानो) समझो। (यों) इसप्रकार (निसर्ग) अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान
और मिथ्याचारित्र का [वर्णन किया गया] (अब) अब (जे) जो (गृहीत) गृहीत [मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र] है (तेह) उसे (सुनिये) सुनो।
भावार्थ :- अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित पाँच इन्द्रियों के विषय में प्रवृत्ति,करना उसे अगृहीत मिथ्याचारित्र कहा जाता है। इन तीनों को दुःख का कारण जानकर तत्त्वज्ञान द्वारा उनका त्याग करना चाहिए।।८।।
गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरु के लक्षण जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोईं चिर दर्शनमोह एव । अंतर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बर सनेह ।।९।।
गाथा १० (पूर्वार्द्ध) धारै कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्मजल उपलनाव; अन्वयार्थ :- (जो) जो (कुगुरु) मिथ्या गुरु की (कुदेव) मिथ्यादेव की और (कुधर्म) मिथ्या धर्म की (सेव) सेवा करता है, वह (चिर) अति दीर्घकाल तक (दर्शनमोह) मिथ्यादर्शन (एव) ही (पोर्षे) पोषता है। (जेह) जो
(अंतर) अंतर में (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि (धरै) धारण करता है
और (बाहर) बाह्य में (धन अम्बर ) धन तथा वस्त्रादि से (स्नेह) प्रेम रखता है तथा (महत भाव) महात्मापने का भाव (लहि) ग्रहण करके (कुलिंग) मिथ्यावेषों को (धारे) धारण करता है, वह (कुगुरु) कुगुरु कहलाता है और वह कुगुरु (जन्मजल) संसाररूपी समुद्र में (उपलनाव) पत्थर की नौका समान है। __भावार्थ :- कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने से दीर्घकाल तक मिथ्यात्व का ही पोषण होता है अर्थात् कुगुरु, कुदेव और कुधर्म का सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन कहलाता है।
परिग्रह दो प्रकार का है - एक अंतरंग और दूसरा बहिरंग। मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि अंतरंग परिग्रह हैं और वस्त्र, पात्र, धन, मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं। वस्त्रादि सहित होने पर भी अपने को जिनलिंगधारी मानते हैं, वे कुगुरु हैं। "जिनमार्ग में तीन लिंग तो श्रद्धापूर्वक हैं। एक तो जिनस्वरूप-निग्रंथ दिगंबर मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकरूप दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकलिंग और तीसरा आर्यिकाओं का रूप - यह स्त्रियों का लिंग, इन तीन के अतिरिक्त कोई चौथा लिंग सम्यग्दर्शनस्वरूप नहीं है; इसलिये इन तीन के अतिरिक्त अन्य लिंगों को जो मानता है, उसे जिनमत की श्रद्धा नहीं है, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि है। (दर्शनपाहुड गाथा १८)" इसलिये जो कुलिंग के धारक हैं, मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिरंग परिग्रह सहित हैं, अपने को मुनि मानते हैं, मनाते हैं, वे कुगुरु हैं। जिसप्रकार पत्थर की नौका डूब जाती है तथा उसमें बैठने वाले भी डूबते हैं; उसीप्रकार कुगुरु भी स्वयं संसारसमुद्र में डूबते हैं और उनकी वंदना तथा सेवा-भक्ति करनेवाले भी अनंत संसार में डूबते हैं अर्थात् कुगुरु की श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा अनुमोदना करने से गृहीत मिथ्यात्व का सेवन होता है और उससे जीव अनंतकाल तक भव-भ्रमण करता है।।९।।
गाथा १० (उत्तरार्द्ध)
कुदेव (मिथ्यादेव) का स्वरूप जो राग-द्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादिजुत चिह्न चीन ।।१०।।
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गाथा ११ (पूर्वार्ध)
कुदेव (मिथ्यादेव) का स्वरूप ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भवभ्रमण छेव ।
अन्वयार्थ :- (जे) जो (राग-द्वेष मलकरि मलीन) राग-द्वेषरूपी मैल से मलिन हैं और (वनिता) स्त्री (गदादि जुत) गदा आदि सहित (चिह्न चीन) चिह्नों से पहिचाने जाते हैं (ते) वे (कुदेव) झूठे देव हैं, (तिनकी) उन कुदेवों की (जु) जो (शठ) मूर्ख (सेव करत) सेवा करते हैं, (तिन) उनका (भवभ्रमण) संसार में भ्रमण करना (न छेव) नहीं मिटता। ____ भावार्थ :- जो राग और द्वेषरूपी मैल से मलिन (रागी-द्वेषी) हैं और स्त्री, गदा, आभूषण आदि चिह्नों से जिनको पहिचाना जा सकता है, वे 'कुदेव' कहे जाते हैं। जो अज्ञानी ऐसे कुदेवों की सेवा (पूजा, भक्ति और विनय) करते हैं, वे इस संसार का अन्त नहीं कर सकते अर्थात् अनन्तकाल तक उनका भवभ्रमण नहीं मिटता ।।१०।।
गाथा ११ (उत्तरार्द्ध) कुधर्म और गृहीत मिथ्यादर्शन का संक्षिप्त लक्षण रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत ।।११।। जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म। या। गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान ।।१२।।
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अन्वयार्थ :- (रागादि भावहिंसा) राग-द्वेष आदि भावहिंसा (समेत) सहित तथा (त्रस-थावर) त्रस और स्थावर (मरण खेत) मरण का स्थान (दवित) द्रव्यहिंसा (समेत) सहित (जे) जो (क्रिया) क्रियाएँ [हैं] (तिन्हें) उन्हें (कुधर्म) मिथ्याधर्म (जानहु) जानना चाहिए। (तिन) उनकी (सरधै) श्रद्धा करने से (जीव) आत्मा-प्राणी (लहै अशर्म) दुःख पाते हैं। (या।) इस कुगुरु, कुदेव
और कुधर्म का श्रद्धान करने को (गृहीत मिथ्यात्व) गृहीत मिथ्यादर्शन जानना, (अब गृहीत) अब गृहीत (अज्ञान) मिथ्याज्ञान (जो है) जिसे कहा जाता है, उसका वर्णन (सुन) सुनो।
भावार्थ :- जिस धर्म में मिथ्यात्व तथा रागादिरूप भावहिंसा और त्रस तथा स्थावर जीवों के घातरूप द्रव्यहिंसा को धर्म माना जाता है, उसे कुधर्म कहते हैं। जो जीव उस कुधर्म की श्रद्धा करता है, वह दुःख प्राप्त करता है। ऐसे मिथ्या गुरु, देव और धर्म की श्रद्धा करना, उसे "गृहीत मिथ्यादर्शन" कहते हैं। वह परोपदेश आदि बाह्य कारण के आश्रय से ग्रहण किया जाता है, इसलिये “गृहीत” कहलाता है। अब गृहीत मिथ्याज्ञान का वर्णन किया जाता है।
गृहीत मिथ्याज्ञान का लक्षण एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त; रागी कुमतनिकृत श्रुताभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास ।।१३।।
१. सुदेव - अरिहंत परमेष्ठी; देव - भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक. कदेव
हरि, हर शीतलादि; अदेव - पीपल, तुलसी, लकड़बाबा आदि कल्पित देव, जो कोई भी सरागी देव-देवी हैं, वे वन्दन-पूजन के योग्य नहीं हैं।
अन्वयार्थ :- (एकान्तवाद) एकान्तरूप कथन से (दूषित) मिथ्या [और] (विषयादिक) पाँच इन्द्रियों के विषय आदि की (पोषक) पुष्टि करनेवाले (रागी कुमतनिकृत) रागी कुमति आदि के रचे हुए (अप्रशस्त) मिथ्या (समस्त)
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शरीर को कष्ट देनेवाली (आतम अनात्म के) आत्मा और परवस्तुओं के (ज्ञानहीन) भेदज्ञान से रहित (तन) शरीर को (छीन) क्षीण (करन) करनेवाली (विविध विध) अनेक प्रकार की (जे जे करनी) जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब (मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र हैं।
भावार्थ :- शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान न होने से जो यश, धनसम्पत्ति, आदर-सत्कार आदि की इच्छा से मानादि कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करनेवाली अनेक प्रकार की क्रियाएँ करता है, उसे "गृहीत मिथ्याचारित्र” कहते हैं।
मिथ्याचारित्र के त्याग का तथा आत्महित में लगने का उपदेश ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पंथ लाग। जगजाल-भ्रमण को देहुत्याग, अबदौलत! निज आतमसुपाग।।१५।।
समस्त (श्रुत) शास्त्रों को (अभ्यास) पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना (सो) वह (कुबोध) मिथ्याज्ञान [है; वह] (बहु) बहुत (त्रास) दुःख को (देन) देने वाला है।
भावार्थ :- (१) वस्तु अनेक धर्मात्मक है; उसमें से किसी भी एक ही धर्म को पूर्ण वस्तु कहने के कारण से दूषित (मिथ्या) तथा विषय-कषायादि की पुष्टि करने वाले कुगुरुओं के रचे हुए सर्व प्रकार के मिथ्या शास्त्रों को धर्मबुद्धि से लिखना-लिखाना, पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना; उसे गृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं।
(२) जो शास्त्र जगत में सर्वथा नित्य, एक, अद्वैत और सर्वव्यापक ब्रह्ममात्र वस्तु है, अन्य कोई पदार्थ नहीं है - ऐसा वर्णन करता है, वह शास्त्र एकान्तवाद से दूषित होने के कारण कुशास्त्र है।
(३) वस्तु को सर्वथा क्षणिक-अनित्य बतलायें, अथवा (४) गुण-गुणी सर्वथा भिन्न हैं, किसी गुण के संयोग से वस्तु है - ऐसा कथन करें अथवा (५) जगत का कोई कर्ता-हर्ता तथा नियंता है - ऐसा वर्णन करें, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिक शुभ राग; जो कि पुण्यास्रव है, पराश्रय है, उससे तथा साधु को आहार देने के शुभभाव से संसार परित (अल्प, मर्यादित) होना बतलायें तथा उपदेश देने के शुभभाव से परमार्थरूप धर्म होता है - इत्यादि अन्य धर्मियों के ग्रन्थों में जो विपरीत कथन हैं, वे एकान्त और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैं; क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्त्वों की यथार्थता नहीं है। जहाँ एक तत्त्व की भूल हो, वहाँ सातों तत्त्व की भूल होती ही है - ऐसा समझना चाहिए।
गृहीत मिथ्याचारित्र का लक्षण जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देहदाह । आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ।।१४ ।।
अन्वयार्थ :- (जो) जो (ख्याति) प्रसिद्धि (लाभ) लाभ तथा (पूजादि) मान्यता और आदर-सन्मान आदि की (चाह धरि) इच्छा करके (देहदाह)
अन्वयार्थ :- (ते) उस (सब) समस्त (मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र को (त्याग) छोड़कर (अब) अब (आतम के) आत्मा के (हित) कल्याण के (पंथ) मार्ग में (लाग) लग जाओ, (जगजाल) संसाररूपी जाल में
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दूसरी ढाल
(भ्रमण को) भटकना (देहु त्याग) छोड़ दो, (दौलत) हे दौलतराम! (निज आतम) अपने आत्मा में (अब) अब (सुपाग) भलीभाँति लीन हो जाओ। ___ भावार्थ :-आत्महितैषी जीव को निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ग्रहण करके गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का त्याग करके आत्मकल्याण के मार्ग में लगना चाहिए। श्री पण्डित दौलतरामजी अपनी आत्मा को सम्बोधन करके कहते हैं कि - हे आत्मन्! पराश्रयरूप संसार अर्थात् पुण्य-पाप में भटकना छोड़कर सावधानी से आत्मस्वरूप में लीन हो।
दूसरी ढाल का सारांश (१) यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर चार गतियों में परिभ्रमण करके प्रतिसमय अनन्त दुःख भोग रहा है। जब तक देहादि से भिन्न अपने आत्मा की सच्ची प्रतीति तथा रागादि का अभाव न करे, तब तक सुख-शान्ति और आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता।
(२) आत्महित के लिए (सुखी होने के लिए) प्रथम (१) सच्चे देव, गुरु और धर्म की यथार्थ प्रतीति, (२) जीवादि सात तत्त्वों की यथार्थ प्रतीति, (३) स्व-पर के स्वरूप की श्रद्धा, (४) निज शुद्धात्मा के प्रतिभासरूप आत्मा की श्रद्धा - इन चार लक्षणों के अविनाभाव सहित सत्य श्रद्धा (निश्चय सम्यग्दर्शन) जबतक जीव प्रकट न करे, तब तक जीव (आत्मा) का उद्धार नहीं हो सकता अर्थात् धर्म का प्रारम्भ भी नहीं हो सकता: और तब तक आत्मा को अंशमात्र भी सुख प्रकट नहीं होता।
(३) सात तत्त्वों की मिथ्याश्रद्धा करना, उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं। अपने स्वतंत्र स्वरूप की भूल का कारण आत्मस्वरूप में विपरीत श्रद्धा होने से ज्ञानावरणीयादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म तथा पुण्य-पाप-रागादि मलिन भावों में एकताबुद्धि-कर्ताबुद्धि है और इसलिये शुभराग तथा पुण्य हितकर है, शरीरादि परपदार्थों की अवस्था (क्रिया) मैं कर सकता हूँ, पर मुझे लाभ-हानि कर सकता है तथा मैं पर का कुछ कर सकता हूँ - ऐसी मान्यता के कारण उसे सत्-असत्
का विवेक होता ही नहीं। सच्चा सुख तथा हितरूप श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र अपने आत्मा के ही आश्रय से होते हैं, इस बात की भी उसे खबर नहीं होती।
(४) पुनश्च, कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र और कुधर्म की श्रद्धा, पूजा, सेवा तथा विनय करने की जो-जो प्रवृत्ति है, वह अपने मिथ्यात्वादि महान दोषों को पोषण देनेवाली होने से दुःखदायक है, अनन्त संसार-भ्रमण का कारण है। जो जीव उसका सेवन करता है, उसे कर्तव्य समझता है, वह दुर्लभ मनुष्य-जीवन को नष्ट करता है।
(५) अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जीव को अनादिकाल से होते हैं, फिर वह मनुष्य होने के पश्चात् कुशास्त्र का अभ्यास करके अथवा कुगुरु का उपदेश स्वीकार करके गृहीत मिथ्याज्ञान-मिथ्याश्रद्धा धारण करता है तथा कुमत का अनुसरण करके मिथ्याक्रिया करता है, वह गृहीत मिथ्याचारित्र है। इसलिये जीव को भलीभाँति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत - दोनों प्रकार के मिथ्याभाव छोड़ने योग्य हैं तथा उनका यथार्थ निर्णय करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रकट करना चाहिए। मिथ्याभावों का सेवन कर-करके, संसार में भटककर, अनन्त जन्म धारण करके अनन्तकाल गँवा दिया; इसलिये अब सावधान होकर आत्मोद्धार करना चाहिए।
दूसरी ढाल का भेद-संग्रह इन्द्रियविषय :- स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द । तत्त्व :- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । द्रव्य :- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । मिथ्यादर्शन :- गृहीत, अगृहीत । मिथ्याज्ञान :- गृहीत (बाह्यकारण प्राप्त), अगृहीत (निसर्गज)। मिथ्याचारित्र :- गृहीत और अगृहीत ।
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३८
छहढाला
दूसरी ढाल
महादुःख :- स्वरूप सम्बन्धी अज्ञान, मिथ्यात्व।
दूसरी ढाल का लक्षण-संग्रह
अनेकान्त :- प्रत्येक वस्तु में वस्तुपने को प्रमाणित-निश्चित करनेवाली
अस्तित्व-नास्तित्व आदि परस्पर-विरुद्ध दो शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना। (आत्मा सदैव स्व-रूप से है और
पर-रूप से नहीं है - ऐसी जो दृष्टि, वह अनेकान्तदृष्टि है)। अमर्तिक:- रूप, रस, गंध और स्पर्शरहित वस्तु। आत्मा :- जानने-देखने अथवा ज्ञान-दर्शन शक्तिवाली वस्तु को आत्मा
कहा जाता है। जो सदा जाने और जानने रूप परिणमित हो,
उसे जीव अथवा आत्मा कहते हैं। उपयोग :- जीव की ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखने की शक्ति का
व्यापार। एकान्तवाद :- अनेक धर्मों की सत्ता की अपेक्षा न रखकर वस्तु का एक ही
रूप से निरूपण करना। दर्शनमोह :- आत्मा के स्वरूप की विपरीत श्रद्धा। द्रव्यहिंसा :- त्रस और स्थावर प्राणियों का घात करना। भावहिंसा :- मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि विकारों की उत्पत्ति । मिथ्यादर्शन :- जीवादि तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा । मूर्तिक :- रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसहित वस्तु ।
अन्तर-प्रदर्शन (१) आत्मा और जीव में कोई अन्तर नहीं है, पर्यायवाचक शब्द हैं। (२) अगृहीत (निसर्गज) तो उपदेशादिक के निमित्त बिना होता है, परन्तु
गृहीत में उपदेशादि निमित्त होते हैं। (३) मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शन में कोई अन्तर नहीं है; मात्र दोनों पर्यायवाचक
शब्द हैं। (४) सुगुरु में मिथ्यात्वादि दोष नहीं होते, किन्तु कुगुरु में होते हैं। विद्यागुरु
तो सुगुरु और कुगुरु से भिन्न व्यक्ति हैं। मोक्षमार्ग के प्रसंग में तो मोक्षमार्ग के प्रदर्शक सुगुरु से तात्पर्य है।
दूसरी ढाल की प्रश्नावली (१) अगृहीत-मिथ्याचारित्र, अगृहीत-मिथ्याज्ञान, अगृहीत-मिथ्यादर्शन,
कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, गृहीत-मिथ्यादर्शन, गृहीत-मिथ्याज्ञान, गृहीत
मिथ्याचारित्र, जीवादि छह द्रव्य - इन सबका लक्षण बतलाओ। (२) मिथ्यात्व और मिथ्यादर्शन में, अगृहीत और गृहीत में, आत्मा और जीव
में तथा सुगुरु, कुगुरु और विद्या गुरु में क्या अन्तर है? वह बतलाओ। (३) अगृहीत का नामान्तर, आत्महित का मार्ग, एकेन्द्रिय को ज्ञान न मानने
से हानि, कुदेवादि की सेवा से हानि; दूसरी ढाल में कही हुई वास्तविकता, मृत्युकाल में जीव निकलते हुए दिखाई नहीं देता, उसका कारण; मिथ्यादृष्टि की रुचि, मिथ्यादृष्टि की अरुचि, मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र की सत्ता का काल; मिथ्यादृष्टि को दुःख देनेवाली वस्तु, मिथ्याधार्मिक कार्य करने-कराने व उसमें सम्मत होने से हानि तथा सात तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा के प्रकारादि का स्पष्ट वर्णन करो।
१. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४ ।। (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय) अर्थ :- वास्तव में रागादि भावों का प्रकट न होना, सो अहिंसा हैं और रागादि भावों की उत्पत्ति होना सो हिंसा है - ऐसा जिनागम शास्त्र का संक्षिप्त रहस्य है।
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छहढाला
(४) आत्महित, आत्मशक्ति का विस्मरण, गृहीत मिथ्यात्व, जीवतत्त्व की
पहिचान न होने में किसका दोष है, तत्त्व का प्रयोजन, दुःख, मोक्षसुख
की अप्राप्ति और संसार-परिभ्रमण के कारण दर्शाओ। (५) मिथ्यादृष्टि का आत्मा, जन्म और मरण, कष्टदायक वस्तु आदि सम्बन्धी
विचार प्रकट करो। (६) कुगुरु, कुदेव और मिथ्याचारित्र आदि के दृष्टान्त दो। आत्महितरूप
धर्म के लिए प्रथम व्यवहार या निश्चय? (७) कुगुरु तथा कुधर्म का सेवन और रागादिभाव आदि का फल बतलाओ।
मिथ्यात्व पर एक लेख लिखो। अनेकान्त क्या है? राग तो बाधक ही है, तथापि व्यवहार मोक्षमार्ग को (शुभराग का) निश्चय का हेतु क्यों कहा है? अमुक शब्द, चरण अथवा छन्द का अर्थ और भावार्थ बतलाओ। दूसरी ढाल का सारांश समझाओ।
तीसरी ढाल
नरेन्द्र छन्द (जोगीरासा) आत्महित, सच्चा सुख तथा दो प्रकार से मोक्षमार्ग का कथन आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये। आकुलता शिवमांहि न तातें, शिवमग लाग्यो चहिये ।। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिव मग, सो द्विविध विचारो। जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो॥१॥
हे जिन तेरो सुजस उजागर गावत हैं मुनिजन ज्ञानी ।।टेक ।। दुर्जय मोह महाभट जाने निज वस कीने हैं जग प्रानी। सो तुम ध्यान कृपान पान गहिं तत् छिन ताकी थिति हानी।।१।। सुप्त अनादि अविद्या निद्रा जिन जन निज सुधि बिसरानी।
वै सचेत तिन निज निधि पाई श्रवण सुनी जब तुम वानी।।२।। मंगलमय तू जग में उत्तम, तू ही शरण शिवमग दानी। तुम पद सेवा परम औषधि जन्म-जरा-मृत गद हानि ॥३॥ तुमरे पंचकल्याणक माहीं त्रिभुवन मोह दशा हानी। विष्णु विदाम्बर जिष्णु दिगम्बर बुध शिव कहि ध्यावत ध्यानी।।४।। सर्व दर्व गुण परिजय परिणति, तुम सुबोध में नहिं छानी। तातें दौल' दास उर आशा प्रकट करी निज रस सानी।।५।।
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छहढाला
अन्वयार्थ :- ( आतम को) आत्मा का (हित) कल्याण (है) है (सुख) सुख की प्राप्ति, (सो सुख) वह सुख (आकुलता बिन) आकुलता रहित (कहिये) कहा जाता है। (आकुलता) आकुलता (शिवमाहिं) मोक्ष में (न) नहीं है ( तातें) इसलिये (शिवमग) मोक्षमार्ग में ( लाग्यो ) लगना ( चहिये) चाहिए। ( सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरन ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र इन तीनों की एकता रूप (शिवमग) जो मोक्ष का मार्ग है। (सो) उस मोक्षमार्ग का (द्विविध) दो प्रकार से (विचारो) विचार करना चाहिए कि (जो) जो (सत्यारथ रूप) वास्तविक स्वरूप है (सो) वह (निश्चय) निश्चय - मोक्षमार्ग है और (कारण) जो निश्चयमोक्षमार्ग का निमित्तकारण है (सो) उसे (व्यवहारो) व्यवहार-मोक्षमार्ग कहते हैं।
भावार्थ :- (१) सम्यक्चारित्र निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञानपूर्वक ही होता है। जीव को निश्चयसम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यक् भावश्रुतज्ञान होता है। और निश्चयनय तथा व्यवहारनय ये दोनों सम्यक् श्रुतज्ञान के अवयव (अंश) हैं; इसलिये मिथ्यादृष्टि को निश्चय या व्यवहारनय हो ही नहीं सकते; इसलिये "व्यवहार प्रथम होता है और निश्चयनय बाद में प्रकट होता है" - ऐसा माननेवाले को नयों के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं है।
(२) तथा नय निरपेक्ष नहीं होते। निश्चयसम्यग्दर्शन प्रकट होने से पूर्व यदि व्यवहारनय हो तो निश्चयनय की अपेक्षा रहित निरपेक्षनय हुआ; और यदि पहले अकेला व्यवहारनय हो तो अज्ञानदशा में सम्यग्नय मानना पड़ेगा; किन्तु “निरपेक्षा नयाः मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत” (आप्तमीमांसा श्लोक१०८) ऐसा आगम का वचन है; इसलिये अज्ञानदशा में किसी जीव को व्यवहारनय नहीं हो सकता, किन्तु व्यवहाराभास अथवा निश्चयाभासरूप मिथ्यानय हो सकता है।
(३) जीव निज ज्ञायकस्वभाव के आश्रय द्वारा निश्चय रत्नत्रय (मोक्षमार्ग) प्रकट करे, तब सर्वज्ञकथित सप्त तत्त्व, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा सम्बन्धी रागमिश्रित विचार तथा मन्दकषायरूप शुभभाव- जो कि उस जीव को पूर्वकाल में था, उसे भूतनैगमन से व्यवहारकारण कहा जाता है। (परमात्मप्रकाश
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तीसरी ढाल
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अध्याय २, गाथा १४ की टीका) । तथा उसी जीव को निश्चय सम्यग्दर्शन की भूमिका में शुभराग और निमित्त किस प्रकार के होते हैं, उनका सहचरपना बतलाने के लिए वर्तमान शुभराग को व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है। ऐसा कहने का कारण यह है कि उससे भिन्न प्रकार के (विरुद्ध) निमित्त उस दशा में किसी को हो नहीं सकते । - इसप्रकार निमित्त-व्यवहार होता है, तथापि वह यथार्थ कारण नहीं है।
(४) आत्मा स्वयं ही सुखस्वरूप है, इसलिये आत्मा के आश्रय से ही सुख प्रकट हो सकता है, किन्तु किसी निमित्त या व्यवहार के आश्रय से सुख प्रकट नहीं हो सकता ।
(५) मोक्षमार्ग तो एक ही है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकतारूप है। (प्रवचनसार, गाथा ८२-१९९ तथा मोक्षमार्ग प्रकाशक, देहली, पृष्ठ ४६२) ।
(६) अब, “मोक्षमार्ग तो कहीं दो नहीं हैं, किन्तु मोक्षमार्ग का निरूपण दो प्रकार से है। जहाँ मोक्षमार्ग के रूप में सच्चे मोक्षमार्ग की प्ररूपणा की है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है; तथा जहाँ, जो मोक्षमार्ग तो नहीं है, किन्तु मोक्षमार्ग का निमित्त है अथवा सहचारी है, वहाँ उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहें तो वह व्यवहार मोक्षमार्ग है; क्योंकि निश्चय - व्यवहार का सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है अर्थात् यथार्थ निरूपण वह निश्चय और उपचार निरूपण वह व्यवहार; इसलिये निरूपण की अपेक्षा से दो प्रकार का मोक्षमार्ग जानना; किन्तु एक निश्चय मोक्षमार्ग है और दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग है - इसप्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, देहली, पृष्ठ ३६५ - ३६६ ) निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र का स्वरूप परद्रव्यनतैं भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है। आपरूप को जानपनों, सो सम्यग्ज्ञान कला है ।। आपरूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई । अब व्यवहार मोक्षमग सुनिये, हेतु नियत को होई ॥ २ ॥
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अन्वयार्थ :- ( आप में) आत्मा में (परद्रव्यनतें) परवस्तुओं से ( भिन्न) भिन्नत्व की (रुचि) श्रद्धा करना सो, (भला) निश्चय (सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन है; (आपरूप को ) आत्मा के स्वरूप को (परद्रव्यनतें भिन्न) परद्रव्यों से भिन्न (जानपनों) जानना (सो) वह (सम्यग्ज्ञान) निश्चय सम्यग्ज्ञान (कला) प्रकाश (है) है। (परद्रव्यनतैं भिन्न) परद्रव्यों से भिन्न ऐसे (आपरूप में) आत्मस्वरूप
(थर) स्थिरतापूर्वक ( लीन रहे) लीन होना सो (सम्यक् चारित) निश्चय सम्यक्चारित्र (सोई) है। (अब) अब (व्यवहार मोक्षमग) व्यवहार- मोक्षमार्ग (सुनिये) सुनो कि जो व्यवहार मोक्षमार्ग (नियत को) निश्चय मोक्षमार्ग का (हेतु) निमित्तकारण ( होई) है।
भावार्थ :- पर पदार्थों से त्रिकाल भिन्न ऐसे निज आत्मा का अटल विश्वास करना, उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। आत्मा को परवस्तुओं से भिन्न जानना (ज्ञान करना) उसे निश्चय सम्यग्ज्ञान कहा जाता है तथा परद्रव्यों का आलम्बन छोड़कर आत्मस्वरूप में एकाग्रता से मग्न होना वह निश्चय सम्यक्चारित्र (यथार्थ आचरण) कहलाता है। अब आगे व्यवहार-मोक्षमार्ग का कथन करते हैं; क्योंकि जब निश्चय - मोक्षमार्ग हो, तब व्यवहार-मोक्षमार्ग निमित्तरूप में कैसे होता है, वह जानना चाहिये।
व्यवहार सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का स्वरूप जीव अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्ध रु संवर जानो । निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानौ ।।
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है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो । तिनको सुन सामान्य विशेषै, दिढ़ प्रतीत उर आनो ।। ३ ।।
अन्वयार्थ :- (जिन) जिनेन्द्रदेव ने (जीव) जीव, (अजीव) अजीव, (आस्रव) आस्रव, (बन्ध) बन्ध, ( संवर) संवर, (निर्जर) निर्जरा, (अरु) और (मोक्ष) मोक्ष, (तत्त्व) ये सात तत्त्व (कहे) कहे हैं; (तिनको) उन सबकी (ज्यों का त्यों) यथावत् यथार्थरूप से (सरधानो) श्रद्धा करो। (सोई) इसप्रकार श्रद्धा करना, सो (समकित व्यवहारी) व्यवहार से सम्यग्दर्शन है। अब (इन रूप) इन सात तत्त्वों के रूप का (बखानो) वर्णन करते हैं; (तिनको) उन्हें (सामान्य विशेषै) संक्षेप से तथा विस्तार से (सुन) सुनकर (उर) मन में (दिढ़) अटल (प्रतीत) श्रद्धा (आनो) करो।
भावार्थ:(१) निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ व्यवहार सम्यग्दर्शन कैसे होता है, उसका यहाँ वर्णन है। जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन न हो, उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन भी नहीं हो सकता। निश्चयश्रद्धा सहित सात तत्त्वों की विकल्परागसहित श्रद्धा को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
(२) तत्त्वार्थसूत्र में " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" कहा है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। (देखो, मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ९, पृष्ठ ४७७ तथा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, गाथा २२) ।
यहाँ जो सात तत्त्वों की श्रद्धा कही है, वह भेदरूप है - रागसहित है, इसलिये वह व्यवहार सम्यग्दर्शन है। निश्चय मोक्षमार्ग में कैसा निमित्त होता
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छहढाला
तीसरी ढाल
जीव के भेद-उपभेद
है, वह बतलाने के लिए यहाँ तीसरा पद कहा है; किन्तु उसका ऐसा अर्थ नहीं है कि - निश्चयसम्यक्त्व बिना व्यवहारसम्यक्त्व हो सकता है।
जीव के भेद, बहिरात्मा और उत्तम अन्तरात्मा का लक्षण बहिरातम, अन्तर आतम, परमातम जीव त्रिधा है। देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है ।। उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर-आतम ज्ञानी। द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी ।।४।। अन्वयार्थ :- (बहिरातम) बहिरात्मा, (अन्तर-आतम) अन्तरात्मा [और] (परमातम) परमात्मा, [इसप्रकार] (जीव) जीव (त्रिधा) तीन प्रकार के (है) हैं; [उनमें जो] (देह जीव को) शरीर और आत्मा को (एक गिने) एक मानते हैं, वे (बहिरातम) बहिरात्मा हैं और वे बहिरात्मा] (तत्त्वमुधा) यथार्थ तत्त्वों से अजान अर्थात् तत्त्वमूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं । (आतमज्ञानी) आत्मा को परवस्तुओं से भिन्न जानकर यथार्थ निश्चय करनेवाले (अन्तर आतम) अन्तरात्मा [कहलाते हैं; वे] (उत्तम) उत्तम (मध्यम) मध्यम और (जघन) जघन्य - ऐसे (त्रिविध) तीन प्रकार के हैं। [उनमें] (द्विविध) अंतरंग तथा बहिरंग ऐसे दो प्रकार के (संग बिन) परिग्रह रहित (शुध उपयोगी) शुद्ध उपयोगी (निजध्यानी) आत्मध्यानी (मुनि) दिगम्बर मुनि (उत्तम) उत्तम अन्तरात्मा हैं।
भावार्थ :- जीव (आत्मा) तीन प्रकार के हैं - (१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा, (३) परमात्मा । उनमें जो शरीर और आत्मा को एक मानते हैं, उन्हें बहिरात्मा कहते हैं; वे तत्त्वमूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं। जो शरीर और आत्मा को अपने भेदविज्ञान से भिन्न-भिन्न मानते हैं, वे अन्तरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं। अन्तरात्मा के तीन भेद हैं - उत्तम, मध्यम और जघन्य । उनमें अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक वर्तते हुए शुद्ध-उपयोगी आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि उत्तम अन्तरात्मा हैं।
मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा मध्यम अन्तर-आतम हैं जे देशव्रती अनगारी । जघन कहे अविरत-समदृष्टि, तीनों शिवमग चारी ।। सकल निकल परमातम द्वैविध तिनमें घाति निवारी।
श्री अरिहन्त सकल परमातम लोकालोक निहारी ।।५।। अन्वयार्थ :- (अनगारी) छठवें गुणस्थान के समय अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह रहित यथाजातरूपधर-भावलिंगी मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा (देशव्रती) दो कषाय के अभाव सहित ऐसे पंचम गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि श्रावक (मध्यम) मध्यम (अन्तर-आतम) अन्तरात्मा (हैं) हैं और (अविरत) व्रतरहित (समदृष्टि) सम्यग्दृष्टि जीव (जघन) जघन्य अन्तरात्मा (कहे) कहलाते हैं; (तीनों) ये तीनों (शिवमगचारी) मोक्षमार्ग पर चलनेवाले हैं। (सकल निकल) सकल और निकल के भेद से (परमातम) परमात्मा (द्वैविध) दो प्रकार के हैं (तिनमें) उनमें (घाति) चार घातिकर्मों को (निवारी) नाश करनेवाले (लोकालोक) लोक तथा अलोक को (निहारी) जानने-देखनेवाले (श्री अरिहन्त) अरहन्त परमेष्ठी (सकल) शरीर सहित (परमातम) परमात्मा हैं।
भावार्थ :- (१)जो निश्चय सम्यग्दर्शनादि सहित हैं; तीन कषाय रहित, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म को अंगीकार करके अंतरंग में तो उस शुद्धोपयोगरूप
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द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं, किसी को इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते, हिंसादिरूप अशुभोपयोग का तो अस्तित्व ही जिनके नहीं रहा है - ऐसी अन्तरंगदशा सहित बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी हुए हैं और छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान के समय अट्ठाईस मूलगुणों का अखण्डरूप से पालन करते हैं वे, तथा जो अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानीय - ऐसे दो कषाय के अभाव सहित सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं अर्थात् छठवें और पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं। '
(२) सम्यग्दर्शन के बिना कभी धर्म का प्रारम्भ नहीं होता। जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं है, वह जीव बहिरात्मा है।
(३) परमात्मा के दो प्रकार हैं सकल और निकल । (२) श्री अरिहंत परमात्मा वे `सकल (शरीरसहित) परमात्मा हैं और (२) सिद्ध परमात्मा वे निकल परमात्मा हैं। वे दोनों सर्वज्ञ होने से लोक और अलोक सहित सर्व पदार्थों का त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण स्वरूप एक समय में युगपत् (एकसाथ) जाननेदेखनेवाले, सबके ज्ञाता द्रष्टा हैं, इससे निश्चित होता है कि जिसप्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान व्यवस्थित है, उसीप्रकार उनके ज्ञान के ज्ञेय-सर्वद्रव्य - छहों द्रव्यों की त्रैकालिक क्रमबद्ध पर्यायें निश्चित व्यवस्थित हैं, कोई पर्याय उल्टीसीधी अथवा अव्यवस्थित नहीं होती, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव मानता है। जिसकी ऐसी मान्यता (निर्णय) नहीं होती, उसे स्व- पर पदार्थों का निश्चय न होने से शुभाशुभ विकार और परद्रव्य के साथ कर्ताबुद्धि-एकताबुद्धि होती ही है। इसलिये वह जीव बहिरात्मा है।
१. सावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति ।
श्रावकगुणैस्तु युक्ताः प्रमत्तविरताश्च मध्यमा भवन्ति ।।
अर्थ :- श्रावक के गुणों से युक्त और प्रमत्तविरत मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं।
(स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा - १९६ )
२. स = सहित, कलशरीर, सकल अर्थात् शरीर सहित । ३. नि= रहित, कल= शरीर, निकल अर्थात् शरीर रहित ।
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निकल परमात्मा का लक्षण तथा परमात्मा के ध्यान का उपदेश ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल वर्जित सिद्ध महन्ता । ते हैं निकल अमल परमातम भोगें शर्म अनन्ता ।। बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हजै ।
परमातम को ध्याय निरन्तर जो नित आनन्द पूजै ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ :- ( ज्ञानशरीरी) ज्ञानमात्र जिनका शरीर है ऐसे (त्रिविध) ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म तथा औदारिक शरीरादि नोकर्म, ऐसे तीन प्रकार के (कर्ममल) कर्मरूपी मैल से (वर्जित) रहित, (अमल) निर्मल और (महन्ता ) महान (सिद्ध) सिद्ध परमेष्ठी (निकल) निकल ( परमातम ) परमात्मा हैं। वे (अनन्त) अपरिमित (शर्म) सुख (भोगें) भोगते हैं। इन तीनों में (बहिरातमता) बहिरात्मपने को (हेय) छोड़ने योग्य (जानि) जानकर और ( तजि ) उसे छोड़कर ( अन्तर आतम) अन्तरात्मा (हजै ) होना चाहिए और (निरन्तर) सदा (परमातम को) [निज] परमात्मपद का (ध्याय) ध्यान करना चाहिए; (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात् अनन्त (आनन्द) आनन्द ( पूजै) प्राप्त किया जाता है।
भावार्थ :- औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञानमय द्रव्य-भावनोकर्म रहित, निर्दोष और पूज्य सिद्ध परमेष्ठी 'निकल' परमात्मा कहलाते हैं; वे अक्षय अनन्तकाल तक अनन्तसुख का अनुभव करते हैं । इन तीन में बहिरात्मपना मिथ्यात्वसहित होने के कारण हेय (छोड़ने योग्य) है, इसलिये आत्महितैषियों को चाहिए कि उसे छोड़कर, अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) बनकर परमात्मपना प्राप्त करें; क्योंकि उससे सदैव सम्पूर्ण और अनन्त आनन्द (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
अजीव पुद्गल धर्म और अधर्मद्रव्य के लक्षण तथा भेद चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं। पुद्गल पंच वरन - रस, गंध दो फरस वसू जाके हैं। जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्म द्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई जिन बिन-मूर्ति निरूपी ॥ ७ ॥
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अन्वयार्थ :- जो (चेतनता - बिन) चेतनता रहित है (सो) वह (अजीव ) अजीव है; (ताके) उस अजीव के (पंच भेद) पाँच भेद हैं; (जाके पंच वरनरसगन्ध दो) जिसके पाँच वर्ण और रस, दो गन्ध और (वसू) आठ (फरस) स्पर्श (हैं) होते हैं, वह पुद्गलद्रव्य है। जो (जिय) जीव को [ और ] (पुद्गल को) पुद्गल को (चलन सहाई) चलने में निमित्त [ और ] ( अनरूपी) अमूर्तिक है, वह (धर्म) धर्मद्रव्य है। तथा (तिष्ठत) गतिपूर्वक स्थितिपरिणाम को प्राप्त [जीव और पुद्गल को] (सहाई) निमित्त (होय) होता है, वह (अधर्म ) अधर्म द्रव्य है। (जिन) जिनेन्द्र भगवान ने उस अधर्मद्रव्य को (बिन - मूर्ति) अमूर्तिक, (निरूपी) अरूपी कहा है।
भावार्थ :- जिसमें चेतना (ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखने की शक्ति) नहीं होती, उसे अजीव कहते हैं। उस अजीव के पाँच भेद हैं- पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश और काल । जिसमें रूप, रस, गंध, वर्ण और स्पर्श होते हैं, उसे पुद्गलद्रव्य कहते हैं। जो स्वयं गति करते हुए जीव और पुद्गल को चलने में निमित्तकारण होता है, वह धर्मद्रव्य है; तथा जो स्वयं (अपने आप ) गतिपूर्वक स्थिर रहे हुए जीव और पुद्गल को स्थिर रहने में निमित्तकारण है, वह अधर्मद्रव्य है । जिनेन्द्र भगवान ने इन धर्म, अधर्म द्रव्यों को तथा जो आगे १. धर्म और अधर्म से यहाँ पुण्य और पाप नहीं, किन्तु छह द्रव्यों में आने वाले धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो अजीव द्रव्य समझना चाहिए।
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तीसरी ढाल
कहे जायेंगे, उन आकाश और काल द्रव्यों को अमूर्तिक (इन्द्रिय- अगोचर ) कहा है ॥७॥
आकाश, काल और आस्रव के लक्षण अथवा भेद सकल द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो; नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहारकाल परिमानो । यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन वच-काय त्रियोगा; मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा ।।८ ॥
अन्वयार्थ :- (जास में) जिसमें (सकल) समस्त (द्रव्य को) द्रव्यों का (वास) निवास है (सो) वह (आकाश) आकाश द्रव्य (पिछानो) जानना; (वर्तना) स्वयं प्रवर्तित हो और दूसरों को प्रवर्तित होने में निमित्त हो वह ( नियत ) निश्चय कालद्रव्य है; तथा (निशिदिन) रात्रि, दिवस आदि ( व्यवहारकाल) व्यवहारकाल (परिमानो) जानो। (यों) इसप्रकार (अजीव ) अजीवतत्त्व का वर्णन हुआ। (अब) अब (आस्रव) आस्रवतत्त्व (सुनिये) का वर्णन सुनो । (मन-वच-काय) मन, वचन और काया के आलम्बन से आत्मा के प्रदेश चंचल होनेरूप (त्रियोगा) तीन प्रकार के योग तथा (मिथ्यात्व अविरत कषाय) मिथ्यात्व, अविरत, कषाय (अरु) और (परमाद) प्रमाद (सहित) सहित (उपयोग) आत्मा की प्रवृत्ति, वह (आस्रव) आस्रवतत्त्व कहलाता है।
भावार्थ :- जिसमें छह द्रव्यों का निवास है, उस स्थान को 'आकाश कहते हैं। जो अपने आप बदलता है तथा अपने आप बदलते हुए अन्य द्रव्यों १. जिसप्रकार किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली जाये तो वह समा जाती है; फिर उसमें शर्करा डाली जाये तो वह भी समा जाती है; फिर उसमें सुइयाँ डाली जायें तो वे भी समा जाती हैं; उसीप्रकार आकाश में भी मुख्य अवगाहन शक्ति है; इसलिये उसमें सर्वद्रव्य एकसाथ रह सकते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को रोकता नहीं है।
(जैन सिद्धान्त प्रवेशिका )
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को बदलने में निमित्त है, उसे "निश्चयकाल" कहते हैं। रात, दिन, घड़ी, घण्टा आदि को "व्यवहारकाल" कहा जाता है। - इसप्रकार अजीवतत्त्व का वर्णन हुआ। अब, आस्रवतत्त्व का वर्णन करते हैं। उसके मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग - ऐसे पाँच भेद हैं।८।
(आस्रव और बन्ध दोनों में भेद :- जीव के मिथ्यात्व-मोह-रागद्वेषरूप परिणाम, वह भाव-आस्रव है और उन मलिन भावों में स्निग्धता, वह भाव-बन्ध है)
आस्रवत्याग का उपदेश और बन्ध, संवर, निर्जरा का लक्षण ये ही आतम को दुःख-कारण, तातै इनको तजिये; जीवप्रदेश बँधे विधि सों सो, बंधन कबहुँ न सजिये। शम-दम तैं जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये; तप-बल तैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये ।।९।।
अन्वयार्थ :- (ये ही) यह मिथ्यात्वादि ही (आतम को) आत्मा को (दुःख-कारण) दुःखका कारण हैं (तात) इसलिये (इनको) इन मिथ्यात्वादि को (तजिये) छोड़ देना चाहिए (जीवप्रदेश) आत्मा के प्रदेशों का (विधि सों) कर्मों से (बन्धै) बँधना, वह (बंधन) बन्ध [कहलाता है,] (सो) वह [बन्ध] (कबहुँ) कभी भी (न सजिये) नहीं करना चाहिए । (शम) कषायों का अभाव [और] (दम तैं) इन्द्रियों तथा मन को जीतने से (कर्म) कर्म (न आवै) नहीं आयें, वह (संवर) संवरतत्त्व है; (ताहि) उस संवर को (आदरिये) ग्रहण करना चाहिए। (तपबल तैं) तप की शक्ति से (विधि) कर्मों का (झरन) एकदेश खिर जाना, सो (निरजरा) निर्जरा है। (ताहि) उस निर्जरा को (सदा) सदैव (आचरिये) प्राप्त करना चाहिए।
भावार्थ :- ये मिथ्यात्वादि ही आत्मा को दुःख का कारण हैं, किन्तु पर पदार्थ दुःख का कारण नहीं हैं; इसलिये अपने दोषरूप मिथ्याभावों का अभाव करना चाहिए। स्पर्शों के साथ पुद्गलों का बन्ध, रागादि के साथ जीव का बन्ध और अन्योन्य अवगाह वह पुद्गल जीवात्मक बन्ध कहा है। (प्रवचनसार, गाथा १७७) रागपरिणाम मात्र ऐसा जो भावबन्ध है, वह द्रव्यबन्ध का हेतु होने से वही निश्चयबन्ध है, जो छोड़ने योग्य है।
(२) मिथ्यात्व और क्रोधादिरूप भाव-उन सबको सामान्यरूप से कषाय कहा जाता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, देहली - पृष्ठ ४०) ऐसे कषाय के अभाव को शम कहते हैं। और दम अर्थात् जो ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष टालकर, इन्द्रियों को जीतकर, ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक (पृथक् परिपूर्ण) आत्मा को जानता है, उसे निश्चयनय में स्थित साधु वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं। (स. गा. ३१)।
स्वभाव-परभाव के भेदज्ञान द्वारा द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा उनके विषयों से आत्मा का स्वरूप भिन्न है - ऐसा जानना, उसे इन्द्रिय-दमन कहते हैं; परन्तु आहारादि तथा पाँच इन्द्रियों के विषयरूप बाह्य वस्तुओं के त्यागरूप जो मन्दकषाय है, उससे वास्तव में इन्द्रिय-दमन नहीं होता; क्योंकि वह तो शुभराग है, पुण्य है, इसलिये बन्ध का कारण है - ऐसा समझना।
१. अपनी-अपनी पर्यायरूप से स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो
निमित्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। जिसप्रकार कुम्हार के चाक को घूमने में धुरी (कीली)। कालद्रव्य को निश्चयकाल कहते हैं। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही कालद्रव्य (कालाणु) हैं। दिन, घड़ी, घण्टा, मास - उसे व्यवहारकाल कहते हैं।
(जैन सिद्धान्त प्रवेशिका)
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मोक्ष का लक्षण, व्यवहारसम्यक्त्व का लक्षण तथा कारण सकल कर्मत रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी । इहि विध जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी ।। देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो। येहु मान समकित को कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो ।।१०।।
(३) शुद्धात्माश्रित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव ही संवर है। प्रथम निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर स्वद्रव्य के आलम्बनानुसार संवर-निर्जरा प्रारम्भ होती है। क्रमशः जितने अंश में राग का अभाव हो, उतने अंश में संवर-निर्जरारूप धर्म होता है। स्वोन्मुखता के बल से शुभाशुभ इच्छा का निरोध, सो तप है। उस तप से निर्जरा होती है।
(४) संवर :- पुण्य-पापरूप अशुद्ध भाव (आस्रव) को आत्मा के शुद्धभाव द्वारा रोकना, सो भावसंवर है और तदनुसार नवीन कर्मों का आना स्वयं - स्वतः रुक जाये, सो द्रव्यसंवर है।
(५) निर्जरा :- अखण्डानन्द निज शुद्धात्मा के लक्ष्य से अंशतः शुद्धि की वृद्धि और अशुद्धि की अंशतः हानि करना, सो भावनिर्जरा है; और उस समय खिरने योग्य कर्मों का अंशतः छूट जाना, सो द्रव्य-निर्जरा है। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका पृष्ठ ४५-४६ प्रश्न १२१)।
(६) जीव-अजीवको उनके स्वरूप सहित जानकर स्व तथा पर को यथावत् मानना; आस्रव को जानकर उसे हेयरूप, बन्ध को जानकर उसे अहितरूप, संवर को पहिचानकर उसे उपादेयरूप तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हित का कारण मानना चाहिए (मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ९, पृष्ठ ४६९)। १. आसव आदि के दृष्टांत :(१) आस्रव :- जिसप्रकार किसी नौका में छिद्र हो जाने से उसमें पानी आने लगता है,
उसी प्रकार मिथ्यात्वादि आस्रव के द्वारा आत्मा में कर्म आने लगते हैं। (२) बन्ध:- जिसप्रकार छिद्र द्वारा पानी नौका में भर जाता है, उसीप्रकार कर्मपरमाणु
आत्मा के प्रदेशों में पहुँचते हैं (एक क्षेत्र में रहते हैं)। संवर :- जिसप्रकार छिद्र बन्द करने से नौका में पानी का आना रुक जाता है,
उसीप्रकार शद्धभावरूप गुप्ति आदि के द्वारा आत्मा में कर्मों का आना रुक जाता है। (४) निर्जरा :-जिसप्रकार नौका में आये हुए पानी में से थोड़ा (किसी बर्तन में भरकर)
बाहर फेंक दिया जाता है, उसीप्रकार निर्जरा द्वारा थोड़े-से कर्म आत्मा से अलग हो
जाते हैं। (५) मोक्ष :- जिसप्रकार नौका में आया हुआ सारा पानी निकाल देने से नौका एकदम
पानी रहित हो जाती है, उसीप्रकार आत्मा में से समस्त कर्म पृथक् हो जाने से आत्मा की परिपूर्ण शुद्धदशा (मोक्षदशा) प्रकट हो जाती है अर्थात् आत्मा मुक्त हो जाता है।।९।।
अन्वयार्थ :- (सकल कर्मर्ते) समस्त कर्मों से (रहित) रहित (थिर) स्थिर-अटल (सुखकारी) अनन्त सुखदायक (अवस्था) दशा-पर्याय, सो (शिव) मोक्ष कहलाता है। (इहि विध) इसप्रकार (जो) जो (तत्त्वन की) सात तत्त्वों के भेदसहित (सरधा) श्रद्धा करना, सो (व्यवहारी) व्यवहार (समकित) सम्यग्दर्शन है। (जिनेन्द्र) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी (देव) सच्चे देव (परिग्रह बिन) चौबीस परिग्रह से रहित (गुरु) वीतराग गुरु [तथा] (सारो) सारभूत (दयाजुत) अहिंसामय (धर्म) जैनधर्म (येहू) इन सबको (समकित को) सम्यग्दर्शन का (कारण) निमित्तकारण (मान) जानना चाहिए। सम्यग्दर्शन को उसके (अष्ट) आठ (अंगजुत) अंगों सहित (धारो) धारण करना चाहिए।
भावार्थ :- मोक्ष का स्वरूप जानकर उसे अपना परमहित मानना चाहिए। आठ कर्मों के सर्वथा नाश पूर्वक आत्मा की जो सम्पूर्ण शुद्ध दशा (पर्याय) प्रकट होती है, उसे मोक्ष कहते हैं। वह दशा अविनाशी तथा अनन्त सुखमय है; - इसप्रकार सामान्य और विशेषरूप से सात तत्त्वों की अचल श्रद्धा करना, उसे व्यवहार-सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) कहते हैं। जिनेन्द्रदेव, वीतरागी (दिगम्बर जैन) गुरु तथा जिनेन्द्रप्रणीत अहिंसामय धर्म भी उस व्यवहार सम्यग्दर्शन के कारण हैं अर्थात् इन तीनों का यथार्थ श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता
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है। उसे निम्नोक्त आठ अंगों सहित धारण करना चाहिए। व्यवहार सम्यक्त्वी का स्वरूप पहले, दूसरे तथा तीसरे छंद के भावार्थ में समझाया है। निश्चय सम्यक्त्व के बिना मात्र व्यवहार को व्यवहार सम्यक्त्व नहीं कहा जाता ।। १० ।। सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो । शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ।। अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये । बिन जानें तैं दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये ।। ११ ।। अन्वयार्थ :- (वसु) आठ (मद) मद का (टारि) त्याग करके, (त्रिशठता) तीन प्रकार की मूढ़ता को (निवारि) हटाकर, (षट्) छह ('अनायतन) अनायतनों का (त्यागो) त्याग करना चाहिए। (शंकादिक) शंकादि (वसु) आठ (दोष बिना) दोषों से रहित होकर (संवेगादिक) संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम में (चित) मन को (पागो) लगाना चाहिए। अब, सम्यक्त्व के (अष्ट) आठ (अंग) अंग (अरु) और ( पचीसों दोष) पच्चीस दोषों को (संक्षेपै) संक्षेप में (कहिये) कहा जाता है; क्योंकि (बिन जानें तैं उन्हें जाने बिना (दोष) दोषों को (कैसे) किस प्रकार ( तजिये) छोड़ें और (गुननकों) गुणों को किस प्रकार ( गहिये) ग्रहण करें?
भावार्थ :- आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म - स्थान) और आठ शंकादि दोष - इसप्रकार सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं। संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यग्दृष्टि को होते हैं। सम्यक्त्व के अभिलाषी जीव को सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों का त्याग करके उन भावनाओं में मन लगाना चाहिए। अब सम्यक्त्व के आठ गुणों (अंगों) और पच्चीस दोषों का संक्षेप में वर्णन किया जाता है; क्योंकि जाने और समझे बिना दोषों को कैसे छोड़ा जा सकता है तथा गुणों को कैसे ग्रहण किया जा सकता है ? ।। ११ ।।
१. अन्+आयतन अनायतन धर्म का स्थान न होना।
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सम्यक्त्व आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषों का लक्षण जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख- वांछा भानै । मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व - कुतत्त्व पिछानै ।। निज गुण अरु पर औगुण ढाँके, वा निजधर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-पर को सु दिढ़ावे ।। १२ ।।
छन्द १३ (पूर्वार्द्ध)
धर्मी सों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै; इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै ।
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___ अन्वयार्थ :- १. (जिन वच में) सर्वज्ञदेव के कहे हुए तत्त्वों में (शंका) संशय-सन्देह (न धार) धारण नहीं करना [सो निःशंकित अंग है]; २. (वृष) धर्म को (धार) धारण करके (भव-सुख-वांछा) सांसारिक सुखों की इच्छा (भान) न करे [सो निःकांक्षित अंग है]; ३. (मुनि-तन) मुनियों के शरीरादि (मलिन) मैले (देख) देखकर (न घिनावै) घृणा न करना [सो निर्विचिकित्सा अंग है]; ४. (तत्त्व-कुतत्त्व) सच्चे और झूठे तत्त्वों की (पिछानै) पहिचान रखे [सो अमूढदृष्टि अंग है]; ५. (निजगुण) अपने गुणों को (अरु) और (पर औगुण) दूसरे के अवगुणों को (ढाँके) छिपाये (वा) तथा (निजधर्म) अपने आत्मधर्म को (बढ़ावै) बढ़ाये अर्थात् निर्मल बनाये [सो उपगूहन अंग है]; ६. (कामादिक कर) काम-विकारादि के कारण (वृषः) धर्म से (चिगते) च्युत होते हुए (निज-पर को) अपने को तथा पर को (सु दिढ़ावै) उसमें पुनः दृढ़ करे सो स्थितिकरण अंग है]; ७.(धर्मी सों) अपने साधर्मीजनों से (गौवच्छ-प्रीति-सम) बछड़े पर गाय की प्रीति के समान (कर) प्रेम रखना [सो वात्सल्य अंग है] और ८. (जिनधर्म) जैनधर्म की (दिपावै) शोभा में वृद्धि करना [सो प्रभावना अंग है।] (इन गुण ) इन [आठ] गुणों से (विपरीत) उल्टे (वसु) आठ (दोष) दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर करना चाहिए।
भावार्थ :- (१) तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है तथा अन्य प्रकार से नहीं है - इसप्रकार यथार्थ तत्त्वों में अचल श्रद्धा होना, सो निःशंकित अंग कहलाता है।
टिप्पणी :- अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव भोगों को कभी भी आदरणीय नहीं मानते; किन्तु जिसप्रकार कोई बन्दी कारागृह में (इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है, उसीप्रकार वे अपने पुरुषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किन्तु रुचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित
और नि:कांक्षित अंग होने में कोई बाधा नहीं आती। (२) धर्म सेवन करके उसके बदले में सांसारिक सुखों की इच्छा न करना,
उसे निःकांक्षित अंग कहते हैं।
(३) मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्मा के शरीर को मैला देखकर घृणा
न करना, उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते हैं। (४) सच्चे और झूठे तत्त्वों की परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा अनायतनों में न
फँसना वह अमूढदृष्टि अंग है। (५) अपनी प्रशंसा करानेवाले गुणों को तथा दूसरे की निंदा कराने वाले दोषों को
ढंकना और आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना), सो उपगूहन अंग है। टिप्पणी :- उपगूहन का दूसरा नाम "उपवृंहण” भी जिनागम में आता है; जिससे आत्मधर्म में वृद्धि करने को भी उपगूहन कहा जाता है। श्री अमृतचन्द्रसूरि ने अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के २७वें श्लोक में भी यही कहा है :
धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया।
परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपवृंहगुणार्थम् ।।२७ ।। (६) काम, क्रोध, लोभ आदि किसी भी कारण से (सम्यक्त्व और चारित्र
से) भ्रष्ट होते हुए अपने को तथा पर को धर्म में उसमें स्थिर करना
स्थितिकरण अंग है। (७) अपने साधर्मी जन पर बछड़े से प्यार रखनेवाली गाय की भाँति निरपेक्ष
प्रेम रखना, सो वात्सल्य अंग है। (८) अज्ञान-अन्धकार को दूर विद्या-बल-बुद्धि आदि के द्वारा शास्त्र में कही
हुई योग्य रीति से अपने सामर्थ्यानुसार जैनधर्म का प्रभाव प्रकट करना, वह प्रभावना अंग है। - इन अंगों (गुणों) से विपरीत १. शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. मूढदृष्टि, ५. अनुपगूहन, ६. अस्थितिकरण, ७. अवात्सल्य और ८. अप्रभावना - ये सम्यक्त्व के आठ दोष हैं। इन्हें सदा दूर करना चाहिए। (१२-१३ पूर्वार्द्ध)
छन्द १३ (उत्तरार्द्ध)
मद नामक दोष के आठ प्रकार पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठाने । मद न रूपकी मद न ज्ञानको, धन बलको मद भानै ।।१३।।
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छन्द १४ (पूर्वार्द्ध)
तपकौ मदन मद जु प्रभुताको, करै न सो निज जानै । मद धारै तौ यही दोष वसु समकितकौ मल ठानै ।।
छहढाला
अन्वयार्थ :- [जो जीव] (जो) यदि (पिता) पिता आदि पितृपक्ष के स्वजन (भूप) राजादि (होय) हों (तो) तो (मद) अभिमान (न ठाने) नहीं करता, [यदि] (मातुल) मामा आदि मातृपक्ष के स्वजन (नृप) राजादि (हो) हों तो (मद) अभिमान (न) नहीं करता; (ज्ञानकौ) विद्या का (मदन) अभिमान नहीं करता; (धनकौ) लक्ष्मी का (मद भानै) अभिमान नहीं करता; (बलकौ ) शक्ति का (मद भानै) अभिमान नहीं करता; ( तपकी) तप का (मद न ) अभिमान नहीं करता; (जु) और (प्रभुता कौ) ऐश्वर्य, बड़प्पन का (मद न करै) अभिमान नहीं करता (सो) वह (निज) अपने आत्मा को (जाने) जानता है। [यदि जीव उनका] (मद) अभिमान (धारै) रखता है तो (यही) ऊपर कहे हुए मद (वसु) आठ (दोष) दोषरूप होकर (समकितकौ) सम्यक्त्व को- सम्यग्दर्शन को (मल) दूषित (ठानै) करते हैं।
भावार्थ:- पिता के गोत्र को कुल और माता के गोत्र को जाति कहते हैं । (१) पिता आदि पितृपक्ष में राजादि प्रतापी पुरुष होने से ( मैं राजकुमार हूँ, आदि)
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अभिमान करना, सो कुल-मद है। (२) मामा आदि मातृपक्ष में राजादि प्रतापी पुरुष होने का अभिमान करना, सो जाति - मद है (३) शारीरिक सौन्दर्य का मद करना, सो रूप - मद है । (४) अपनी विद्या का अभिमान करना, सो ज्ञान - मद है । (५) अपनी धन-सम्पत्ति का अभिमान करना, सो धन-मद है। (६) अपनी शारीरिक शक्ति का गर्व करना, सो बल मद है (७) अपने व्रत-उपवासादि तप का गर्व करना, सो तप-मद है, तथा (८) अपने बड़प्पन और आज्ञा का गर्व करना, सो प्रभुता - मद है । कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और प्रभुता - ये आठ मद - दोष कहलाते हैं। जो जीव इन आठ का गर्व नहीं करता, वही आत्मा का ज्ञान कर सकता है । यदि उनका गर्व करता है तो ये मद सम्यग्दर्शन के आठ दोष बनकर उसे दूषित करते हैं । (१३ उत्तरार्द्ध तथा १४ पूर्वार्द्ध) । छन्द १४ ( उत्तरार्द्ध)
छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष
कुगुरु- कुदेव - कुवृष सेवक की नहिं प्रशंस उचर है। जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हेँ न नमन करै है ।। १४ ।। अन्वयार्थ :- [ सम्यग्दृष्टि जीव] (कुगुरु-कुदेव- कुवृष सेवक की कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की तथा उनके सेवक की ( प्रशंस) प्रशंसा ( नहिं उचरै है ) नहीं करता । (जिन) जिनेन्द्रदेव ( मुनि) वीतरागी मुनि [ और ] (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन) के अतिरिक्त [ जो ] ( कुगुरादि) कुगुरु, कुदेव, कुधर्म हैं (तिन्हें) उन्हें (नमन) नमस्कार (न करे है) नहीं करता ।
भावार्थ :- कुगुरु, कुदेव, कुधर्म; कुगुरु सेवक, कुदेव सेवक तथा कुधर्म सेवक - ये छह अनायतन (धर्म के अस्थान) दोष कहलाते हैं। उनकी भक्ति, विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता; क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व में दोष लगता है। सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतरागी मुनि और जिनवाणी के अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादि को (भय, आशा, लोभ और स्नेह आदि के कारण भी) नमस्कार नहीं करता; क्योंकि उन्हें नमस्कार करने मात्र से भी सम्यक्त्व दूषि
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हो जाता है। कुगुरु-सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा - ये तीन भी सम्यक्त्व के मूढ़ता नामक दोष हैं।१४ ।
अव्रती सम्यग्दृष्टि की देवों द्वारा पूजा और गृहस्थपने में अप्रीति दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यग्दरश सजे हैं। चरितमोह वश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं।। गेही, पै गृह में न रचें ज्यों, जलते भिन्न कमल है। नगर नारिको प्यार यथा, कादे में हेम अमल है।।१५।।
पानी से अलिप्त रहता है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि घर में रहते हुए भी गृहस्थदशा में लिप्त नहीं होता, उदासीन (निर्मोह) रहता है। जिसप्रकार वेश्या का प्रेम मात्र पैसे से ही होता है, मनुष्य पर नहीं होता; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि का प्रेम सम्यक्त्व में ही होता है, किन्तु गृहस्थपने में नहीं होता। तथा जिसप्रकार सोना कीचड़ में पड़े रहने पर भी निर्मल रहता है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थदशा में रहने पर भी उसमें लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह उसे त्याज्य (त्यागने योग्य) मानता है।' सम्यक्त्व की महिमा, सम्यग्दृष्टि के अनुत्पत्ति स्थान तथा
सर्वोत्तम सुख और सर्व धर्म का मूल प्रथम नरक विन षट् भूज्योतिष वान भवन षंड नारी। थावर विकलत्रय पशु में नहि, उपजत सम्यक् धारी ।। तीनलोक तिहुँकाल माहिं नहि, दर्शन सो सुखकारी। सकल धर्म को मूल यही, इस विन करनी दुखकारी ।।१६ ।।
अन्वयार्थ :- (जे) जो (सुधी) बुद्धिमान पुरुष [ऊपर कहे हुए] (दोष रहित) पच्चीस दोषरहित [तथा] (गुणसहित) निःशंकादि आठ गुणों सहित (सम्यग्दरश) सम्यग्दर्शन से (सजै हैं) भूषित हैं [उन्हें] (चरितमोह वश) अप्रत्याख्यानावरणीय चारित्रमोहनीय कर्म के उदयवश (लेश) किंचित् भी (संजम) संयम (न) नहीं है (पै) तथापि (सुरनाथ) देवों के स्वामी इन्द्र [उनकी] (जजै हैं) पूजा करते हैं; [यद्यपि वे] (गेही) गृहस्थ हैं (पै) तथापि (गृह में) घर में (न रचे) नहीं राचते। (ज्यों) जिसप्रकार (कमल) कमल (जलते) जल से (भिन्न) भिन्न है, [तथा] (यथा) जिसप्रकार (कादे में) कीचड़ में (हेम) सुवर्ण (अमल है) शुद्ध रहता है, [उसीप्रकार उनका घर में] (नगर नारिको) वेश्या के (प्यार यथा) प्रेम की भाँति (प्यार) प्रेम होता है । ___ भावार्थ :- जो विवेकी पच्चीस दोष रहित तथा आठ अंग (आठ गुण) सहित सम्यग्दर्शन धारण करते हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के तीव्र उदय से युक्त होने के कारण, यद्यपि संयमभाव लेशमात्र नहीं होता; तथापि इन्द्रादि उनकी पूजा (आदर) करते हैं। जिसप्रकार पानी में रहने पर भी कमल
अन्वयार्थ :- (सम्यक्धारी) सम्यग्दृष्टि जीव (प्रथम नरक विन) पहले नरक के अतिरिक्त (षट् भू) शेष छह नरकों में - (ज्योतिष) ज्योतिषी देवों
१. यहाँ वेश्या के प्रेम से मात्र अलिप्तता की तुलना की गई है। २. विषयासक्तः अपि सदा सर्वारम्भेषु वर्तमानः अपि ।
मोहविलासः एषः इति सर्व : मन्यते हेयम् ।।३४१।। (स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा) ३. रोगी का औषधिसेवन और बन्दी का कारागृह भी इसके दृष्टान्त हैं।
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"दौल" समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै । यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवे ।।१७।।
में, (वान) व्यंतर देवों में, (भवन) भवनवासी देवों में (पंड) नपुंसकों में, (नारी) स्त्रियों में, (थावर) पाँच स्थावरों में, (विकलत्रय) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय
और चतुरिन्द्रिय जीवों में तथा (पशु में ) कर्मभूमि के पशुओं में (नहिं उपजत) उत्पन्न नहीं होते। (तीन लोक) तीनलोक (तिहुँकाल माहि) तीनकाल में (दर्शन सो) सम्यग्दर्शन के समान (सुखकारी) सुखदायक (नहिं) अन्य कुछ नहीं है, (यही) यह सम्यग्दर्शन ही (सकल धरम को) समस्त धर्मों का (मूल) मूल है; (इस विन) इस सम्यग्दर्शन के बिना (करनी) समस्त क्रियाएँ (दुःखकारी) दुःखदायक हैं। ___ भावार्थ :- सम्यग्दृष्टि जीव आयु पूर्ण होने पर जब मृत्यु प्राप्त करते हैं, तब दूसरे से सातवें नरक के नारकी, ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी, नपुंसक, सब प्रकार की स्त्री, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कर्मभूमि के पशु नहीं होते; (नीच कुल वाले, विकृत अंगवाले, अल्पायुवाले तथा दरिद्री नहीं होते) विमानवासी देव, भोगभूमि के मनुष्य अथवा तिर्यंच ही होते हैं। कर्मभूमि के तिर्यंच भी नहीं होते । कदाचित् 'नरक में जायें तो पहले नरक से नीचे नहीं जाते । तीनलोक और तीनकाल में सम्यग्दर्शन के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है। यह सम्यग्दर्शन ही सर्व धर्मों का मूल है। इसके अतिरिक्त जितने क्रियाकाण्ड हैं, वे दुःखदायक हैं।
___ सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र का मिथ्यापना मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा।
सम्यकता न लहै, सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा ।। १. ऐसी दशा में सम्यग्दृष्टि प्रथम नरक के नपुंसकों में भी उत्पन्न होता है; उनसे भिन्न अन्य
नपुंसकों में उसकी उत्पत्ति होने का निषेध है।
टिप्पणी :- जिसप्रकार श्रेणिक राजा सातवें नरक की आयु का बन्ध करके, फिर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए थे; उससे यद्यपि उन्हें नरक में तो जाना ही पड़ा, किन्तु आयु सातवें नरक से घटकर पहले नरक की ही रही। इसप्रकार जो जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करने से पूर्व तिर्यंच अथवा मनुष्य आयु का बन्ध करते हैं, वे भोगभूमि में जाते हैं; किन्तु कर्मभूमि में तिर्यंच अथवा मनुष्यरूप में उत्पन्न नहीं होते।
अन्वयार्थ :- [यह सम्यग्दर्शन] (मोक्षमहल की) मोक्षरूपी महल की (परथम) प्रथम (सीढ़ी) सीढ़ी है; (या बिन) इस सम्यग्दर्शन के बिना (ज्ञान चरित्रा) ज्ञान और चारित्र (सम्यकता) सच्चाई (न लहै) प्राप्त नहीं करते; इसलिये (भव्य) हे भव्य जीवो ! (सो) ऐसे (पवित्रा) पवित्र (दर्शन) सम्यग्दर्शन को (धारो) धारण करो। (सयाने 'दोल') हे समझदार दौलतराम! (सुन) सुन, (समझ) समझ और (चेत) सावधान हो, (काल) समय को (वृथा) व्यर्थ (मत खोवै) न गँवा; क्योंकि] (जो) यदि (सम्यक्) सम्यग्दर्शन (नहिं होवै) नहीं हुआ तो (यह) यह (नर भव) मनुष्य पर्याय (फिर) पुनः (मिलन) मिलना (कठिन है) दुर्लभ है।
भावार्थ :- यह 'सम्यग्दर्शन ही मोक्षरूपी महल में पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन न हो, तब तक ज्ञान वह मिथ्याज्ञान और चारित्र वह मिथ्याचारित्र कहलाता है, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र नहीं कहलाते । इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को ऐसा पवित्र सम्यग्दर्शन अवश्य धारण करना चाहिए। पण्डित दौलतरामजी अपने आत्मा को सम्बोध कर कहते हैं कि - हे विवेकी आत्मा! तू ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शन के स्वरूप को स्वयं सुनकर अन्य अनुभवी
१. सम्यग्दृष्टि जीव की, निश्चय कुगति न होय।
पूर्वबन्ध तैं होय तो सम्यक् दोष न कोय ।।
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तीसरी ढाल
ज्ञानियों से प्राप्त करने में सावधान हो; अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को व्यर्थ न गँवा । इस जन्म में ही यदि सम्यक्त्व प्राप्त न किया तो फिर मनुष्यपर्याय आदि अच्छे योग पुनः पुनः प्राप्त नहीं होते ।१७।
तीसरी ढाल का सारांश आत्मा का कल्याण सुख प्राप्त करने में है। आकुलता का मिट जाना, वह सच्चा सुख है। मोक्ष ही सुखस्वरूप है; इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना चाहिए।
सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र - इन तीनों की एकता, सो मोक्षमार्ग है। उसका कथन दो प्रकार से है। निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो वास्तव में मोक्षमार्ग है और व्यवहार-सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र वह मोक्षमार्ग नहीं है, किन्तु वास्तव में बन्धमार्ग है; लेकिन निश्चयमोक्षमार्ग में सहचर होने से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है। __ आत्मा की परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ श्रद्धान, सो निश्चयसम्यग्दर्शन है और परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ ज्ञान, सो निश्चयसम्यग्ज्ञान है। परद्रव्यों का आलम्बन छोड़कर आत्मस्वरूप में लीन होना, सो निश्चयसम्यक्चारित्र है। सातों तत्त्वों का यथावत् भेदरूप अटल श्रद्धान करना, सो व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है । यद्यपि सात तत्त्वों के भेद की अटल श्रद्धा शुभराग होने से वह वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं है, किन्तु निचली दशा में (चौथे, पाँचवें और छठवें गुणस्थान में) निश्चयसम्यक्त्व के साथ सहचर होने से वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है।
आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष - ये सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं तथा निःशंकितादि आठ सम्यक्त्व के अंग (गुण) हैं; उन्हें भलीभाँति जानकर दोष का त्याग तथा गुण का ग्रहण करना चाहिए।
जो विवेकी जीव निश्चयसम्यक्त्व को धारण करता है; उसे जब तक निर्बलता है, तब तक पुरुषार्थ की मन्दता के कारण यद्यपि किंचित् संयम नहीं
होता, तथापि वह इन्द्रादि के द्वारा पूजा जाता है। तीनलोक और तीनकाल में निश्चयसम्यक्त्व के समान सुखकारी अन्य कोई वस्तु नहीं है। सर्व धर्मों का मूल, सार तथा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी यह सम्यक्त्व ही है; उसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते, किन्तु मिथ्या कहलाते हैं।
आयुष्य का बन्ध होने से पूर्व सम्यक्त्व धारण करनेवाला जीव मृत्यु के पश्चात् दूसरे भव में नारकी, ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी, नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग, नीच गोत्रवाला, अल्पायु तथा दरिद्री नहीं होता । मनुष्य
और तिर्यंच सम्यग्दृष्टि मरकर वैमानिक देव होता है देव और नारकी सम्यग्दृष्टि मरकर कर्मभूमि में उत्तम क्षेत्र में मनुष्य ही होता है। यदि सम्यग्दर्शन होने से पूर्व -१ देव, २ मनुष्य, ३ तिर्यंच या ४ नरकायु का बन्ध हो गया हो तो वह मरकर १ वैमानिक देव, २ भोगभूमि का मनुष्य,३ भोगभूमि का तिर्यंच अथवा ४ प्रथम नरक का नारकी होता है। इससे अधिक नीचे के स्थान में जन्म नहीं होता । इसप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन की अपार महिमा है।
इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को सत् शास्त्रों का स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, सत्समागम तथा यथार्थ तत्त्वविचार द्वारा निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि यदि इस मनुष्यभव में निश्चयसम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया तो पुनः मनुष्यपर्याय प्राप्ति आदि का सुयोग मिलना कठिन है।
तीसरी ढाल का भेद-संग्रह अचेतन द्रव्य :- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ।
चेतन एक, अचेतन पाँचों, रहें सदा गुण-पर्ययवान ।
केवल पुद्गल रूपवान है, पाँचों शेष अरूपी जान ।। अंतरंग परिग्रह :- १ मिथ्यात्व, ४ कषाय, ९ नोकषाय । आस्रव :
५ मिथ्यात्व, १२ अविरति, २५ कषाय, १५ योग । कारण:
उपादान और निमित्त।
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तीसरी ढाल
द्रव्यकर्म :- ज्ञानावरणादि आठ। नोकर्म :
औदारिक, वैक्रियिक और आहारकादि शरीर । परिग्रह :- अन्तरंग और बहिरंग। प्रमाद :
४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय, १ निद्रा, १ प्रणय
(स्नेह)। बहिरंग परिग्रह :- क्षेत्र, मकान, सोना, चाँदी, धन, धान्य, दासी, दास,
वस्त्र और बर्तन - ये दस हैं। भावकर्म :- मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोधादि। मद:
आठ प्रकार के हैं :जाति लाभ कुल रूप तप, बल विद्या अधिकार।
इनको गर्व न कीजिये, ये मद अष्ट प्रकार ।। मिथ्यात्व :- विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान । रस :
खारा, खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कषायला। रूप:
(रंग) - काला, पीला, नीला, लाल और सफेद -
ये पाँच रूप हैं। स्पर्श :
हलका, भारी, रूखा, चिकना, कड़ा, कोमल, ठण्डा
गर्म - ये आठ स्पर्श हैं।
तीसरी ढाल का लक्षण-संग्रह अनायतन:- कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और इन तीनों के सेवक - ये
छहो अधर्म के स्थानक। अनायतन दोष :- सम्यक्त्व का नाश करनेवाले कुदेवादि की प्रशंसा
करना। अनुकम्पा :- प्राणी मात्र पर दया का भाव। अरिहन्त :- चार घातिकर्मों से रहित, अनन्तचतुष्टय सहित वीतराग
और केवलज्ञानी परमात्मा। अलोक :- जहाँआकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहीं है, वहस्थान। अविरति :- पापों में प्रवृत्ति अर्थात् १. निर्विकार स्वसंवेदन से
विपरीत अव्रत परिणाम, २. छह काय (पाँचों स्थावर तथा एक त्रसकाय) जीवों की हिंसा के त्यागरूप भाव न होना तथा पाँच इन्द्रिय और मन के विषयों में प्रवृत्ति
करना - ऐसे बारह प्रकार अविरति है। अविरति सम्यग्दृष्टि :- सम्यग्दर्शन सहित, किन्तु व्रतरहित - ऐसे चौथे
गुणस्थानवी जीव। आस्तिक्य :- जीवादि छह द्रव्य, पुण्य और पाप, संवर, निर्जरा,
मोक्ष तथा परमात्मा के प्रति विश्वास, सो आस्तिक्य
कहलाता है। कषाय:
जो आत्मा को दुःख दे, गुणों के विकास को रोके तथा परतंत्र करे, वह । यानी मिथ्यात्व तथा क्रोध,
मान, माया और लोभ - ये कषायभाव हैं। गुणस्थान :- मोह और योग के सद्भाव या अभाव से आत्मा के
गुणों (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की हीनाधिकतानुसार होनेवाली अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं।
(वरांगचरित्र, पृष्ठ ३६२)। घातिया :- अनन्त चतुष्टय को रोकने में निमित्तरूप कर्म को घातिया
कहते हैं। चारित्रमोह :- आत्मा के चारित्र को रोकने में निमित्त, सो मोहनीयकर्म । जिनेन्द्र :- चार घातिया कर्मों को जीतकर केवलज्ञानादि अनन्त
चतुष्टय प्रकट करनेवाले १८ दोषरहित परमात्मा। देवमूढ़ता :- भय, आशा, स्नेह, लोभवश रागी-द्वेषी देवों की
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तीसरी ढाल
देशवती:
निमित्तकारण :
नोकर्म :
पाखंडी मूढ़ता :
पुद्गल :
सेवा करना अथवा वंदन-नमस्कार करना। श्रावक के व्रतों को धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि, पाँचवें गुणस्थान में वर्तनेवाले जीव। जो स्वयं कार्यरूप परिणमित न हो, किन्तु कार्य की उत्पत्ति के समय उपस्थित रहे, वह कारण ।
औदारिकादि पाँच शरीर तथा छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणु नोकर्म कहलाते हैं। रागी-द्वेषी और वस्त्रादि परिग्रहधारी, झूठे तथा कुलिंगी साधुओं की सेवा करना अथवा वंदन-नमस्कार करना। जो पुरे और गले । परमाणु बन्धस्वभावी होने से मिलते हैं तथा पृथक् होते हैं, इसलिये वे पुद्गल कहलाते हैं। अथवा जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो; वह पुद्गल है। स्वरूप में असावधानीपूर्वक प्रवृत्ति अथवा धार्मिक कार्यों में अनुत्साह। अनन्तानुबन्धी कषाय के अन्तपूर्वक शेष कषायों का अंशतः मन्द होना, सो। (पंचाध्यायी भाग २, गाथा ४२८)
अहंकार, घमण्ड, अभिमान।। मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि जीव के मलिन भाव । तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा करनेवाले। धर्म समझकर जलाशयों में स्नान करना तथा रेत, पत्थर आदि का ढेर बनाना - आदि कार्य । जो धर्म अमुक विशिष्ट द्रव्य में रहे, उसे विशेष धर्म
कहते हैं। शुद्धोपयोग :- शुभ और अशुभ राग-द्वेष की परिणति से रहित
सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित चारित्र की स्थिरता। सामान्य गुण:- सर्व द्रव्यों में समानता से विद्यमान गुणों को सामान्य
कहते हैं। सामान्य:- प्रत्येक वस्तु में त्रैकालिक द्रव्य-गुणरूप, अभेद
एकरूप भाव को सामान्य कहते हैं। सिद्ध :
आठ गुणों सहित तथा आठ कर्मों एवं शरीर रहित परमेष्ठी । (व्यवहार से मुख्य आठ गुण और निश्चय से
अनन्त गुण प्रत्येक सिद्ध परमात्मा में हैं। संवेग :
संसार से भय होना और धर्म तथा धर्म के फल में परम उत्साह होना । साधर्मी और पंचपरमेष्ठी में प्रीति
को भी संवेग कहते हैं। निर्वेद :
संसार, शरीर और भोगों में सम्यक् प्रकार से उदासीनता अर्थात् वैराग्य।
अन्तर-प्रदर्शन (१) जीव के मोह-राग-द्वेषरूप परिणाम, वह भाव-आस्रव है और उस
परिणाम में स्निग्धता, वह भावबन्ध है। (२) अनायतन में तो कुदेवादि की प्रशंसा की जाती है, किन्तु मूढ़ता में तो
उनकी सेवा, पूजा और विनय करते हैं। (३) माता के वंश को जाति और पिता के वंश को कुल कहा जाता है। (४) धर्मद्रव्य तो छह द्रव्यों में से एक द्रव्य है और धर्म वह वस्तु का स्वभाव
अथवा गुण है। (५) निश्चयनय वस्तु के यथार्थस्वरूप को बतलाता है। व्यवहारनय स्वद्रव्य
प्रमाद :
प्रशम :
मद :भावकर्म :मिथ्यादृष्टि :लोकमूढ़ता :
विशेष धर्म :-
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तीसरी ढाल
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परद्रव्य का अथवा उनके भावों का अथवा कारण-कार्यादिक का किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है। ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है,
इसलिये उसका त्याग करना चाहिए। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, अध्याय ७) (६) निकल (शरीर रहित) परमात्मा आठों कर्मों से रहित हैं और सकल
(शरीर सहित) परमात्मा को चार अघातिकर्म होते हैं। (७) सामान्य धर्म अथवा गुण तो अनेक वस्तुओं में रहता है, किन्तु विशेष
धर्म या विशेष गुण तो अमुक खास वस्तु में ही होता है। (८) सम्यग्दर्शन अंगी है और निःशंकित अंग उसका एक अंग है।
तीसरी ढाल की प्रश्नावली (१) अजीव, अधर्म, अनायतन, अलोक, अन्तरात्मा, अरिहन्त, आकाश,
आत्मा, आस्रव, आठ अंग, आठ मद, उत्तम अन्तरात्मा, उपयोग, कषाय, काल, कुल, गन्ध, चारित्रमोह, जघन्य अन्तरात्मा, जाति, जीव, मद, देवमूढ़ता, द्रव्यकर्म, निकल, निश्चयकाल, सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र, मोक्षमार्ग, निर्जरा, नोकर्म, परमात्मा, पाखंडी मूढ़ता, पुद्गल, बहिरात्मा, बन्ध, मध्यम अन्तरात्मा, मूढ़ता, मोक्ष, रस, रूप लोकमूढ़ता, विशेष, विकलत्रय, व्यवहारकाल, सम्यग्दर्शन, शम, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र, सुख, सकल परमात्मा, संवर, संवेग, सामान्य, सिद्ध तथा स्पर्श आदि के लक्षण बतलाओ।
अनायतन और मूढ़ता में, जाति और कुल में, धर्म और धर्मद्रव्य में, निश्चय और व्यवहार में, सकल और निकल में, निःकांक्षित और निःशंकित अंग में तथा सामान्य गुण और विशेष गुण आदि में क्या
अन्तर है? (३) अणुव्रती का आत्मा, आत्महित, चेतन द्रव्य, निराकुल दशा अथवा
स्थान, सात तत्त्व, उनका सार, धर्म का मूल, सर्वोत्तम धर्म, सम्यग्दृष्टि
को नमस्कार के अयोग्य तथा हेय-उपादेय तत्त्वों के नाम बतलाओ। (४) अघातिया, अंग, अजीव, अनायतन, अन्तरात्मा, अन्तरंग-परिग्रह,
अमर्तिक द्रव्य, आकाश, आत्मा, आस्रव, कर्म, कषाय, कारण, कालद्रव्य, गंध, घातिया, जीवतत्त्व, द्रव्य, दुःखदायक भाव, द्रव्यकर्म, नोकर्म, परमात्मा, परिग्रह, पुद्गल के गुण, भावकर्म, प्रमाद, बहिरंग परिग्रह, मद, मिथ्यात्व, मूढ़ता, मोक्षमार्ग, योग, रूपी द्रव्य, रस, वर्ण,
सम्यक्त्व के दोष और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भेद बतलाओ। (५) तत्त्वज्ञान होने पर भी असंयम, अव्रती की पूज्यता, आत्मा के दुःख,
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा सम्यग्दृष्टि का कुदेवादि को नमस्कार न करना - आदि के कारण बतलाओ। अमूर्तिक द्रव्य, परमात्मा के ध्यान से लाभ, मुनि का आत्मा, मूर्तिक द्रव्य, मोक्ष का स्थान और उपाय, बहिरात्मपने के त्याग का कारण; सच्चे सुख का उपाय और सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति न होनेवाले स्थान -
इनका स्पष्टीकरण करो। (७) अमुक पद, चरण अथवा छन्द का अर्थ तथा भावार्थ बतलाओ;
तीसरी ढाल का सारांश सुनाओ। आत्मा, मोक्षमार्ग, जीव, छह द्रव्य और सम्यक्त्व के दोष पर लेख लिखो।
(६) अमति
दर्शन-स्तुति निरखत जिनचन्द्र-वदन स्व-पद सुरुचि आई। प्रकटी निज आन की पिछान ज्ञान भान की। कला उद्योत होत काम-जामनी पलाई । निरखत. ।। शाश्वत आनन्द स्वाद पायो विनस्यो विषाद। आन में अनिष्ट-इष्ट कल्पना नसाई । निरखत. ।। साधी निज साध की समाधि मोह-व्याधि की। उपाधि को विराधि कैं आराधना सुहाई ।।निरखत. ।। धन दिन छिन आज सुगुनि चिन्तै जिनराज अबै। सुधरो सब काज 'दौल' अचल रिद्धि पाई ।।निरखत. ।।
-पं. दौलतराम
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चौथी ढाल
सम्यग्ज्ञान का लक्षण और उसका समय
(दोहा)
सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान । स्व-पर अर्थ बहु धर्मजुत, जो प्रकटावन भान ।। १ ।।
अन्वयार्थ :- (सम्यक् श्रद्धा) सम्यग्दर्शन (धारि) धारण करके (पुनि) फिर (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान का (सेवहु ) सेवन करो; [जो सम्यग्ज्ञान] (बहु धर्मजुत) अनेक धर्मात्मक (स्वपर अर्थ ) अपना और दूसरे पदार्थों का (प्रकटावन) ज्ञान कराने में (भान ) सूर्य समान है।
भावार्थ:- सम्यग्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञान को दृढ़ करना चाहिए। जिसप्रकार सूर्य समस्त पदार्थों को तथा स्वयं अपने को यथावत् दर्शाता है, उसीप्रकार जो अनेक धर्मयुक्त स्वयं अपने को (आत्मा को ) तथा पर पदार्थों को' ज्यों का त्यों बतलाता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में अन्तर
(रोला छन्द)
सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ । लक्षण श्रद्धा जान, दुहू में भेद अबाधी ।।
१. स्वापूर्वार्धव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।
(प्रमेयरत्नमाला, प्र. उ. सूत्र - १ )
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चौथी ढाल
सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपत् होते हू, प्रकाश दीपकतैं होई ।। २ ।।
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अन्वयार्थ :(सम्यक् साथै) सम्यग्दर्शन के साथ (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (होय) होता है (पै) तथापि [ उन दोनों को ] ( भिन्न भिन्न (अराधौ) समझना चाहिए; क्योंकि (लक्षण) उन दोनों के लक्षण [क्रमशः ] (श्रद्धा) श्रद्धा करना और (जान) जानना है तथा (सम्यक् ) सम्यग्दर्शन (कारण) कारण है और (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (कारज) कार्य है। (सोई) यह भी (दुहू में) दोनों में (भेद) अन्तर (अबाधौ) निर्बाध है। [जिसप्रकार] (युगपत्) एकसाथ (होते हू) होने पर भी (प्रकाश) उजाला (दीपक) दीपक की ज्योति से ( होई) होता है, उसीप्रकार ।
भावार्थ :- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान यद्यपि एकसाथ प्रकट होते हैं, तथापि वे दोनों भिन्न-भिन्न गुणों की पर्यायें हैं। सम्यग्दर्शन श्रद्धागुण की शुद्धपर्याय है और सम्यग्ज्ञान ज्ञानगुण की शुद्धपर्याय है। पुनश्च सम्यग्दर्शन का लक्षण विपरीत अभिप्राय रहित तत्त्वार्थश्रद्धा है और सम्यग्ज्ञान का लक्षण संशय ' आदि दोष रहित स्व-पर का यथार्थतया निर्णय है - इसप्रकार दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं।
तथा सम्यग्दर्शन निमित्तकारण है और सम्यग्ज्ञान नैमित्तिक कार्य है - इसप्रकार उन दोनों में कारण-कार्यभाव से भी अन्तर है।
१. संशय, विमोह, (विभ्रम-विपर्यय) अनिर्धार (अनध्यवसाय) ।
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छहढाला
चौथी ढाल
देशप्रत्यक्ष (है) हैं; क्योंकि उन ज्ञानों से] (जिय) जीव (द्रव्य क्षेत्र परिमाण) द्रव्य और क्षेत्र की मर्यादा (लिये) लेकर (स्वच्छा) स्पष्ट (जा.) जानता है।
भावार्थ :- इस सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं - (१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं, क्योंकि वे दोनों ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से वस्तु को अस्पष्ट जानते हैं । सम्यक्मति-श्रुतज्ञान स्वानुभवकाल में प्रत्यक्ष होते हैं, उनमें इन्द्रिय और मन निमित्त नहीं हैं। अवधिज्ञान और
प्रश्न :- ज्ञान-श्रद्धान तो युगपत् (एकसाथ) होते हैं तो उनमें कारणकार्यपना क्यों कहते हो?
उत्तर :- “वह हो तो वह होता हैं" - इस अपेक्षा से कारण-कार्यपना कहा है। जिसप्रकार दीपक और प्रकाश दोनों युगपत् होते हैं, तथापि दीपक हो तो प्रकाश होता है; इसलिये दीपक कारण है और प्रकाश कार्य है। उसीप्रकार ज्ञान-श्रद्धान भी हैं।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक (देहली) पृष्ठ १२६) जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता, तब तक का ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता। - ऐसा होने से सम्यग्दर्शन, वह सम्यग्ज्ञान का कारण है।'
सम्यग्ज्ञान के भेद, परोक्ष और देशप्रत्यक्ष के लक्षण तास भेद दो हैं, परोक्ष परतछि तिन माहिं। मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनसे उपजाहीं।। अवधिज्ञान मनपर्जय दो हैं देश-प्रतच्छा।
द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा ।।३।। अन्वयार्थ :- (तास) उस सम्यग्ज्ञान के (परोक्ष) परोक्ष और (परतछि) प्रत्यक्ष (दो) दो (भेद हैं) भेद हैं; (तिन माहि) उनमें (मति श्रुत) मतिज्ञान
और श्रुतज्ञान (दोय) ये दोनों (परोक्ष) परोक्षज्ञान हैं। क्योंकि वे] (अक्ष मनत) इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से (उपजाही) उत्पन्न होते हैं। (अवधिज्ञान) अवधिज्ञान और (मनपर्जय) मनःपर्ययज्ञान (दो) ये दोनों ज्ञान (देश-प्रतच्छा) १. पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य ।
लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः ।।३२ ।। सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः। ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तम्मात् ।।३३ ।। कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि। दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।।३४ ।।
- (श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव रचित पुरुषार्थसिद्धि-उपाय)
मनःपर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं, क्योंकि जीव इन दो ज्ञानों से रूपी द्रव्य को द्रव्य, क्षेत्र. काल और भाव की मर्यादापूर्वक स्पष्ट जानता है।
सकल-प्रत्यक्ष ज्ञान का लक्षण और ज्ञान की महिमा सकल द्रव्य के गुन अनंत, परजाय अनंता । जानैं एकै काल, प्रकट केवलि भगवन्ता ।। ज्ञान समान न आन जगत में सुख की कारन । इहि परमामृत जन्मजरामृति-रोग-निवारन ।।४।।
१. जो ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से वस्तु को अस्पष्ट जानता है, उसे परोक्षज्ञान
कहते हैं। २. जो ज्ञान रूपी वस्तु को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक स्पष्ट जानता है, उसे
देशप्रत्यक्ष कहते हैं।
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है। यह सम्यग्ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीन रोगों का नाश करने के लिए उत्तम अमृत-समान है।
ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश के विषय में अन्तर कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरै जे । ज्ञानी के छिन में त्रिगप्ति तैं सहज टरै ते ।।
अन्वयार्थ :- [जिस ज्ञान से] (केवलि भगवन्ता) केवलज्ञानी भगवान (सकल द्रव्य के) छहों द्रव्यों के (अनन्त) अपरिमित (गुन) गुणों को और (अनन्ता) अनन्त (परजाय) पर्यायों को (एकै काल) एक साथ (प्रकट) स्पष्ट (जानें) जानते हैं, [उस ज्ञान को] (सकल) सकल प्रत्यक्ष अथवा केवलज्ञान कहते हैं। (जगत में) इस जगत में (ज्ञान समान) सम्यग्ज्ञान जैसा (आन) दूसरा कोई पदार्थ (सुखकौ) सुख का (न कारन) कारण नहीं है। (इहि) यह सम्यग्ज्ञान ही (जन्मजरामृति-रोग-निवारन) जन्म, जरा [वृद्धावस्था] और मृत्युरूपी रोगों को दूर करने के लिए (परमामृत) उत्कृष्ट अमृत-समान है। ____ भावार्थ :- (१) जो ज्ञान तीनकाल और तीनलोकवर्ती सर्व पदार्थों (अनन्तधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को) प्रत्येक समय में यथास्थित, परिपूर्ण रूप से स्पष्ट और एकसाथ जानता है, उस ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं; जो सकल प्रत्यक्ष है।
(२) द्रव्य, गुण और पर्यायों को केवली भगवान जानते हैं, किन्तु उनके अपेक्षित धर्मों को नहीं जान सकते - ऐसा मानना असत्य है। तथा वे अनन्त को अथवा मात्र अपने आत्मा को ही जानते हैं, किन्तु सर्व को नहीं जानते - ऐसा मानना भी न्यायविरुद्ध है। केवली भगवान सर्वज्ञ होने से अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक वस्तु को प्रत्यक्ष जानते हैं।
(लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, प्रश्न - ८७) (३) इस संसार में सम्यग्ज्ञान के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं
मुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायौ ।।५।। अन्वयार्थ :- [अज्ञानी जीव को] (ज्ञान बिना) सम्यग्ज्ञान के बिना (कोटि जन्म) करोड़ों जन्मों तक (तप तपैं) तप करने से (जे कर्म) जितने कर्म (झरे) नाश होते हैं (ते) उतने कर्म (ज्ञानी के) सम्यग्ज्ञानी जीव के (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन और काय की ओर की प्रवृत्ति को रोकने से निर्विकल्प शुद्ध स्वभाव से] (छिन में) क्षणमात्र में (सहज) सरलता से (टर्न) नष्ट हो जाते हैं। [यह जीव] (मुनिव्रत) मुनियों के महाव्रतों को (धार) धारण करके (अनन्तबार) अनन्तबार (ग्रीवक) नववें ग्रैवेयक तक (उपजायो) उत्पन्न हुआ, (पै) परन्तु (निज आतम) अपने आत्मा के (ज्ञान बिना) ज्ञान बिना (लेश) किंचित्मात्र (सुख) सुख (न पायो) प्राप्त न कर सका।
भावार्थ :- मिथ्यादृष्टि जीव आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) के बिना करोड़ों जन्मों-भवों तक बालतप रूप उद्यम करके जितने कर्मों का नाश करता है, उतने कर्मों का नाश सम्यग्ज्ञानी जीव - स्वोन्मुख ज्ञातापने के कारण स्वरूपगुप्ति से - क्षणमात्र में सहज ही कर डालता है। यह जीव, मुनि के (द्रव्यलिंगी मुनि के) महाव्रतों को धारण करके उनके प्रभाव से नववें ग्रैवेयक तक के विमान में
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अनन्तबार उत्पन्न हुआ, परन्तु आत्मा के भेदविज्ञान (सम्यग्ज्ञान अथवा स्वानुभव) के बिना जीव को वहाँ भी लेशमात्र सुख प्राप्त नहीं हुआ।
ज्ञान के दोष और मनुष्यपर्याय आदि की दुर्लभता तातें जिनवर-कथित तत्त्व अभ्यास करीजे ।
और (संशय) संशय (विभ्रम) विपर्यय तथा (मोह) अनध्यवसाय [अनिश्चितता] को (त्याग) छोड़कर (आपो) अपने आत्मा को (लख लीजे) लक्ष्य में लेना चाहिये अर्थात् जानना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया तो] (यह) यह (मानुष पर्याय) मनुष्य भव (सुकुल) उत्तम कुल और (जिनवानी) जिनवाणी का (सुनिवौ) सुनना (इह विध) ऐसा सुयोग (गये) बीत जाने पर, (उदधि) समुद्र में (समानी) समाये - डूबे हुए (सुमणि ज्यों) सच्चे रत्न की भाँति [पुनः] (न मिलै) मिलना कठिन है।
भावार्थ :-आत्मा और परवस्तुओं के भेदविज्ञान को प्राप्त करने के लिए जिनदेव द्वारा प्ररूपित सच्चे तत्त्वों का पठन-पाठन (मनन) करना चाहिए और संशय विपर्यय तथा अनध्यवसाय इन सम्यग्ज्ञान के तीन दोषों को दूर करने के आत्मस्वरूप को जानना चाहिए; क्योंकि जिसप्रकार समुद्र में डूबा अमूल्य रत्न पुनः हाथ नहीं आता; उसीप्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावककल और जिनवचनों का श्रवण आदि सुयोग भी बीत जाने के बाद पुनः-पुनः प्राप्त नहीं होते । इसलिये यह अपूर्व अवसर न गंवाकर आत्मस्वरूप की पहिचान (सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति) करके, यह मनुष्य-जन्म सफल करना चाहिए।
सम्यग्ज्ञान की महिमा और कारण धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै। ज्ञान आपकी रूप भये, फिर अचल रहावै ।। तास ज्ञान को कारन, स्व-पर विवेक बखानौ । कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ ।।७।।
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे ।। यह मानुष पर्याय, सुकुल, सुनिवौ जिनवानी।
इह विध गये न मिले, सुमणि ज्यौं उदधि समानी ।।६।। अन्वयार्थ :- (तात) इसलिये (जिनवर-कथित) जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए (तत्त्व) परमार्थ तत्त्व का (अभ्यास) अभ्यास (करीजे) करना चाहिए
१. संशयः - विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः = "इसप्रकार है अथवा इसप्रकार?" -
ऐसा जो परस्पर विरुद्धतापूर्वक दो प्रकार रूप ज्ञान, उसे संशय कहते हैं। २. विपर्ययः - विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः = वस्तुस्वरूप से विरुद्धतापूर्वक "यह ऐसा
ही है" - इसप्रकार एकरूप ज्ञान का नाम विपर्यय है। उसके तीन भेद हैं - कारणविपर्यय, स्वरूपविपर्यय तथा भेदाभेदविपर्यय ।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १२३) ३. अनध्यवसायः - किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः = 'कुछ है' - ऐसा निर्णयरहित विचार,
सो अनध्यवसाय है।
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अन्वयार्थ :- (धन) पैसा, (समाज) परिवार, (गज) हाथी, (बाज) घोड़ा (राज) राज्य (तो) तो (काज) अपने काम में (न आवै) नहीं आते; किन्तु (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (आपको रूप) आत्मा का स्वरूप - [जो] (भये) प्राप्त होने के (फिर) पश्चात् (अचल) अचल (रहावै) रहता है। (तास) उस (ज्ञान को) सम्यग्ज्ञान का (कारन) कारण (स्व-पर विवेक) आत्मा और पर-वस्तुओं का भेदविज्ञान (बखानौ) कहा है, [इसलिये] (भव्य) हे भव्यजीवो! (कोटि) करोड़ों (उपाय) उपाय (बनाय) करके (ताको) उस भेदविज्ञान को (उर आनौ) हृदय में धारण करो।
भावार्थ :- धन-सम्पत्ति, परिवार, नौकर-चाकर, हाथी, घोड़ा तथा राज्यादि कोई भी पदार्थ आत्मा को सहायक नहीं होते; किन्तु सम्यग्ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। वह एकबार प्राप्त होने के पश्चात् अक्षय हो जाता है - कभी नष्ट नहीं होता, अचल एकरूप रहता है। आत्मा और परवस्तुओं का भेदविज्ञान ही उस सम्यग्ज्ञान का कारण है; इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी भव्यजीव को करोड़ों उपाय करके उस भेदविज्ञान के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए।
सम्यग्ज्ञान की महिमा और विषयेच्छा रोकने का उपाय जे पूरब शिव गये, जाहिं, अरु आगे जैहैं। सो सब महिमा ज्ञान-तनी, मुनिनाथ कहै हैं ।। विषय-चाह दव-दाह, जगत-जन अरनि दझावै।
तास उपाय न आन, ज्ञान-घनघान बुझावै ।।८।। अन्वयार्थ :- (पूरब) पूर्वकाल में (जे) जो जीव (शिव) मोक्ष में (गये)
गये हैं, [वर्तमान में] (जाहि) जा रहे हैं (अस) और (आगे) भविष्य में (जैहैं) जायेंगे (सो) वह (सब) सब (ज्ञान-तनी) सम्यग्ज्ञान की (महिमा) महिमा है - ऐसा (मुनिनाथ) जिनेन्द्रदेव ने (कहे हैं) कहा है। (विषय-चाह) पाँच इन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी (दव-दाह) भयंकर दावानल (जगत-जन) संसारी जीवोंरूपी (अरनि) अरण्य-पुराने वन को (दझावै) जला रहा है, (तास) उसकी शान्ति का (उपाय) उपाय (आन) दूसरा (न) नहीं है; [मात्र] (ज्ञान-घनघान) ज्ञानरूपी वर्षा का समूह (बुझावै) शान्त करता है।
भावार्थ :- भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों काल में जो जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, होंगे और (वर्तमान में विदेह-क्षेत्र में) हो रहे हैं; वह इस सम्यग्ज्ञान का ही प्रभाव है - ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है। जिसप्रकार दावानल (वन में लगी हुई अग्नि) वहाँ की समस्त वस्तुओं को भस्म कर देता है, उसीप्रकार पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी विषयों की इच्छा संसारी जीवों को जलाती है - दुःख देती है; और जिसप्रकार वर्षा की झड़ी उस दावानल को बुझा देती है, उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान उन विषयों को शान्त कर देता है - नष्ट कर देता है।
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पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेध और तात्पर्य की बात पुण्य-पाप-फलमाहिं, हरख बिलखौ मत भाई।
इसीप्रकार (लाओ) ग्रहण करो कि (सकल) पुण्य-पापरूप समस्त (जगदंदफंद) जन्म-मरण के द्वन्द्व [राग-द्वेष] रूप विकारी मलिन भाव (तोरि) तोड़कर (नित) सदैव (आतम ध्याओ) अपने आत्मा का ध्यान करो।
भावार्थ :- आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है कि धन, मकान, दुकान, कीर्ति, नीरोगी शरीरादि पुण्य के फल हैं, उनसे अपने को लाभ है तथा उनके वियोग से अपने को हानि है - ऐसा न माने; क्योंकि परपदार्थ सदा भिन्न हैं, ज्ञेयमात्र हैं, उनमें किसी को अनुकूल-प्रतिकूल अथवा इष्ट-अनिष्ट मानना, वह मात्र जीव की भूल है; इसलिये पुण्य-पाप के फल में हर्ष-शोक नहीं करना चाहिए।
यदि किसी भी परपदार्थ को जीव भला या बुरा माने तो उसके प्रति राग या द्वेष हुए बिना नहीं रहता। जिसने परपदार्थ - परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को वास्तव में हितकर तथा अहितकर माना है, उसने अनन्त परपदार्थों को रागद्वेष करने योग्य माना है और अनन्त परपदार्थ मुझे सुख-दुःख के कारण हैं - ऐसा भी माना है; इसलिये वह भूल छोड़कर निज ज्ञानानंद स्वरूप का निर्णय करके स्वोन्मुख ज्ञाता रहना ही सुखी होने का उपाय है।
पुण्य-पाप का बन्ध वे पुद्गल की पर्यायें (अवस्थाएँ) हैं। उनके उदय में जो संयोग प्राप्त हों, वे भी क्षणिक संयोगरूप से आते-जाते हैं। जितने काल तक वे निकट रहें, उतने काल भी वे सुख-दुःख देने में समर्थ नहीं हैं।
जैनधर्म के समस्त उपदेश का सार यही है कि - शुभाशुभभाव वह संसार है; इसलिये उसकी रुचि छोड़कर, स्वोन्मुख होकर निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निज आत्मस्वरूप में एकाग्र (लीन) होना ही जीव का कर्त्तव्य है। सम्यक्चारित्र का समय और भेद तथा अहिंसाणुव्रत और सत्याणुव्रत का लक्षण
सम्यज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै ।
यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै फिर थाई।। लाख बात की बात यही, निश्चय उर लाओ।
तोरि सकल जग दंद-फंद, नित आतम ध्याओ ।।९।। अन्वयार्थ :- (भाई) हे आत्मार्थी प्राणी! (पुण्य-फलमाहि) पुण्य के फल में (हरख मत) हर्ष न कर और (पाप-फलमाहि) पाप के फल में (विलखौ मत) द्वेष न कर [क्योंकि यह पुण्य और पाप] (पुद्गल परजाय) पुद्गल की पर्यायें हैं। [वे] (उपजि) उत्पन्न होकर (विनसै) नष्ट हो जाती हैं
और (फिर) पुनः (थाई) उत्पन्न होती हैं। (उर) अपने अन्तर में (निश्चय) निश्चय से - वास्तव में (लाख बात की बात) लाखों बातों का सार (यही)
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पालन मुनिराज करते हैं और देशचारित्र का पालन श्रावक करते हैं। इस चौथी ढाल में देशचारित्र का वर्णन किया गया है। सकलचारित्र का वर्णन छठवीं ढाल में किया जायेगा । त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का सर्वथा त्याग करके निष्प्रयोजन स्थावर जीवों का घात न करना, सो 'अहिंसा अणुव्रत है। दूसरे के प्राणों को घातक, कठोर तथा निंदनीय वचन न बोलना (तथा दूसरों से न बुलवाना, न अनुमोदना; सो सत्य-अणुव्रत है)। अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत तथा दिग्व्रत का लक्षण
जल-मृतिका विन और नाहिं कछु गहै अदत्ता।
निज वनिता विन सकल नारिसौं रहै विरत्ता ।। अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै। दश दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सीम न नाखै ।।११।।
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै ।। त्रसहिंसा को त्याग, वृथा थावर न सँहारै ।
पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै ।।१०।। अन्वयार्थ :- (सम्यग्ज्ञानी) सम्यग्ज्ञानी (होय) होकर (बहुरि) फिर (दिढ़) दृढ़ (चारित) सम्यक्चारित्र (लीजै) का पालन करना चाहिए; (तसु) उसके [उस सम्यक्चारित्र के (एकदेश) एकदेश (अरु) और (सकलदेश) सर्वदेश [ऐसे दो] (भेद) भेद (कहीजै) कहे गये हैं। [उनमें] (त्रसहिंसा को) त्रस जीवों की हिंसा का (त्याग) त्याग करना और (वृथा) बिना कारण (थावर) स्थावर जीवों का (न सँहारै) घात न करना [वह अहिंसा-अणुव्रत कहलाता है] (पर वधकार) दूसरों को दुःखदायक, (कठोर) कठोर [और] (निंद्य) निंदनीय (वयन) वचन (नहिं उचारै) न बोलना [वह सत्य-अणुव्रत कहलाता है।
भावार्थ :- सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके सम्यक्चारित्र प्रकट करना चाहिए। उस सम्यक्चारित्र के दो भेद हैं - (१) एकदेश (अणु, देश, स्थूल) चारित्र और (२) सर्वदेश (सकल, महा, सूक्ष्म) चारित्र । उनमें सकल चारित्र का
१. टिप्पणी :- (१) अहिंसाणुव्रत का धारण करनेवाला जीव “यह जीव घात करने योग्य
है, मैं इसे मारूँ" - इसप्रकार संकल्प सहित किसी त्रस जीव की संकल्पी हिंसा नहीं करता; किन्तु इस व्रत का धारी आरम्भी, उद्योगिनी तथा विरोधिनी हिंसा का त्यागी नहीं होता। (२) प्रमाद और कषाय में युक्त होने से जहाँ प्राणघात किया जाता है, वहीं हिंसा का दोष लगता है; जहाँ वैसा कारण नहीं है, वहाँ प्राणघात होने पर भी हिंसा का दोष नहीं लगता । जिसप्रकार - प्रमादरहित मुनि गमन करते हैं; वैद्य - डॉक्टर करुणाबुद्धिपूर्वक रोगी का उपचार करते हैं; जहाँ सामनेवाले का प्राणघात होने पर भी हिंसा का दोष नहीं है।
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बजारा।
अन्वयार्थ :- (जल-मृतिका विन) पानी और मिट्टी के अतिरिक्त (और कछु) अन्य कोई वस्तु (अदत्ता) बिना दिये (नाहिं) नहीं (ग्रहे) लेना [उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं] (निज) अपनी (वनिता विन) स्त्री के अतिरिक्त (सकल नारिसौं) अन्य सर्व स्त्रियों से (विरता) विरक्त (रहे) रहना [वह ब्रह्मचर्याणुव्रत है] (अपनी) अपनी (शक्ति विचार) शक्ति का विचार करके (परिग्रह) परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) रखना [सो परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है] (दश दिश) दशों दिशाओं में (गमन) जाने-आने की (प्रमाण) मर्यादा (ठान) रखकर (तसु) उस (सीम) सीमा का (न नाखै) उल्लंघन न करना [सो दिव्रत है] ।
भावार्थ :- जन-समुदाय के लिए जहाँ रोक न हो तथा किसी विशेष व्यक्ति का स्वामित्व न हो - ऐसे पानी तथा मिट्टी जैसी वस्तु के अतिरिक्त परायी वस्तु (जिस पर अपना स्वामित्व न हो) उसके स्वामी के दिये बिना न लेना (तथा उठाकर दूसरे को न देना), उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं। अपनी विवाहित स्त्री के सिवा अन्य सर्व स्त्रियों से विरक्त रहना, सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है। (पुरुष को चाहिए कि अन्य स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री समान माने तथा स्त्री को चाहिए कि अपने स्वामी के अतिरिक्त अन्य पुरुषों को पिता, भाई तथा पुत्र समान समझे)। __ अपनी शक्ति और योग्यता का ध्यान रखकर जीवनपर्यन्त के लिए धनधान्यादि बाह्य-परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) बाँधकर उससे अधिक की इच्छा न करे, उसे परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहते हैं । दशों दिशाओं में जाने-आने की मर्यादा निश्चित करके जीवनपर्यंत उसका उल्लंघन न करना, सो दिव्रत है। दिशाओं की मर्यादा निश्चित की जाती है, इसलिये उसे दिग्व्रत कहा जाता है।
देशव्रत (देशावगाशिक) नामक गुणव्रत का लक्षण
ताहू में फिर ग्राम गली, गृह बाग बजारा।
गमनागमन प्रमाण ठान अन, सकल निवारा ।।१२ ।। (पूर्वार्द्ध) अन्वयार्थ :- (फिर) फिर (ताहू में) उसमें [किन्हीं प्रसिद्ध-प्रसिद्ध (ग्राम) गाँव (गली) गली (ग्रह) मकान (बाग) उद्यान तथा (बजारा) बाजार तक (गमनागमन) जाने-आने का (प्रमाण) माप (ठान) रखकर (अन) अन्य (सकल) सबका (निवारा) त्याग करना [उसे देशव्रत अथवा देशावगाशिक व्रत कहते हैं।
भावार्थ :- दिव्रत में जीवनपर्यन्त की गई जाने-आने के क्षेत्र की मर्यादा में भी (घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि काल के नियम से) किसी प्रसिद्ध ग्राम, मार्ग, मकान तथा बाजार तक जाने-आने की मर्यादा करके उससे आगे की सीमा में न जाना, सो देशव्रत कहलाता है।।११।। (पूर्वार्द्ध)।
अनर्थदण्डव्रत के भेद और उनका लक्षण काहू की धनहानि, किसी जय-हार न चिन्तै । देय न सो उपदेश, होय अघ वनज कृषी तैं ।।१२ ।। (उत्तरार्द्ध)
१. टिप्पणी :- (१) ये पाँच (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण) अणुव्रत
हैं। हिंसादिक को लोक में भी पाप माना जाता है; उनका इन व्रतों में एकदेश (स्थूलरूप से) त्याग किया गया है; इसी कारण वे अणुव्रत कहलाते हैं। (२) निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक प्रथम दो कषायों का अभाव हुआ हो, उस जीव को सच्चे अणुव्रत होते हैं। जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन न हो, उसके व्रतों को सर्वज्ञ ने (अज्ञानव्रत) कहा है।
कर प्रमाद जल भूमि वृक्ष पावक न विराधै। असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै ।। राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै ।
और हु अनरथ दंड, हेतु अघ तिन्हैं न कीजै ।।१३।। अन्वयार्थ :- १. (काहू की) किसी के (धनहानि) धन के नाश का
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(किसी ) किसी की (जय) विजय का [अथवा ] (हार) किसी की हार का (न चिन्तै) विचार न करना [ उसे अपध्यान- अनर्थदंडव्रत कहते हैं ।] २. (वनज) व्यापार और (कृषि तँ) खेती से (अघ) पाप (होय) होता है; इसलिये (सो) उसका (उपदेश) उपदेश (न देय) न देना [ उसे पापोपदेश- अनर्थदंडव्रत कहा जाता है ।] ३. (प्रमाद कर ) प्रमाद से [ बिना प्रयोजन ] (जल) जलकायिक (भूमि) पृथ्वीकायिक, (वृक्ष) वनस्पतिकायिक, (पावक) अग्निकायिक [ और वायुकायिक] जीवों का (न विराधै) घात न करना [सो प्रमादचर्या - अनर्थदंडव्रत कहलाता है।] ४. (असि) तलवार, (धनु) धनुष्य, (हल) हल [ आदि ] (हिंसोपकरण) हिंसा होने में कारणभूत पदार्थों को (दे) देकर (यश) यश ( नहिं लाधै) न लेना [सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता है।] ५. (रागद्वेष-करतार) राग और द्वेष उत्पन्न करनेवाली (कथा) कथाएँ (कबहूँ) कभी भी (न सुनीजै) नहीं सुनना [सो दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहा जाता है ।] (और हु) तथा अन्य भी ( अघहेतु) पाप के कारण (अनरथ दंड) अनर्थदंड हैं (तिन्हें उन्हें भी ( न कीजै) नहीं करना चाहिए ।
भावार्थ :- ( १ ) किसी के धन का नाश, पराजय अथवा विजय आदि का विचार न करना, सो पहला अपध्यान- अनर्थदंडव्रत कहलाता है।
(२) हिंसारूप पापजनक व्यापार तथा खेती आदि का उपदेश न देना, वह पापोपदेश- अनर्थदंडव्रत है ।
(३) प्रमादवश होकर पानी ढोलना, जमीन खोदना, वृक्ष काटना, आग लगाना - इत्यादि का त्याग करना अर्थात् पाँच स्थावरकाय के जीवों की हिंसा न करना, उसे प्रमादचर्या - अनर्थडंदव्रत कहते हैं।
१. अनर्थदंड दूसरे भी बहुत से हैं। पाँच तो स्थूलता की अपेक्षा से अथवा दिग्दर्शनमात्र हैं। वे सब पापजनक हैं, इसलिये उनका त्याग करना चाहिए। पापजनक निष्प्रयोजन कार्य अनर्थदंड कहलाता है।
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(४) यश प्राप्ति के लिए, किसी के माँगने पर हिंसा के कारणभूत हथियार न देना, सो हिंसादान - अनर्थदंडव्रत कहलाता है।
(५) राग-द्वेष उत्पन्न करनेवाली विकथा और उपन्यास या शृंगारिक कथाओं के श्रवण का त्याग करना, सो दुःश्रुति-अनर्थदंडव्रत कहलाता है ।। १३ ।।
सामायिक, प्रोषध, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागव्रत
धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये। परव चतुष्टयमाहिं, पाप तज प्रोषध धरिये ।। भोग और उपभोग, नियमकरि ममत निवारै । मुनि को भोजन देय फेर, निज करहि अहारै ।। १४ ।।
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अन्वयार्थ :- (उर) मन में (समताभाव) निर्विकल्पता अर्थात् शल्य के अभाव को (धर) धारण करके (सदा) हमेशा (सामायिक) सामायिक (करिये) करना [सो सामायिक शिक्षाव्रत है;] (परव चतुष्टयमाहि) चार पर्व के दिनों में (पाप) पापकार्यों को छोड़कर (प्रोषधो) प्रोषधोपवास (धरिये) करना [सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है;] (भोग) एकबार भोगा जा सके - ऐसी वस्तुओं का तथा (उपभोग) बारम्बार भोगा जा सके - ऐसी वस्तुओं का (नियमकरि) परिमाण करके-मर्यादा रखकर (ममत) मोह (निवार) छोड़दे[सोभोग-उपभोगपरिमाणव्रत है;] (मुनि को) वीतरागी मुनि को (भोजन) आहार (देय) देकर (फेर) फिर (निज अहारै) स्वयं भोजन करे [सो अतिथिसंविभागवत कहलाता है।
भावार्थ :- स्वोन्मुखता द्वारा अपने परिणामों को स्थिर करके प्रतिदिन विधिपूर्वक सामायिक करना, सो सामायिक शिक्षाव्रत है।१ । प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी के दिन कषाय और व्यापारादि कार्यों को छोड़कर (धर्मध्यानपूर्वक) प्रोषधसहित उपवास करना, सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है।२। परिग्रहपरिमाण-अणुव्रत में निश्चय की हुई भोगोपभोग की वस्तुओं में जीवनपर्यंत के लिए अथवा किसी निश्चित समय के लिए नियम करना, सो भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत कहलाता है।३ । निग्रंथ मुनि आदि सत्पात्रों को आहार देने के पश्चात् स्वयं भोजन करना, सो अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत
यों श्रावक-व्रत पाल, स्वर्ग सोलह उपजावै।
तहँतें चय नरजन्म पाय, मुनि लै शिव जावै ॥१५ ।। अन्वयार्थ :- जो जीव (बारह व्रत के) बारह व्रतों के (पन-पन) पाँचपाँच (अतिचार) अतिचारों को (न लगावै) नहीं लगाता और (मरणसमय) मृत्यु-काल में(संन्यास) समाधि (धार) धारण करके (तसु) उनके (दोष) दोषों को (नशा) दूर करता है, वह (यों) इसप्रकार (श्रावक-व्रत) श्रावक के व्रत (पाल) पालन करके (सोलह) सोलहवें (स्वर्ग) स्वर्ग तक (उपजावै) उत्पन्न होता है [और] (तहँत) वहाँ से (चय) मृत्यु प्राप्त करके (नरजन्म) मनुष्यपर्याय (पाय) पाकर (मुनि) मुनि (8) होकर (शिव) मोक्ष (जावै) जाता है।
भावार्थ :- जो जीव श्रावक के ऊपर कहे हुए बारह व्रतों का विधिपूर्वक जीवनपर्यंत पालन करते हुए उनके पाँच-पाँच अतिचारों को भी टालता है
और मृत्युकाल में पूर्वोपार्जित दोषों का नाश करने के लिए विधिपूर्वक समाधिमरण (संल्लेखना') धारण करके उसके पाँच अतिचारों को भी दूर करता है, वह आयु पूर्ण होने पर मृत्यु प्राप्त करके सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है। फिर देवायु पूर्ण होने पर मनुष्य भव पाकर, मुनिपद धारण करके मोक्ष (पूर्ण शुद्धता) प्राप्त करता है। ___ सम्यक्चारित्र की भूमिका में रहनेवाले राग के कारण वह जीव स्वर्ग में देवपद प्राप्त करता है। धर्म का फल संसार की गति नहीं है, किन्तु संवरनिर्जरारूप शुद्धभाव है; धर्म की पूर्णता वह मोक्ष है।
चौथी ढाल का सारांश सम्यग्दर्शन के अभाव में जो ज्ञान होता है, उसे कुज्ञान (मिथ्याज्ञान) कहा
कहलाता है।॥१४॥
निरतिचार श्रावकव्रत पालन करने का फल बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै। मरण-समय संन्यास धारि तसु दोष नशावै।।
१. क्रोधादि के वश होकर विष, शस्त्र अथवा अन्नत्याग आदि से प्राणत्याग किया जाता है,
उसे 'आत्मघात' कहते हैं। 'संल्लेखना' में सम्यग्दर्शनसहित आत्मकल्याण (धर्म) के हेतु से काया और कषाय को कृश करते हुए सम्यक् आराधनापूर्वक समाधिमरण होता है; इसलिये वह आत्मघात नहीं, किन्तु धर्मध्यान है।
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जाता है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् वही लक्षण सम्यग्ज्ञान कहलाता है। इसप्रकार यद्यपि ये दोनों सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान साथ ही होते हैं; तथापि उनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं और कारण-कार्यभाव का अन्तर है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का निमित्तकारण है। ___जो स्वयं को और परवस्तुओं को स्वन्मुखतापूर्वक यथावत् जाने, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; उसकी वृद्धि होने पर अन्त में केवलज्ञान प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त सुखदायक वस्तु अन्य कोई नहीं है और वही जन्म, जरा तथा मरण का नाश करता है। मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यग्ज्ञान के बिना करोड़ों जन्म तक तप तपने से जितने कर्मों का नाश होता है, उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी जीव के त्रिगुप्ति से क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। पूर्वकाल में जो जीव मोक्ष गये हैं; भविष्य में जायेंगे और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र से जा रहे हैं - वह सब सम्यग्ज्ञान का प्रभाव है। जिसप्रकार मसलाधार वर्षा वन की भयंकर अग्नि को क्षणमात्र में बुझा देती है, उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान विषय-वासना को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। ___ पुण्य-पाप के भाव वे जीव के चारित्रगुण की विकारी (अशुद्ध) पर्यायें हैं; वे रहँट के घड़ों की भाँति उल्टी-सीधी होती रहती हैं; उन पुण्य-पाप के फलों में जो संयोग प्राप्त होते हैं, उनमें हर्ष-शोक करना मूर्खता है। प्रयोजनभूत बात तो यह है कि पुण्य-पाप, व्यवहार और निमित्त की रुचि छोड़कर स्वसन्मुख होकर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ___ आत्मा और परवस्तुओं का भेदविज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान होता है। इसलिये संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (तत्त्वार्थों का अनिर्धार) का त्याग करके
तत्त्व के अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावक कुल और जिनवाणी का सुनना आदि सुयोग - जिसप्रकार समुद्र में डूबा हुआ रत्न पुनः हाथ नहीं आता, उसीप्रकार - बारम्बार प्राप्त नहीं होता । ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके सम्यग्धर्म प्राप्त न करना मूर्खता है।
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके 'फिर सम्यक्चारित्र प्रकट करना चाहिए; वहाँ सम्यक्चारित्र की भूमिका में जो कुछ भी राग रहता है, वह श्रावक को अणुव्रत और मुनि को पंचमहाव्रत के प्रकार का होता है; उसे सम्यग्दृष्टि पुण्य मानते हैं।
जो श्रावक निरतिचार समाधि-मरण को धारण करता है, वह समतापूर्वक आयु पूर्ण होने से योग्यतानुसार सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है और वहाँ से आयु पूर्ण होने पर मनुष्यपर्याय प्राप्त करता है; फिर मुनिपद प्रकट करके मोक्ष में जाता है। इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्र का पालन करना, वह प्रत्येक आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है।
निश्चय सम्यक्चारित्र ही सच्चा चारित्र है - ऐसी श्रद्धा करना तथा उस भूमिका में जो श्रावक और मुनिव्रत के विकल्प उठते हैं, वह सच्चा चारित्र नहीं, किन्तु चारित्र में होनेवाला दोष है; किन्तु उस भूमिका में वैसा राग आये बिना नहीं रहता और उस सम्यक्चारित्र में ऐसा राग निमित्त होता है; उसे सहचर मानकर व्यवहार सम्यक्चारित्र कहा जाता है। व्यवहार सम्यक्चारित्र को सच्चा सम्यक्चारित्र मानने की श्रद्धा छोड़ देना चाहिए।
चौथी ढाल का भेद-संग्रह काल :- निश्चयकाल और व्यवहारकाल; अथवा भूत, भविष्य
और वर्तमान। चारित्र :- मोह-क्षोभरहित आत्मा के शुद्ध परिणाम, भावलिंगी
श्रावकपद तथा भावलिंगी मुनिपद। ज्ञान के दोष :- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (अनिश्चितता)।
१. न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वक लभते।
ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ।।३८ ।। अर्थ :- अज्ञानपूर्वक चारित्र सम्यक् नहीं कहलाता, इसलिये चारित्र का आराधन ज्ञान होने के पश्चात् कहा है।
(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय गाथा-३८)
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दिशा:- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य,
आग्नेय-अण्नेय, ऊर्ध्व और अधो - ये दस हैं। पर्वचतुष्टय :- प्रत्येक मास की दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी। मुनि :- समस्त व्यापार से विरक्त, चार प्रकार की आराधना में
तल्लीन, निर्ग्रन्थ और निर्मोह - ऐसे सर्व साधु होते हैं। (नियमसार, गाथा -७६)। वे निश्चयसम्यग्दर्शन सहित, विरागी होकर, समस्त परिग्रह त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके अन्तरंग में शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करते हैं। परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं करते । ज्ञानादि स्वभाव को ही अपना मानते हैं; परभावों में ममत्व नहीं करते। किसी को इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें राग-द्वेष नहीं करते । हिंसादि अशुभ उपयोग का तो उनके अस्तित्व ही नहीं होता। अनेक बार छठवें गुणस्थान में आते हैं, तब उन्हें अट्ठाईस मूलगुणों को अखण्डित रूप से पालन करने का शुभ-विकल्प आता है। उन्हें तीन कषायों के अभावरूप निश्चय-सम्यक्चारित्र होता है। भावलिंगी मुनि को सदा नग्न-दिगम्बर दशा होती है; उसमें कभी अपवाद नहीं होता। कभी भी वस्त्रादि सहित मुनि
नहीं होते। विकथा :- स्त्री, आहार, देश और राज्य - इन चार की अशुभभावरूप
कथा, सो विकथा है। श्रावकव्रत :- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - ऐसे
बारह व्रत हैं। रोगत्रय:- जन्म, जरा और मृत्यु। हिंसा :
(१) वास्तव में रागादि भावों का प्रकट न होना, सो अहिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति होना, सो हिंसा
है - ऐसा जैनशास्त्रों का संक्षिप्त रहस्य है। (२) संकल्पी, आरम्भी, उद्योगिनी और विरोधिनी - ये
चार अथवा द्रव्यहिंसा और भावहिंसा - ये दो।
चौथी ढाल का लक्षण-संग्रह अणुव्रत :- (१) निश्चयसम्यग्दर्शन सहित चारित्रगुण की आंशिक
शुद्धि होने से (अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानीय कषायों के अभावपूर्वक) उत्पन्न आत्मा की शुद्धिविशेष को देशचारित्र कहते हैं। श्रावकदशा में पाँच पापों का स्थूलरूप
- एकदेश त्याग होता है, उसे अणुव्रत कहा जाता है। अतिचार :- व्रत की अपेक्षा रखने पर भी उसका एकदेश भंग होना,
सो अतिचार है। अनध्यवसाय :- (मोह) - 'कुछ हैं', किन्तु क्या है, उसके निश्चयरहित
ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। अनर्थदंड :- प्रयोजनरहित मन, वचन, काय की ओर की अशुभप्रवृत्ति । अनर्थदंडव्रत :- प्रयोजनरहित, मन, वचन, काय की ओर की अशुभ
प्रवृत्ति का त्याग। अवधिज्ञान :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को
स्पष्ट जाननेवाला ज्ञान। उपभोग :
जिसे बारम्बार भोगा जा सके - ऐसी वस्तु । गुण :
द्रव्य के आश्रय से, उसकेसम्पूर्ण भाग में तथा उसकी समस्त
पर्यायों में सदैव रहे, उसे गुण अथवा शक्ति कहते हैं। गुणव्रत :- अणुव्रतों को तथा मूलगुणों को पुष्ट करनेवाला व्रत। पर :
आत्मा से (जीव से) भिन्न वस्तुओं को पर कहा जाता है। परोक्ष :- जिसमें इन्द्रियादि परवस्तुएँ निमित्तमात्र हैं - ऐसे ज्ञान को
परोक्ष ज्ञान कहते हैं।
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प्रत्यक्ष :- (१) आत्मा के आश्रय से होनेवाला अतीन्द्रिय ज्ञान है।
(२) अक्षप्रति - अक्ष = आत्मा अथवा ज्ञान प्रति =
(अक्ष के) सन्मुख - निकट। पर्याय :- गुणों के विशेष कार्य को (परिणमन को) पर्याय कहते हैं। भोग :- वह वस्तु जिसे एक ही बार भोगा जा सके। मतिज्ञान :- (१) पराश्रय की बुद्धि छोड़कर दर्शन-उपयोगपूर्वक
स्वसन्मुखता से प्रकट होनेवाले निज-आत्मा के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। (२) इन्द्रियाँ और मन जिसमें निमित्तमात्र हैं - ऐसे ज्ञान
को मतिज्ञान कहते है। महाव्रत:- हिंसादि पाँच पापों का सर्वथा त्याग।
(निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान और वीतरागचारित्ररहित मात्र व्यवहारव्रत के शुभभाव को महाव्रत नहीं कहा है, किन्तु
बालव्रत - अज्ञानव्रत कहा है। मनःपर्ययज्ञान :- द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की मर्यादा से दूसरे के मन में रहे
हुए सरल अथवा गूढ़ रूपी पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान । १. द्रव्य, गुण, पर्यायों को केवलज्ञानी भगवान जानते हैं, किन्तु उनके अपेक्षित धर्मों को
नहीं जान सकते - ऐसा मानना, सो असत्य है। और वह अनन्त को अथवा मात्र आत्मा को ही जानते हैं, किन्तु सर्व को नहीं जानते हैं - ऐसा मानना भी न्याय से विरुद्ध है। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, प्रश्न ८७, पृष्ठ २६) केवलज्ञानी भगवान क्षायोपशमिक ज्ञानवाले जीवों की भाँति अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप क्रम से नहीं जानते, किन्तु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को युगपत् (एकसाथ) जानते हैं । इसप्रकार उन्हें सब कुछ प्रत्यक्ष वर्तता है। (प्रवचनसार, गाथा २१ की टीका-भावार्थ ।) अति विस्तार से बस होओ, अनिवारित (रोका न जा सके ऐसा - अमर्यादित) जिसका विस्तार है - ऐसे प्रकाशवाला होने से क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान) अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है। (प्रवचनसार, गाथा ४७ की टीका। टिप्पणी :- श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान से सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य में निश्चित और क्रमबद्ध पर्यायें होती हैं - उलटी-सीधी नहीं।
केवलज्ञान :- जो तीनकाल और तीनलोकवर्ती सर्व पदार्थों को
(अनन्तधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को) प्रत्येक समय यथास्थित, परिपूर्णरूप से स्पष्ट और एकसाथ जानता
है. उसे केवलज्ञान कहते हैं। विपर्यय :- विपरीत ज्ञान । जैसे कि - सीप को चाँदी जानना और
चाँदी को सीप जानना । अथवा - शुभास्रव से वास्तव में आत्महित मानना; देहादि परद्रव्य को स्व रूप मानना,
अपने से भिन्न न मानना। व्रत :- शुभकार्य करना और अशुभकार्य को छोड़ना, सो व्रत है।
अथवा हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन पाँच पापों से भावपूर्वक विरक्त होने को व्रत कहते हैं। व्रत सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् होते हैं और आंशिक
वीतरागतारूप निश्चयव्रत सहित व्यवहारव्रत होते हैं। शिक्षाव्रत :- मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा देनेवाला व्रत। श्रुतज्ञान :- (१) मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थों के सम्बन्ध में अन्य
पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। (२) आत्मा की शुद्ध अनुभूतिरूप श्रुतज्ञान को भावश्रुतज्ञान
कहते हैं। संन्यास :- (संल्लेखना) आत्मा का धर्म समझकर अपनी शुद्धता के
लिए कषायों को और शरीर को कृश करना (शरीर की
ओर का लक्ष्य छोड़ देना), सो समाधि अथवा संल्लेखना
कहलाती है। संशय:- विरोधसहित अनेक प्रकारों का अवलम्बन करनेवाला
ज्ञान; जैसे कि - यह सीप होगी या चाँदी? आत्मा अपना ही कार्य कर सकता होगा या पर का भी? देव-गुरु-शास्त्र,
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जीवादि सात तत्त्व आदि का स्वरूप ऐसा ही होगा? - अथवा जैसा अन्य मत में कहा है, वैसा? निमित्त अथवा शुभराग द्वारा आत्मा का हित हो सकता है या नहीं?
चौथी ढाल का अन्तर-प्रदर्शन (१) दिवत की मर्यादा तो जीवनपर्यंत के लिए है; किन्तु देशव्रत की मर्यादा घड़ी, घण्टा आदि नियत किये हुए समय तक की है।
(२) परिग्रहपरिमाणव्रत में परिग्रह का जितना प्रमाण (मर्यादा) किया जाता है, उससे भी कम प्रमाण भोगोपभोगपरिमाणव्रत में किया जाता है।
(३) प्रोषध में तो आरम्भ और कषाय-कषायादिक त्याग करने पर भी एकबार भोजन किया जाता है; जबकि उपवास में अन्न, जल, खाद्य और स्वाद्य - इन चारों आहारों का सर्वथा त्याग होता है। प्रोषध-उपवास में आरम्भ, विषय-कषाय और चारों आहारों का त्याग तथा उसके अगले दिन और पारणे के दिन अर्थात् पिछले दिन भी एकाशन किया जाता है।
(४) भोग तो एक ही बार भोगने योग्य होता है, किन्तु उपभोग बारम्बार भोगा जा सकता है। (आत्मा परवस्तु को व्यवहार से भी नहीं भोग सकता; किन्तु मोह द्वारा, मैं इसे भोगता हूँ - ऐसा मानता है और तत्सम्बन्धी राग को, हर्ष-शोक को भोगता है। यह बतलाने के लिए उसका कथन करना, सो व्यवहार है।
चौथी ढाल की प्रश्नावली १. अचौर्यव्रत, अणुव्रत, अतिचार, अतिथिसंविभाग, अनध्यवसाय, अनर्थदंड, अनर्थदंडव्रत, अपध्यान, अवधिज्ञान, अहिंसाणुव्रत, उपभोग, केवलज्ञान, गुणव्रत, दिग्वत, दुःश्रुति, देशव्रत, देशप्रत्यक्ष, परिग्रह - परिमाणाणु-व्रत, परोक्ष, पापोपदेश, प्रत्यक्ष, प्रमादचर्या, प्रोषध-उपवास, ब्रह्मचर्याणुव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत, भोग, मतिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, विपर्यय, व्रत, शिक्षाव्रत, श्रुतज्ञान, सकलप्रत्यक्ष, सम्यग्ज्ञान, सत्याणुव्रत,
सामायिक, संशय, स्वस्त्री-संतोषव्रत तथा हिंसादान आदि केलक्षण बतलाओ।
२. अणुव्रत, अनर्थदण्डव्रत, काल, गुणव्रत, देशप्रत्यक्ष, दिशा, परोक्ष, पर्व, पात्र, प्रत्यक्ष, विकथा, व्रत, रोगत्रय, शिक्षाव्रत सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान के दोष और संल्लेखना दोष - आदि के भेद बतलाओ।
३. अणुव्रत, अनर्थदण्डव्रत, गुणव्रत - ऐसे नाम रखने का कारण; अविचल ज्ञानप्राप्ति, ग्रैवेयक तक जाने पर भी सुख का अभाव, दिव्रत, देशव्रत, पापोपदेश - ऐसे नामों का कारण, पुण्य पाप के फल में हर्ष-शोक का निषेध, शिक्षाव्रत नाम का कारण, सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, ज्ञानों की परोक्षताप्रत्यक्षता-देशप्रत्यक्षता और सकलप्रत्यक्षता आदि के कारण बतलाओ।
४. अणुव्रत और महाव्रत में, दिग्वत और देशव्रत में, परिग्रह-परिमाणव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत में, प्रोषध और उपवास में तथा प्रोषधोपवास में, भोग और उपभोग में, यम और नियम में, ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश में तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या अन्तर है, वह बतलाओ।
अनध्यवसाय, मनुष्यपर्याय आदि की दुर्लभता, विपर्यय, विषय-इच्छा, सम्यग्ज्ञान और संशय के दृष्टान्त दो।
६. अनर्थदण्डों का पूर्ण परिमाण, अविचल सुख का उपाय, आत्मज्ञान की प्राप्ति का उपाय, जन्म-मरण दूर करने का उपाय, दर्शन और ज्ञान में पहली उत्पत्ति; धनादिक से लाभ न होना, निरतिचार श्रावकव्रत-पालन से लाभ, ब्रह्मचर्याणुव्रती का विचार, भेदविज्ञान की आवश्यकता, मनुष्यपर्याय की दुर्लभता तथा उसकी सफलता का उपाय, मरणसमय का कर्तव्य; वैद्यडॉक्टर के द्वारा मरण हो, तथापि अहिंसा, शत्रु का सामना करना - न करना, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ज्ञान होने का समय और उसकी महिमा, संल्लेखना की विधि
और कर्तव्य, ज्ञान के बिना मुक्ति तथा सुख का अभाव, ज्ञान का फल तथा ज्ञानी-अज्ञानी का कर्मनाश और विषयों की इच्छा को शांत करने का उपाय - आदि का वर्णन करो।
७. अचल रहनेवाला ज्ञान, अतिथिसंविभाग का दूसरा नाम, तीन रोगों का नाश करनेवाली वस्तु, मिथ्यादृष्टि मुनि, वर्तमान में मुक्ति हो सके - ऐसा
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पाँचवीं ढाल
पाँचवीं ढाल भावनाओं के चितवन का कारण, उसके अधिकारी और उसका फल
मुनि सकलव्रती बड़भागी भव-भोगनतें वैरागी। वैराग्य उपावन माई, चिन्तै अनुप्रेक्षा भाई।।१।।
अन्वयार्थ :- (भाई) हे भव्यजीव! (सकलव्रती) महाव्रतों के धारक (मुनि) भावलिंगी मुनिराज (बड़भागी) महान पुरुषार्थी हैं, क्योंकि वे (भोगनत) संसार और भोगों से (वैरागी) विरक्त होते हैं और (वैराग्य) वीतरागता को (उपावन) उत्पन्न करने के लिए (माई) माता के समान (अनुप्रेक्षा) बारह भावनाओं का (चिन्तै) चितवन करते हैं। ___ भावार्थ :- पाँच महाव्रतों को धारण करनेवाले भावलिंगी मुनिराज महापुरुषार्थवान हैं; क्योंकि वे संसार, शरीर और भोगों से अत्यन्त विरक्त होते हैं; और जिसप्रकार कोई माता पुत्र को जन्म देती है, उसीप्रकार ये बारह भावनाएँ वैराग्य उत्पन्न करती हैं, इसलिये मुनिराज इन बारह भावनाओं का चितवन करते हैं।
___ भावनाओं का फल और मोक्षसुख की प्राप्ति का समय इन चिन्तत सम-सुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागे । जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठाने ।।२।।
अन्वयार्थ :- (जिमि) जिसप्रकार (पवन के) वायु के (लागै) लगने से (ज्वलन) अग्नि (जागै) भभक उठती है, [उसीप्रकार] (इन) बारह भावनाओं का (चिंतत) चितवन करने से (सम-सुख) समतारूपी सुख (जागै) प्रकट होता है। (जब ही) जब (जिय) जीव (आतम) आत्मस्वरूप को (जाने) जानता है, (तब ही) तभी (जीव) जीव (शिवसुख) मोक्षसुख को (ठाने) प्राप्त करता है।
भावार्थ :- जिसप्रकार वायु लगने से अग्नि एकदम भभक उठती है, उसीप्रकार इन बारह भावनाओं का बारंबार चितवन करने से समता शांतिरूपी सुख प्रकट हो जाता है - बढ़ जाता है। जब यह जीव पुरुषार्थपूर्वक परपदार्थों से सम्बन्ध छोड़कर आत्मस्वरूप को जानता है, तब परमानन्दमय स्वस्वरूप में लीन होकर समतारस का पान करता है और अंत में मोक्षसुख प्राप्त करता है।२। [ उन बारह भावनाओं का स्वरूप कहा जाता है - ]
१- अनित्य भावना जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी। इन्द्रिय-भोग छिन थाई,सुरधनु चपला चपलाई।।३।।
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छहढाला
अन्वयार्थ :- ( जोबन ) यौवन, (गृह) मकान, (गौ) गाय-भैंस, (धन) लक्ष्मी, (नारी) स्त्री, (हय) घोड़ा, (गय) हाथी, (जन) कुटुम्ब, (आज्ञाकारी) नौकर-चाकर तथा (इन्द्रिय-भोग) पाँच इन्द्रियों के भोग - ये सब (सुरधनु) इन्द्रधनुष तथा (चपला ) बिजली की (चपलाई) चंचलता - क्षणिकता की भाँति ( छिन थाई) क्षणमात्र रहनेवाले हैं।
भावार्थ:- यौवन, मकान, गाय-भैंस, धन-सम्पत्ति, स्त्री, घोड़ा - हाथी, कुटुम्बीजन, नौकर-चाकर तथा पाँच इन्द्रियों के विषय ये सर्व वस्तुएँ क्षणिक हैं - अनित्य हैं - नाशवान हैं। जिसप्रकार इन्द्रधनुष और बिजली देखते ही देखते विलीन हो जाते हैं, उसीप्रकार ये यौवनादि कुछ ही काल में नाश को प्राप्त होते हैं। वे कोई पदार्थ नित्य और स्थायी नहीं हैं, अपितु निज शुद्धात्मा ही नित्य और स्थायी है।
ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके, सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह "अनित्य भावना” है। मिथ्यादृष्टि जीव को अनित्यादि एक भी भावना यथार्थ नहीं होती ॥ ३ ॥
२. अशरण भावना
सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि, काल दले ते । मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥४ ॥
अन्वयार्थ :- (सुर असुर खगाधिप) देवों के इन्द्र, असुरों के इन्द्र और खगेन्द्र [गरुड़, हंस ] (जेते) जो-जो हैं, (ते) उन सबका (मृग हरि ज्यों)
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पाँचवीं ढाल
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जिसप्रकार हिरन को सिंह मार डालता है; उसीप्रकार (काल) मृत्यु (दले) नाश करता है । (मणि) चिन्तामणि आदि मणिरत्न, (मंत्र) बड़े-बड़े रक्षामंत्र; (तंत्र) तंत्र, (बहु होई) बहुत से होने पर भी ( मरते) मरनेवाले को (कोई) वे कोई (न बचावे) नहीं बचा सकते।
भावार्थ :- इस संसार में जो-जो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, खगेन्द्र (पक्षियों के राजा) आदि हैं, उन सबका जिसप्रकार हिरन को सिंह मार डालता है, उसी प्रकार काल (मृत्यु) नाश करता है। चिंतामणि आदि मणि, मंत्र और तंत्र-तंत्रादि कोई भी मृत्यु से नहीं बचा सकता ।
यहाँ ऐसा समझना कि निज आत्मा ही शरण है; उसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है। कोई जीव अन्य जीव की रक्षा कर सकने में समर्थ नहीं है; इसलिये पर से रक्षा की आशा करना व्यर्थ है। सर्वत्र सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है। आत्मा निश्चय से मरता ही नहीं; क्योंकि वह अनादि अनन्त है - ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह "अशरण भावना" है ।।४ ॥
१३. संसार भावना
चहुँगति दुःख जीव भरै है, परिवर्तन पंच करै है ।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ।। ५ ।।
अन्वयार्थ (जीव) जीव (चहुँगति) चार गति में (दुःख) दुःख (भरै है) भोगता है और (पंच परिवर्तन) पाँच परावर्तन पाँच प्रकार से परिभ्रमण
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१०६
छहढाला
पाँचवीं ढाल
नहीं होते। (सब) यह सब (स्वारथ के) अपने स्वार्थ के (भीरी) सगे (हैं)
(करै है) करता है। (संसार) संसार (सब विधि) सर्व प्रकार से (असारा) सार रहित है, (यामें) इसमें (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र भी (नाहिं) नहीं
भावार्थ:-जीव की अशुद्ध पर्याय वह संसार है। अज्ञान के कारण जीव चार गति में दुःख भोगता है और पाँच (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भाव) परावर्तन करता रहता है, किन्तु कभी शांति प्राप्त नहीं करता; इसलिये वास्तव में संसारभाव सर्वप्रकार से सार रहित है, उसमें किंचित्मात्र सुख नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार सुख की कल्पना की जाती है, वैसा सुख का स्वरूप नहीं है और जिसमें सुख मानता है, वह वास्तव में सुख नहीं है; किन्तु वह परद्रव्य के आलम्बनरूप मलिनभाव होने से आकुलता उत्पन्न करनेवाला भाव है। निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्रुवस्वभाव में संसार है ही नहीं - ऐसा स्वोन्मुखता-पूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता में वृद्धि करता है, वह “संसार भावना" है ।।५।।
४. एकत्व भावना शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एक हि ते ते ।
भावार्थ :- जीव का सदा अपने स्वरूप से और पर से विभक्तपना है; इसलिये वह स्वयं ही अपना हित अथवा अहित कर सकता है, पर का कुछ नहीं कर सकता है। इसलिये जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फल (आकुलता) वह स्वयं अकेला ही भोगता है; उसमें अन्य कोई - स्त्री, पुत्र, मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब परपदार्थ हैं और वे सब पदार्थ जीव को ज्ञेयमात्र हैं, इसलिये वे वास्तव में जीव के सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकर दःखी होता है। पर के द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर पर के साथ कर्तृत्व-ममत्व का अधिकार माना है; वह अपनी भूल से ही अकेला दुःखी होता है।
संसार में और मोक्ष में यह जीव अकेला ही है - ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि जीव निज शुद्ध आत्मा के साथ ही सदैव अपना एकत्व मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्व की वृद्धि करता है, यह “एकत्व भावना” है।।६।।
५. अन्यत्व भावना
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ।।६।। अन्वयार्थ :- (जेते) जितने (शुभ-अशुभ करमफल) शुभ और अशुभ कर्म के फल हैं, (ते ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भौगे) भोगता है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय)
जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला। तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिलि सुत रामा ।।७।। अन्वयार्थ :- (जिय-तन) जीव और शरीर (जल-पय-ज्यों) पानी
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और दूध की भाँति (मेला) मिले हुए हैं, (पै) तथापि (भेला) एकरूप (नहिं) नहीं हैं, (भिन्न-भिन्न) पृथक्-पृथक् हैं (तो) तो फिर (प्रकट) जो बाह्य में प्रकट रूप से (जुदे) पृथक् दिखाई देते हैं - ऐसे (धन) लक्ष्मी, (धामा) मकान, (सुत) पुत्र और (रामा) स्त्री आदि (मिलि) मिलकर (इक) एक (क्यों) कैसे (कै) हो सकते हैं?
भावार्थ :-जिसप्रकार दूध और पानी एक आकाश-क्षेत्र में मिले हुए हैं, परन्तु अपने-अपने गुण आदि की अपेक्षा से दोनों बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं; उसीप्रकार यह जीव और शरीर भी मिले हुए - एकाकार दिखाई देते हैं, तथापि वे दोनों अपने-अपने स्वरूपादि की अपेक्षासे (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से) बिलकुल पृथक्-पृथक् हैं तो फिर प्रकटरूप से भिन्न दिखाई देनेवाले - ऐसे मोटरगाड़ी, धन, मकान, बाग, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि अपने साथ कैसे एकमेक हो सकते हैं? अर्थात् स्त्री-पुत्रादि कोई भी परवस्तु अपनी नहीं है - इसप्रकार सर्व पदार्थों को अपने से भिन्न जानकर, स्वसन्मुखतापूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह “अन्यत्व भावना" है।।७।।
६.अशुचि भावना
(नव द्वार) नौ दरवाजे (बहैं) बहते हैं (अस) ऐसे (देह) शरीर में (यारी) प्रेम-राग (किमि) कैसे (करै) किया जा सकता है?
भावार्थ :- यह शरीर तो मांस, रक्त, पीव, विष्टा आदि की थैली है और वह हड्डी, चर्बी आदि से भरा होने के कारण अपवित्र है तथा नौ द्वारों से मैल बाहर निकलता है - ऐसे शरीर के प्रति मोह-राग कैसे किया जा सकता है? यह शरीर ऊपर से तो मक्खी के पंख समान पतली चमड़ी में मढ़ा हुआ है; इसलिये बाहर से सुन्दर लगता है, किन्तु यदि उसके भीतरी हाल तक विचार किया जाये तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार या राग करना व्यर्थ है।
यहाँ शरीर को मलिन बतलाने का आशय - भेदज्ञान द्वारा शरीर के स्वरूप का ज्ञान कराके, अविनाशी निज पवित्र पद में रुचि करना है, किन्तु शरीर के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न कराने का आशय नहीं। शरीर तो उसके अपने स्वभाव से ही अशुचिमय है और यह भगवान आत्मा निजस्वभाव से ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र चैतन्य पदार्थ है। इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्मा की सन्मुखता द्वारा अपनी पर्याय में शुचिता की (पवित्रता की) वृद्धि करता है वह “अशुचि भावना" है ।।८।।
७. आस्रव भावना
पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितै मैली।
नव द्वार बह घिनकारी, अस देह करे किम यारी ।।८।। अन्वयार्थ :- (जो ) (पल) मांस (रुधिर) रक्त (राध) पीव और (मल) विष्टा की (थैली) थैली है, (कीकस) हड्डी, (वसादित) चरबी आदि से (मैली) अपवित्र है और जिसमें (घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करनेवाले
जो योगन की चपलाई, ताते है आस्रव भाई। आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे।।९।।
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अन्वयार्थ :- (भाई) हे भव्यजीव! (योगन की) योगों की (जो) जो (चपलाई) चंचलता है, (तात) उससे (आस्रव) आस्रव (है) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त (दुःखकार) दुःखदायक है, इसलिये (बुधिवन्त) बुद्धिमान (तिन्हैं) उसे (निरवेरे) दूर करें।
भावार्थ :- विकारी शुभाशुभभावरूप जो अरूपी दशा जीव में होती है, वह भाव-आस्रव है और उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणों का स्वयं-स्वतः आना (आत्मा के साथ एक क्षेत्र में आगमन होना) सो द्रव्य-आस्रव है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्यायें निमित्तमात्र हैं।)
पुण्य और पाप दोनों आस्रव और बन्ध के भेद हैं।
पुण्य :- दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि शुभराग सरागी जीव को होते हैं; वे अरूपी अशुभ भाव हैं और वह भावपुण्य है। तथा उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणों का स्वयं-स्वतः आना (आत्मा के साथ एक क्षेत्र में आगमन होना), सो द्रव्यपुण्य है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र है।)
पाप :- हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि जो अशुभभाव हैं; वह भावपाप है और उस समय कर्मयोग्य पुद्गलों का आगमन होना, सो द्रव्यपाप है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्यायें निमित्त हैं।)।
परमार्थ से (वास्तव में) पुण्य-पाप (शुभाशुभ) आत्मा को अहितकर हैं तथा वह आत्मा की क्षणिक अशुद्ध अवस्था है। द्रव्य पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्मा का हित-अहित नहीं कर सकते - ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीव को होता है और इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के अवलम्बन के बल से जितने अंश में आस्रवभाव को दूर करता है उतने अंश में उसे वीतरागता की वृद्धि होती है; उसे “आस्रव भावना" कहते हैं ॥९॥
८.संवर भावना
जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना। तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।।१०।।
अन्वयार्थ :- (जिन) जिन्होंने (पुण्य) शुभभाव और (पाप) अशुभभाव (नहिं कीना) नहीं किये तथा मात्र (आतम) आत्मा के (अनुभव) अनुभव में [शुद्ध उपयोग में] (चित) ज्ञान को (दीना) लगाया है, (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि) कर्मों को (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके (सुख) सुख का (अवलोके) साक्षात्कार किया है। ___ भावार्थ :- आस्रव का रोकना, सो संवर है। सम्यग्दर्शनादि द्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते हैं। शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग दोनों बन्ध के कारण हैं - ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहले से ही जानता है। यद्यपि साधक को निचली भूमिका में शुद्धता के साथ अल्प शुभाशुभभाव होते हैं; किन्तु वह दोनों को बन्ध का कारण मानता है, इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के आलम्बन द्वारा जितने अंश में शुद्धता करना है उतने अंश में उसे संवर होता है, और वह क्रमशः शुद्धता में वृद्धि करके पूर्ण शुद्धता (संवर) प्राप्त करता है। यह “संवर भावना” है।।१०।।
___९. निर्जरा भावना
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निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ।। ११ ।। अन्वयार्थ :- जो (निज काल) अपनी-अपनी स्थिति (पाय) पूर्ण होने पर (विधि) कर्म (झरना) खिर जाते हैं, (तासों) उससे (निज काज) जीव का धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता; किन्तु (जो) [निर्जरा] ( तप करि) आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा (कर्म) कर्मों का (खिपावे) नाश करती है, [ वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा ] (सोई) वह (शिवसुख) मोक्ष का सुख (दरसावे) दिखलाती है।
भावार्थ :- अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मों का खिर जाना तो प्रतिसमय अज्ञानी को भी होता है; वह कहीं शुद्धि का कारण नहीं होता, परन्तु सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र द्वारा अर्थात् आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं, वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है। तदनुसार शुद्धि की वृद्धि होते-होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है, तब जीव शिवसुख (सुख की पूर्णतारूप मोक्ष) प्राप्त करता है। ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य द्वारा जो शुद्धि की वृद्धि करता है, वह “निर्जरा भावना" है ।। ११ ।।
म्
१०. लोक भावना
किनहू न करौ न धरै को, षड् द्रव्यमयी न हरै को । सो लोकमाहिं बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता ।। १२ ।।
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अन्वयार्थ :- इस लोक को (किनहू) किसी ने (न करौ) बनाया नहीं है, (को) किसी ने (न धरै) टिका नहीं रखा है, (को) कोई (न हरै) नाश नहीं कर सकता; [और यह लोक] (षड् द्रव्यमयी) छह प्रकार के द्रव्यस्वरूप है - छह द्रव्यों से परिपूर्ण है (सो) ऐसे ( लोकमाहिं) लोक में (बिन समता) वीतरागी समता बिना (नित) सदैव (भ्रमता) भटकता हुआ (जीव) जीव (दुख लहै) दुःख सहन करता है।
भावार्थ :- ब्रह्मा आदि किसी ने इस लोक को बनाया नहीं है; विष्णु या शेषनाग आदि किसी ने इसे टिका नहीं रखा है तथा महादेव आदि किसी से यह नष्ट नहीं होता; किन्तु यह छह द्रव्यमय लोक स्वयं से ही अनादि - अनन्त है; छहों द्रव्य नित्य स्व-स्वरूप से स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई पर्यायों (अवस्थाओं) से उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं। एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अधिकार नहीं है। यह छह द्रव्य स्वरूप लोक, वह मेरा स्वरूप नहीं है । वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ; मेरा शाश्वत चैतन्य-लोक ही मेरा स्वरूप है - ऐसा धर्मी जीव विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटाकर, साम्यभाव- वीतरागता बढ़ाने का अभ्यास करता है। यह "लोक भावना" है ।। १२ ।।
११. बोधिदुर्लभ भावना
अंतिम-ग्रीवकलों की हद, पायो अनन्त विरियाँ पद ।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ । । १३ ।। अन्वयार्थ :- (अंतिम) अंतिम-नववें (ग्रीवकलों की हद ) ग्रैवेयक
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तक के (पद) पद (अनन्त विरियाँ) अनन्तबार ( पायो ) प्राप्त किये, तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) प्राप्त न हुआ; (दुर्लभ) ऐसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञान को (मुनि) मुनिराजों ने (निज में) अपने आत्मा में (साधौ ) धारण किया है।
भावार्थ :- • मिथ्यादृष्टि जीव मंद कषाय के कारण अनेक बार ग्रैवेयक तक उत्पन्न होकर अहमिन्द्रपद को प्राप्त हुआ है, परन्तु उसने एकबार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया; क्योंकि सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना वह अपूर्व है; उसे तो स्वोन्मुखता के अनन्त पुरुषार्थ द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरीत अभिप्राय आदि दोषों का अभाव होता है।
सम्यग्दर्शन - ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही होते हैं। पुण्य से, शुभराग से, जड़ कर्मादि से नहीं होते। इस जीव ने बाह्य संयोग, चारों गति के लौकिक पद अनन्तबार प्राप्त किये हैं, किन्तु निज आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी नहीं समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है।
बोधि अर्थात् निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र की एकता; उस बोधि की प्राप्ति प्रत्येक जीव को करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जीव स्व-सन्मुखतापूर्वक ऐसा चितवन करता है और अपनी बोधि और शुद्धि की वृद्धि का बारम्बार अभ्यास करता है । यह “बोधि- दुर्लभ भावना” है ।। १३ ।।
१२. धर्म भावना
जो भाव मोह न्यारे, दृग-ज्ञान-व्रतादिक सारे । सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारे ।। १४ ।।
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अन्वयार्थ :- (मोह तैं) मोह से (न्यारे) भिन्न, (सारे) साररूप अथवा निश्चय (जो ) जो (दृग-ज्ञान-व्रतादिक) दर्शन-ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव हैं, (सो) वह (धर्म) धर्म कहलाता है। (जबे) जब (जिय) जीव (धारै) उसे धारण करता है, (तब ही) तभी वह (अचल सुख) अचल सुख - मोक्ष (निहारै) देखता है प्राप्त करता है।
भावार्थ:- मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान; उससे रहित निश्चयसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ( रत्नत्रय) ही साररूप धर्म है। व्यवहार रत्नत्रय वह धर्म नहीं है - ऐसा बतलाने के लिए यहाँ गाथा में " सारे" शब्द का प्रयोग किया है। जब जीव निश्चय रत्नत्रयस्वरूप धर्म को स्वाश्रय द्वारा प्रकट करता है, तभी वह स्थिर, अक्षयसुख (मोक्ष) प्राप्त करता है । इस प्रकार चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचि की वृद्धि बारम्बार करता है । वह " धर्म भावना" है ।। १४ ।।
आत्मानुभवपूर्वक भावलिंगी मुनि का स्वरूप
सो धर्म मुनिनकरि धरिये, तिनकी करतूत उचरिये । ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी ।। १५ ।। अन्वयार्थ :- (सो) ऐसा रत्नत्रय (धर्म) धर्म (मुनिनकरि) मुनियों द्वारा (धरिये) धारण किया जाता है, (तिनकी) उन मुनियों की करतूत ) क्रियाएँ (उचरिये) कही जाती हैं, (भवि प्रानी) हे भव्यजीवो! (ताको ) उसे ( सुनिये ) सुनो और (अपनी) अपने आत्मा के (अनुभूति) अनुभव को ( पिछानी ) पहिचानो ।
भावार्थ :- निश्चयरत्नत्रयस्वरूप धर्म को भावलिंगी दिगम्बर जैन मुनि ही अंगीकार करते हैं, अन्य कोई नहीं। अब, आगे उन मुनियों के सकलचारित्र का वर्णन किया जाता है। हे भव्यो! उन मुनिवरों का चारित्र सुनो और अपने आत्मा का अनुभव करो ।। १५ ।।
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पाँचवीं ढाल का सारांश ये बारह भावनाएँ चारित्रगुण की आंशिक शुद्ध पर्यायें हैं; इसलिये वे सम्यग्दृष्टि जीव को ही हो सकती हैं। सम्यक् प्रकार से ये बारह प्रकार की भावनाएँ भाने से वीतरागता की वृद्धि होती है; उन बारह भावनाओं का चितवन मुख्यरूप से तो वीतरागी दिगम्बर जैन मुनिराज को ही होता है तथा गौणरूप से सम्यग्दृष्टि को होता है। जिसप्रकार पवन के लगने से अग्नि भभक उठती है, उसीप्रकार अन्तरंग परिणामों की शुद्धता सहित इन भावनाओं का चितवन करने से समताभाव प्रकट होता है और उससे मोक्षसुख प्रकट होता है। स्वोन्मुखतापूर्वक इन भावनाओं से संसार, शरीर और भोगों के प्रति विशेष उपेक्षा होती है और आत्मा के परिणामों की निर्मलता बढ़ती है। (इन बारह भावनाओं का स्वरूप विस्तार से जानना हो तो 'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा', 'ज्ञानार्णव' आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए।)
अनित्यादि चितवन द्वारा शरीरादि को बुरा जानकर, अहितकारी मानकर, उनसे उदास होने का नाम अनुप्रेक्षा नहीं है; क्योंकि यह तो जिसप्रकार पहले किसी को मित्र मानता था, तब उसके प्रति राग था और फिर उसके अवगुण देखकर उसके प्रति उदासीन हो गया। उसीप्रकार पहले शरीरादि से राग था, किन्तु बाद में उनके अनित्यादि अवगुण देखकर उदासीन हो गया; परन्तु ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है। किन्तु अपने तथा शरीरादि के यथावत् स्वरूप को जानकर, भ्रम का निवारण करके, उन्हें भला जानकर राग न करना तथा बुरा जानकर द्वेष न करना - ऐसी यथार्थ उदासीनता के हेतु अनित्यता आदि का यथार्थ चितवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २२९ - श्री टोडरमल स्मारक ग्रन्थमाला से प्रकाशित)।
पाँचवीं ढाल का भेद-संग्रह अनुप्रेक्षा अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, अथवा भावना :- आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म -
ये बारह अनुप्रेक्षा के भेद हैं। इन्द्रियोंके विषय :-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द - ये पाँच हैं। निर्जरा :- के चार भेद हैं :- अकाम, सविपाक, सकाम,
अविपाक। योग :
द्रव्य और भाव। परिवर्तन :- पाँच प्रकार हैं :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। मलद्वार :- दो कान, दो आँखें, दो नासिका छिद्र, एक मुँह तथा
मल-मूत्रद्वार दो - इसप्रकार नौ। वैराग्य :- संसार, शरीर और भोग - इन तीनों से उदासीनता। कुधातु :- पीव, लह, वीर्य, मल, चर्बी, मांस और हड्डी
आदि सात।
पाँचवीं ढाल का लक्षण-संग्रह अनुप्रेक्षा (भावना):- भेदज्ञानपूर्वक संसार, शरीर और भोगादि के स्वरूप का
बारम्बार विचार करके उनके प्रति उदासीनभाव
उत्पन्न करना। अशुभ उपयोग :- हिंसादि में अथवा कषाय, पाप और व्यसनादि निन्दापात्र
कार्यों में प्रवृत्ति। असुरकुमार :- असुर नामक देवगति-नामकर्म के उदयवाले भवनवासी
देव। कर्म :- आत्मा रागादि विकाररूप से परिणमित हो तो उसमें
निमित्तरूप होनेवाले जड़कर्म-द्रव्यकर्म । गति :- नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यरूप जीव की अवस्था
विशेष को गति कहते हैं; उसमें गति नामक नामकर्म
निमित्त है। ग्रैवेयक :- सोलहवें स्वर्ग से ऊपर और प्रथम अनुदिश से नीचे,
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सकलव्रत:
देवों को रहने के स्थान। देवगति को प्राप्त जीवों को देव कहते हैं। वे अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वाशित्व - इन आठ सिद्धि (ऐश्वर्य) वाले होते हैं। उनके मनुष्य समान आकारवाला सप्त कुधातु रहित सुन्दर
वैक्रियक शरीर होता है। धर्म :- दुःख से मुक्ति दिलानेवाला निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग;
जिससे आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है। (रत्नत्रय अर्थात्
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र।) धर्म के भिन्न (१) वस्तु का स्वभाव वह धर्म; (२) अहिंसा; भिन्न लक्षण :- (३) उत्तमक्षमादि दश लक्षण और (४) निश्चयरत्नत्रय । पाप :- मिथ्यादर्शन, आत्माकी विपरीत समझ, हिंसादि
अशुभभाव सो पाप है। पुण्य :- दया, दान, पूजा, भक्ति, व्रतादि के शुभभाव; मंदकषाय,
वह जीव के चारित्रगुण की अशुभ दशा है। पुण्य-पाप
दोनों आस्रव हैं, बन्धन के कारण हैं। बोधि :- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता।
(साधु परमेष्ठी): - समस्त व्यापार से विमुक्त, चार प्रकार की आराधना में सदा लीन, निर्ग्रन्थ और निर्मोह - ऐसे सर्व साधु होते हैं। समस्त भावलिंगी मुनियों को
नग्न दिगम्बर दशा तथा साधु के २८ मूलगुण होते हैं। योग :- मन, वचन, काया के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों का
कम्पन होना, उसे द्रव्ययोग कहते हैं। कर्म और नोकर्म के
ग्रहण में निमित्तरूप जीव की शक्तिको भावयोग कहते हैं। शुभ उपयोग :- देवपूजा, स्वाध्याय, दया, दानादि, अणुव्रत-महाव्रतादि
शुभभावरूप आचरण। ५ महाव्रत, ५ समिति, ६ आवश्यक, ५ इन्द्रियजय, केशलोंच, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़ेखड़े आहार, दिन में एक बार आहार तथा नग्नता आदि का पालन - सो व्यवहार से सकलव्रत है और रत्नत्रय की एकतारूप आत्मस्वभाव में स्थिर होना, सो निश्चय
से सकलव्रत है। सकलव्रती :- (सकलव्रतों के धारक) रत्नत्रय की एकतारूप स्वभाव
में स्थिर रहनेवाले महाव्रत के धारक दिगम्बर मुनि वे निश्चय सकलव्रती हैं।
अन्तर-प्रदर्शन (१) अनुप्रेक्षा और भावना पर्यायवाची शब्द हैं; उनमें कोई अन्तर नहीं है। (२) धर्मभावना में तो बारम्बार विचार की मुख्यता है और धर्म में निज गुणों
में स्थिर होने की प्रधानता है। (३) व्यवहार सकलव्रत में तो पापों का सर्वदेश त्याग किया जाता है और
व्यवहार अणुव्रत में उनका एकदेश त्याग किया जाता है। इतना इन दोनों में अन्तर है।
पाँचवीं ढाल की प्रश्नावली (१) अनित्यभावना, अन्यत्वभावना, अविपाकनिर्जरा, अकामनिर्जरा,
अशरणभावना, अशुचिभावना, आस्रवभावना, एकत्वभावना, धर्मभावना, निश्चयधर्म, बोधिदुर्लभभावना, लोकभावना, संवरभावना,
सकामनिर्जरा, सविपाकनिर्जरा आदि के लक्षण समझाओ। (२) महाव्रत में और अणुव्रत में, अनुप्रेक्षा में और भावना में, धर्म में और
धर्मद्रव्य में, धर्म में और धर्मभावना में तथा एकत्वभावना और
मुनि :
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अन्यत्वभावना में अन्तर बतलाओ ।
(३) अनुप्रेक्षा, अनित्यता, अन्यत्व और अशरणपने का स्वरूप दृष्टान्त सहित समझाओ।
(४) अकाम निर्जरा का निष्प्रयोजनपना, अचल सुख की प्राप्ति, कर्म आस्रव का निरोध, पुण्य के त्याग का उपदेश और सांसारिक सुखों की असारता आदि के कारण बतलाओ ।
(५) अमुक भावना का विचार और लाभ, आत्मज्ञान की प्राप्ति का समय और लाभ, औषधि सेवन की सार्थकता - निरर्थकता, बारह भावनाओं चितवन से लाभ, मंत्रादि की सार्थकता और निरर्थकता । वैराग्य की वृद्धि का उपाय, इन्द्रधनुष तथा बिजली का दृष्टान्त क्या समझाते हैं ? लोक का कर्ता हर्ता मानने से हानि, समता न रखने से हानि, सांस सुख का परिणाम और मोक्ष - सुख की प्राप्ति का समय - आदि का स्पष्ट वजन पीयो धी धारी, जिनवाणी सुधा-सम जानिके ॥ टेक ॥। (६) मावि तथा कुट्टी का अन्य भावार्थ समझाओ। लोक का गौतमा न बना और पाचव्यापी परम सुरुचि करतारी ॥ १ ॥ सलिल समान कलिल - मलगंजन, बुधमनरंजन हारी । भंजन विभ्रम धूलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी ।। २ ।। कल्याणकतरु उपवनधरिनी, तरनि भवजलतारी । बंधविदारन पैनी छैनी, मुक्ति नसैनी सारी ।। ३ ।। स्वपरस्वरूप प्रकाशन को यह, भानुकला अविकारी । मुनिमनकुमुदिनि-मोदनशशिभा, शमसुखसुमन सुवारी ॥४ ॥ जाके सेवत बेवत निजपद, नसत अविद्या सारी । तीन लोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी ।। ५ ।। कोटि जीभ सों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी । 'दौल' अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारन हारी || ६ ||
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(हरिगीत छन्द)
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य महाव्रत के लक्षण षट्काय जीव न हननतें, सब विध दरवहिंसा टरी । रागादि भाव निवारतें, हिंसा न भावित अवतरी ।। जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयो गहैं। अठदश सहस विध शील घर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहें ।। १ ।। अन्वयार्थ :- (षट्काय जीव) छह काय के जीवों को (न हननतें) घात न करने के भाव से (सब विध) सर्व प्रकार की (दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा (टरी) दूर हो जाती है और (रागादि भाव) राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों को (निवार) दूर करने से (भावित हिंसा) भाव हिंसा भी (न अवतरी) नहीं होती, (जिनके) उन मुनियों को (लेश) किंचित् (मृषा) झूठ (न) नहीं होती, (जल) पानी और (मृण) मिट्टी (हू) भी (बिना दीयो) दिये बिना (न गहँ) ग्रहण नहीं करते तथा (अठदश सहस) अठारह हजार ( विध) प्रकार के (शील) शील को - ब्रह्मचर्य को (धर) धारण करके (नित) सदा (चिद्ब्रह्म में) चैतन्यस्वरूप आत्मा में (रमि रहैं) लीन रहते हैं।
भावार्थ:- निश्चयसम्यग्दर्शन- ज्ञानपूर्वक स्वरूप में निरन्तर एकाग्रतापूर्वक रमण करना ही मुनिपना है। ऐसी भूमिका में निर्विकल्प ध्यानदशारूप सातवाँ गुणस्थान बारम्बार आता ही है। छठवें गुणस्थान के समय उन्हें पंच महाव्रत, नग्नता, समिति आदि अट्ठाईस मूलगुण के शुद्धभाव होते हैं, किन्तु उसे वे धर्म नहीं मानते; तथा उस काल भी उन्हें तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्ध परिणति निरन्तर वर्तती ही है।
छह काय (पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर काय तथा एक त्रस काय) के जीवों का घात करना, सो द्रव्यहिंसा है और राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान
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इत्यादि भावों की उत्पत्ति होना, सो भावहिंसा है। वीतरागी मुनि (साधु) यह दो प्रकार की हिंसा नहीं करते, इसलिये उनको (१) अहिंसा महाव्रत होता है। स्थूल या सूक्ष्म - ऐसे दोनों प्रकार के झूठ वे नहीं बोलते, इसलिये उनको (२) सत्य महाव्रत होता है। अन्य किसी वस्तु की तो बात ही क्या, किन्तु मिट्टी
और पानी भी दिये बिना ग्रहण नहीं करते, इसलिये उनको (३) अचौर्यमहाव्रत होता है। शील के अठारह हजार भेदों का सदा पालन करते हैं और चैतन्यरूप
आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं, इसलिये उनको (४) ब्रह्मचर्य (आत्मस्थिरतारूप) महाव्रत होता है।।१।।
परिग्रह त्याग महाव्रत, ईर्या समिति और भाषा समिति अंतर चतुर्दस भेद बाहिर, संग दसधा तैं टलैं। परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्या तैं चलैं ।। जग-सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं। भ्रमरोग-हर जिनके वचन-मुखचन्द्र तैं अमृत झरे ।।२।।
१. यहाँ वाक्य बदलने से महाव्रतों के लक्षण बनते हैं। जैसे कि - दोनों प्रकार की हिंसा न
करना, सो अहिंसा महाव्रत है - इत्यादि । २. अदत्त वस्तुओं का प्रमाद से ग्रहण करना ही चोरी कहलाती है; इसलिये प्रमाद न होने पर भी
मुनिराज नदी तथा झरने आदि का प्रासुक हुआ जल, भस्म (राख) तथा अपने आप गिरे हुए सेमल के फल और तुम्बीफल आदि का ग्रहण कर सकते हैं - ऐसा "श्लोकवार्तिकालंकार" का अभिमत है। (पृष्ठ ४६३)
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मुनि को किंचित् राग होने पर गमनादि क्रियाएँ होती हैं, वहाँ उन क्रियाओं में अति आसक्ति के अभाव से प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती तथा दूसरे जीवों को दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन सिद्ध नहीं करते, इसलिये उनसे स्वयं दया का पालन होता है - इसप्रकार सच्ची समिति है। मोक्षमार्ग-प्रकाशक (देहली) पृष्ठ ३३५)।।२।।
एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावकतनैं घर अशन को। लैं तप बढ़ावन हेतु, नहिं तन-पोषते तजि रसन को।। शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिकै गहैं लखिमैं धरै। निर्जन्तु थान विलोकि तन-मल मूत्र श्लेष्म परिहरै।।३।।
अन्वयार्थ :- [वे वीतरागी दिगम्बर जैन मुनि (चतुर्दस भेद) चौदह प्रकार के (अन्तर) अन्तरंग तथा (दसधा) दस प्रकार के (बाहिर) बहिरंग (संग) परिग्रह से (टलैं) रहित होते हैं । (परमाद) प्रमाद-असावधानी (तजि) छोड़कर (चौकर) चार हाथ (मही) जमीन (लखि) देखकर (ईर्या) ईर्या (समिति तैं) समिति से (चलैं) चलते हैं और (जिनके) जिन मुनिराजों के (मुखचन्द्र 6) मुखरूपी चन्द्र से (जग सुहितकर) जगत का सच्चा हित करनेवाला तथा (सब अहितहर) सर्व अहित का नाश करनेवाला, (श्रुति सुखद) सुनने में प्रिय लगे - ऐसा (सब संशय) समस्त संशयों का (हरें) नाशक और (भ्रम रोगहर) मिथ्यात्वरूपी रोग को हरनेवाला (वचन अमृत) वचनरूपी अमृत (झरे) झरता है।।
भावार्थ :- वीतरागी मुनि चौदह प्रकार के अन्तरंग और दश प्रकार के बहिरंग परिग्रहों से रहित होते हैं, इसलिये उनको (५) परिग्रहत्याग महाव्रत होता है। दिन में सावधानीपूर्वक चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलने का विकल्प उठे, वह (१) ईर्या समिति है तथा जिसप्रकार चन्द्रमा से शीतलतारूप अमृत झरता है, उसीप्रकार मुनि के मुखचन्द्र से जगत का हित करनेवाले, सर्व अहित का नाश करनेवाले, सुनने में सुखकर, सर्व प्रकार की शंकाओं को दूर करनेवाले और मिथ्यात्व (विपरीतता या सन्देह) रूपी रोग का नाश करनेवाले ऐसे अमृतवचन निकलते हैं । इसप्रकार समितिरूप बोलने का विकल्प मुनि को उठता है, वह (२) भाषा समिति है।।
प्रश्न :- सच्ची समिति किसे कहते हैं? ।
उत्तर :- पर जीवों की रक्षा हेतु यत्नाचार प्रवृत्ति को अज्ञानी जीव समिति मानते हैं; किन्तु हिंसा के परिणामों से तो पापबन्ध होता है। यदि रक्षा के परिणामों से संवर कहोगे तो पुण्यबन्ध का कारण क्या सिद्ध होगा?
तथा मुनि एषणा समिति में दोष को टालते हैं; वहाँ रक्षा का प्रयोजन नहीं है, इसलिये रक्षा के हेतु ही समिति नहीं है तो फिर समिति किसप्रकार होती है?
१. ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान ।
प्रतिष्ठापना जुतक्रिया, पाँचों समिति विधान ।।
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रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने; तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने ।।४।।
अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि (सुकुल) उत्तम कुलवाले (श्रावकतनैं) श्रावक के घर और (रसन को) छहों रस अथवा एक-दो रसों को (तजि) छोड़कर (तन) शरीर को (नहिं पोषते) पुष्ट न करते हुए - मात्र (तप) तप की (बढ़ावन हेतु) वृद्धि करने के हेतु से [आहार के] (छ्यालीस) छियालीस (दोष बिना) दोषों को दूर करके (अशन को) भोजन को (लैं) ग्रहण करते हैं । (शुचि) पवित्रता के (उपकरण) साधन कमण्डल को (ज्ञान) ज्ञान के (उपकरण) साधन शास्त्र को तथा (संयम) संयम के (उपकरण) साधन पीछी को (लखिकैं) देखकर (गहैं) ग्रहण करते हैं [और] (लखिकैं) देखकर (धरै) रखते हैं [और] (तन) शरीर का (मल) विष्टा (मूत्र) पेशाब (श्लेष्म) थूक को (निर्जन्तु थान) जीव रहित स्थान (विलोकि) देखकर (परिहरैं) त्यागते हैं। __ भावार्थ :- वीतरागी जैन मुनि-साधु उत्तम कुलवाले श्रावक के घर, आहार के छियालीस दोषों को टालकर तथा अमुक रसों का त्याग करके [अथवा स्वाद का राग न करके शरीर को पुष्ट करने का अभिप्राय न रखकर, मात्र तप की वृद्धि करने के लिए आहार ग्रहण करते हैं; इसलिये उनको (३) एषणासमिति होती है। पवित्रता के साधन कमण्डल को, ज्ञान के साधन शास्त्र को और संयम के साधन पीछी को-जीवों की विराधना बचाने हेत देखभाल कर रखते हैं तथा उठाते हैं। इसलिये उनको (४) आदान-निक्षेपण समिति होती है। मल-मूत्र-कफ आदि शरीर के मैल को जीवरहित स्थान देखकर त्यागते हैं; इसलिये उनको (५) व्युत्सर्ग अर्थात् प्रतिष्ठापन समिति होती है।।३।।
मुनियों की तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियों पर विजय सम्यक प्रकार निरोध मन वच काय, आतम ध्यावते:
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते । १. आहार के दोषों का विशेष वर्णन “अनगार धर्मामृत" तथा "मूलाचार" आदि शास्त्रों में
देखें। उन दोषों को टालने हेतु दिगम्बर साधुओं को कभी महीनों तक भोजन न मिले, तथापि मुनि किंचित् खेद नहीं करते; अनासक्त और निर्मोह-हठरहित सहज होते हैं। (कायर मनुष्यों - अज्ञानियों को ऐसा मुनिव्रत कष्टदायक प्रतीत होता है, ज्ञानी को वह सुखमय लगता है।)
अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि] (मन वच काय) मन-वचन-काया का (सम्यक् प्रकार) भलीभाँति (निरोध) निरोध करके, जब (आतम)अपने आत्मा का (ध्यावते) ध्यान करते हैं, तब (तिन) उन मुनियों की (सुथिर) सुस्थिर-शांत (मुद्रा) अवस्था (देखि) देखकर, उन्हें (उपल) पत्थर समझकर (मृगगण) हिरन अथवा चौपाये प्राणियों के समूह (खाज) अपनी खाजखुजली को (खुजावते) खुजाते हैं। [जो] (शुभ) प्रिय और (असुहावने) अप्रिय [पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी] (रस) पाँच रस (रूप) पाँच वर्ण (गंध) दो गन्ध, (फरस) आठ प्रकार के स्पर्श (अरु) और (शब्द) शब्द (तिनमें) उन सबमें (राग-विरोध) राग या द्वेष (न) मुनि को नहीं होते, [इसलिये वे मुनि (पंचेन्द्रिय जयन) पाँच इन्द्रियों को जीतनेवाला अर्थात् जितेन्द्रिय (पद) पद (पावने) प्राप्त करते हैं।
भावार्थ :- इस गाथा में निश्चय गुप्ति का तथा भावलिंगी मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों में पाँच इन्द्रियों की विजय के स्वरूप का वर्णन करते हैं।
भावलिंगी मुनि जब उग्र पुरुषार्थ द्वारा शुद्धोपयोगरूप परिणमित होकर निर्विकल्प रूप में स्वरूप में गुप्त होते हैं - वह निश्चय गुप्ति है। उस समय मन-वचन-काय की क्रिया स्वयं रुक जाती है। उनकी शांत और अचल मुद्रा
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देखकर, उनके शरीर को पत्थर समझकर मृगों के झुण्ड (पशु) खाज (खुजली) खजाते हैं, तथापि वे मनि अपने ध्यान में निश्चल रहते हैं। उन भावलिंगी मुनियों को तीन गुप्तियाँ हैं।
प्रश्न :- गुप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर :- मन-वचन-काया की बाह्य चेष्टा मिटाना चाहे, पाप का चितवन न करे, मौन धारण करे तथा गमनादि न करे; उसे अज्ञानी जीव गुप्ति मानते हैं। उस समय मन में तो भक्ति आदिरूप अनेक प्रकार के शुभरागादि विकल्प उठते हैं; इसलिये प्रवृत्ति में तो गुप्तिपना हो नहीं सकता। (सम्यग्दर्शन-ज्ञान और आत्मा में लीनता द्वारा) वीतरागभाव होने पर जहाँ (मन-वचन-काया की चेष्टा न हो, वही गुप्ति है । (मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृष्ठ २३५)।
मुनि प्रिय (अनुकूल) और अप्रिय (प्रतिकूल) पाँच इन्द्रियों के पाँच रस, पाँच रूप, दो गंध, आठ स्पर्श तथा शब्दरूप विषयों में राग द्वेष नहीं करते। इसप्रकार (५) पाँच इन्द्रियों को जीतने के कारण वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं।४॥
मुनियों के छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण समता सम्हाएँ, थुति उचारे, वन्दना जिनदेव को। नित करें श्रुति-रति, करें प्रतिक्रम, तजैंतन अहमेव को।। जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अम्बर आवरन ।
भूमाहिं पिछली रयनि में कछु शयन एकासन करन ।।५।।
अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि] (नित) सदा (समता) सामायिक (सम्हारे) सम्हालकर करते हैं, (थुति) स्तुति (उचारै) बोलते हैं (जिनदेव को) जिनेन्द्र १. इस सम्बन्ध में सुकुमाल मुनि का दृष्टान्तः - जब वे ध्यान में लीन थे, उस समय एक
सियासिनी और उसके दो बच्चे उनका आधा पैर खा गये थे, किन्तु वे अपने ध्यान से किंचित् चलायमान नहीं हुए। (संयोग से दुःख होता ही नहीं, शरीरादि में ममत्व करे तो उस ममत्व भाव से ही दुःख का अनुभव होता है - ऐसा समझना।)
भगवान की (वन्दना) वन्दना करते हैं, (श्रुतिरति) स्वाध्याय में प्रेम (करें) करते हैं, (प्रतिक्रम) प्रतिक्रमण (क) करते हैं, (तन) शरीर की (अहमेव को) ममता को (त6) छोड़ते हैं। (जिनके) जिन मुनियों को (न्हौन) स्नान
और (दंतधोवन) दाँतों को स्वच्छ करना (न) नहीं होता, (अंबर आवरन) शरीर ढंकने के लिए वस्त्र (लेश) किंचित् भी उनके (न) नहीं होता और (पिछली रयनि में) रात्रि के पिछले भाग में (भूमाहि) धरती पर (एकासन) एक करवट (कछु) कुछ समय तक (शयन) शयन (करन) करते हैं।
भावार्थ :- वीतरागी मुनि सदा (१) सामायिक, (२) सच्चे देव-गुरुशास्त्र की स्तुति, (३) जिनेन्द्र भगवान की वन्दना, (४) स्वाध्याय, (५) प्रतिक्रमण, (६) कायोत्सर्ग (शरीर के प्रति ममता का त्याग) करते हैं; इसलिये उनको छह आवश्यक होते हैं और वे मुनि कभी भी (१) स्नान नहीं करते, (२) दाँतों की सफाई नहीं करते, (३) शरीर को ढंकने के लिए थोड़ासा भी वस्त्र नहीं रखते तथा (४) रात्रि के पिछले भाग में एक करवट से भूमि पर कुछ समय शयन करते हैं ।।५।।
मुनियों के शेष गुण तथा राग-द्वेष का अभाव इक बार दिन में लें अहार, खड़े अलप निज-पान में। कचलोंच करत न डरत परिषह सौं, लगे निज ध्यान में ।।
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अरि मित्र महल मसान कंचन, काँच निन्दन थुति करन । अर्घावतारन असि-प्रहारन में सदा समता धरन ।। ६ ।।
अन्वयार्थ :- [ वे वीतराग मुनि ] (दिन में) दिन में (इकबार ) एकबार (खड़े) खड़े रहकर और (निज-पान में) अपने हाथ में रखकर (अल्प) थोड़ा-सा (आहार) आहार (लें) लेते हैं; (कचलोंच) केशलोंच ( करत) करते हैं, (निज ध्यान में) अपने आत्मा के ध्यान में (लगे) तत्पर होकर (परिषह सौं) बाईस प्रकार के परिषहों से ( न डरत) नहीं डरते और (अरि मित्र) शत्रु या मित्र, ( महल मसान) महल या श्मशान, (कंचन काँच) सोना या काँच (निन्दन श्रुति करन) निन्दा या स्तुति करनेवाले, (अर्घावतारन) पूजा करनेवाले और (असि प्रहारन ) तलवार से प्रहार करनेवाले, उन सब में (सदा सदा (समता) समताभाव (धरन) धारण करते हैं।
भावार्थ :- [वे वीतराग मुनि ] (५) दिन में एकबार (६) खड़े-खड़े अपने हाथ में रखकर थोड़ा आहार लेते हैं; (७) केश का लोंच करते हैं;
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आत्मध्यान में मग्न रहकर परिषहों से नहीं डरते अर्थात् बाईस प्रकार के परिषहों पर विजय प्राप्त करते हैं तथा शत्रु-मित्र, महल - श्मशान, सुवर्ण-काँच, निन्दक और स्तुति करनेवाले इन सबमें समभाव (राग-द्वेष का अभाव ) रखते हैं अर्थात् किसी पर राग-द्वेष नहीं करते ।
प्रश्न :- सच्चा परिषह-जय किसे कहते हैं?
उत्तर :- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कारपुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और अज्ञान ये बाईस प्रकार के परिषह हैं। भावलिंगी मुनि को प्रतिसमय तीन कषाय का (अनन्तानुबन्धी आदि का ) अभाव होने से स्वरूप में सावधानी के कारण जितने अंश में राग-द्वेष की उत्पत्ति नहीं होती, उतने अंश में उनका निरन्तर परिषह - जय होता है। क्षुधादि लगने पर उसके नाश का उपाय न करना, उसे (अज्ञानी जीव ) परिषह सहन कहते हैं। वहाँ उपाय तो नहीं किया; किन्तु अंतरंग में क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मिलने से दुःखी हुआ तथा रति आदि का कारण मिलने से सुखी हुआ किन्तु वे तो दुःख - स्वरूप परिणाम है और आर्त-रौद्रध्यान हैं; ऐसे भावों से संवर किस प्रकार हो सकता है?
प्रश्न :- तो फिर परिषह-जय किसप्रकार होता है?
उत्तर :- तत्त्वज्ञान के अभ्यास से कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट भासित न हो; दुःख के कारण मिलने से दुःखी न हो तथा सुख के कारण मिलने से सुखी न हो, किन्तु ज्ञेयरूप से उसका ज्ञाता ही रहे; वही सच्चा परिषहजय है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ ३३६) । ६ ।
मुनियों के तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरणचारित्र
तप तपैं द्वादश, धरै वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा । मुनि साथ में वा एक विचरें चहैं नहिं भवसुख कदा ॥।
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यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब । जिस होत प्रकटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब ।।७।।
अन्वयार्थ :- [वे वीतरागी मुनि सदा] (द्वादश) बारह प्रकार के (तप तपैं) तप करते हैं; (दश) दश प्रकार के (वृष) धर्म को (धरै) धारण करते हैं
और (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का (सदा) सदा (सेवै) सेवन करते हैं। (मुनि साथ में) मुनियों के संघ में (वा) अथवा (एक) अकेले (विच) विचरते हैं और (कदा) किसी भी समय (भवसुख) सांसारिक सुखों की (नहिं चहैं) इच्छा नहीं करते । (यों) इसप्रकार (सकल संयम चरित) सकल संयम चारित्र (है) है; (अब) अब (स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र सुनो । (जिस) जिस चारित्र के स्वरूप में रमणतारूप चारित्र] (होत) प्रकट होने से (आपनी) अपने आत्मा की (निधि) ज्ञानादिक सम्पत्ति (प्रकट) प्रकट होती है तथा (पर की) परवस्तुओं की ओर की (सब) सर्व प्रकार की (प्रवृत्ति) प्रवृत्ति (मिटै) मिट जाती है। अब से (स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र को सुनो।
भावार्थ :- (१) भावलिंगी मुनि का शुद्धात्मस्वरूप में लीन रहकर प्रतपना-प्रतापवन्त वर्तना, सो तप है। तथा हठरहित बारह प्रकार के तप के शुभ विकल्प होते हैं, वह व्यवहार तप है। वीतरागभावरूप उत्तमक्षमादि परिणाम सो धर्म है। भावलिंगी मुनि को उपर्युक्तानुसार तप और धर्म का आचरण होता है। वे मुनियों के संघ में अथवा अकेले विहार करते हैं; किसी भी समय सांसारिक सुख की इच्छा नहीं करते । - इसप्रकार सकलचारित्र का स्वरूप कहा।
(२) अज्ञानी जीव अनशनादि तप से निर्जरा मानते हैं; किन्तु मात्र बाह्य तप करने से तो निर्जरा होती नहीं है। शुद्धोपयोग निर्जरा का कारण है, इसलिये उपचार से तप को भी निर्जरा का कारण कहा है। यदि बाह्य दुःख सहन करना ही निर्जरा का कारण हो, तब तो पशु आदि भी क्षुधा-तृषा सहन करते हैं।
प्रश्न :- वे तो पराधीनतापूर्वक सहन करते हैं। जो स्वाधीनरूप से धर्मबुद्धिपूर्वक उपवासादि तप करे, उसे तो निर्जरा होती है न?
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उत्तर :- धर्मबुद्धि से बाह्य उपवासादि करे तो वहाँ उपयोग तो अशुभ, शुभ या शुद्धरूप - जिसप्रकार जीव परिणमे, परिणमित होगा; उपवास के प्रमाण में यदि निर्जरा हो तो निर्जरा का मुख्य कारण उपवासादि सिद्ध हो, किन्तु ऐसा तो हो नहीं सकता; क्योंकि परिणाम दुष्ट होने पर उपवासादि करने से भी, निर्जरा कैसे सम्भव हो सकती है? यहाँ यदि ऐसा कहोगे कि - जैसे अशुभ, शुभ या शुद्धरूप उपयोग परिणमित हो, तदनुसार बन्ध-निर्जरा हैं तो उपवासादि तप निर्जरा का मुख्य कारण कहाँ रहा? - वहाँ अशुभ और शुभ परिणाम तो बन्ध के कारण सिद्ध हुए तथा शुद्ध परिणाम निर्जरा का कारण सिद्ध हुआ।
प्रश्न :- यदि ऐसा है तो अनशनादि को तप की संज्ञा किसप्रकार कही गई?
उत्तर :- उन्हें बाह्य-तप कहा है; बाह्य का अर्थ यह है कि बाह्य में दूसरों को दिखाई दे कि यह तपस्वी है; किन्तु स्वयं तो जैसे अंतरंग-परिणाम होंगे, वैसा ही फल प्राप्त करेगा।
(३) तथा अंतरंग तपों में भी प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप क्रिया में बाह्य प्रवर्तन है, वह तो बाह्य-तप जैसा ही जानना; जैसी बाह्य-क्रिया है, उसीप्रकार यह भी बाह्य-क्रिया है; इसलिये प्रायश्चित्त आदि बाह्य-साधन भी अन्तरंग तप नहीं हैं।
परन्तु ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अंतरंग परिणामों की शुद्धता हो, उसका नाम अन्तरंग तप जानना; और वहाँ तो निर्जरा ही है, वहाँ बन्ध नहीं होता तथा उस शुद्धता का अल्पांश भी रहे तो जितनी शुद्धता हुई, उससे तो निर्जरा है तथा जितना शुभभाव है, उससे बन्ध है । इसप्रकार अनशनादि क्रिया को उपचार से तप संज्ञा दी गई है - ऐसा जानना और इसलिये उसे व्यवहारतप कहा है। व्यवहार और उपचार का एक ही अर्थ है।
अधिक क्या कहें? इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है तथा अन्य अनेक प्रकार के भेद निमित्त की अपेक्षा से उपचार से कहे हैं; उन्हें व्यवहारमात्र धर्म संज्ञा जानना । इस रहस्य को (अज्ञानी) नहीं जानता, इसलिये
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उसे निर्जरा का - तप का भी सच्चा श्रद्धान नहीं है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ २३३, टोडरमल स्मारक ग्रन्थमाला से प्रकाशित)।
प्रश्न :- क्रोधादिक का त्याग और उत्तम क्षमादि धर्म कब होता है?
उत्तर :- बन्धादि के भय से अथवा स्वर्ग-मोक्ष की इच्छा से (अज्ञानी जीव) क्रोधादिक नहीं करता, किन्तु वहाँ क्रोध-मानादि करने का अभिप्राय तो गया नहीं है। जिसप्रकार कोई राजादि के भय से अथवा बड़प्पन-प्रतिष्ठा के लोभ से परस्त्री सेवन नहीं करता तो उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता, उसीप्रकार यह भी क्रोधादि का त्यागी नहीं है । तो फिर किसप्रकार त्यागी होता है? - कि पदार्थ इष्ट-अनिष्ट भासित होने पर क्रोधादि होते हैं, किन्तु जब तत्त्वज्ञान के अभ्यास से कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयं क्रोधादिक की उत्पत्ति नहीं होती और तभी सच्चे क्षमादि धर्म होते हैं । (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ २२९ - टोडरमल स्मारक ग्रन्थमाला से प्रकाशित)।
(४) अब, आठवें छन्द में स्वरूपाचरणचारित्र का वर्णन करेंगे, उसे सुनो कि जिसके प्रकट होने से आत्मा की अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य आदि शक्तियों का पूर्ण विकास होता है और परपदार्थ की ओर की सर्वप्रकार की प्रवृत्ति दूर होती है - वह स्वरूपाचरणचारित्र है।
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया। वरणादि अरु रागादित निज भाव को न्यारा किया ।। निजमाहिं निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मँझार कछु भेद न रह्यो ।।८।।
अन्वयार्थ :- (जिन) जो वीतरागी मुनिराज (परम) अत्यन्त (पैनी) तीक्ष्ण (सुबुधि) सम्यग्ज्ञान अर्थात् भेदविज्ञानरूपी (छैनी) 'छैनी (डारि)
पटककर (अन्तर) अन्तरंग में (भेदिया) भेद करके (निजभाव को) आत्मा के वास्तविक स्वरूप को (वरणादि) वर्ण, रस, गन्ध तथा स्पर्शरूप द्रव्यकर्म से (अरु) और (रागादित) राग-द्वेषादिरूप भावकर्म से (न्यारा किया) भिन्न करके (निजमाहि) अपने आत्मा में (निज के हेतु) अपने लिए (निजकर) अपने द्वारा (आपको) आत्मा को (आप) स्वयं अपने से (गह्यो) ग्रहण करते हैं; तब (गुणी) गुण, (गुणो) गुणी, (ज्ञाता) ज्ञाता, आत्मा में (ज्ञेय) ज्ञान का विषय और (ज्ञान मँझार) ज्ञान में (कछु भेद न रह्यो) किंचित्मात्र भेद [विकल्प] नहीं रहता।
भावार्थ :- जिसप्रकार कोई पुरुष तीक्ष्ण छैनी द्वारा पत्थर आदि के दो भाग पृथक्-पृथक् कर देता है, उसीप्रकार स्वरूपाचरणचारित्र का आचरण करते समय वीतरागी मुनि अपने अन्तरंग में भेदविज्ञानरूपी छैनी द्वारा अपने आत्मा के स्वरूप को द्रव्यकर्म से तथा शरीरादिक नोकर्म से और रागद्वेषादिरूप भावकर्मों से भिन्न करके अपने आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा को स्वयं जानते हैं; तब उनके स्वानुभव में गुण, गुणी तथा ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय - ऐसे कोई भेद नहीं रहते ।।८।।
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प.वच भेद न जहाँ। चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ।। तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दशा। प्रकटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एकै लसा ।।९।।
१. जिसप्रकार छैनी लोहे को काटकर दो टुकड़े कर देती है, उसीप्रकार शुद्धोपयोग कर्मों को
काटता है और आत्मा से उन कर्मों को पृथक् कर देता है।
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स्वरूपाचरणचारित्र का लक्षण और निर्विकल्प ध्यान परमाण नय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखै । दृग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जुमो विखै ।। मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनिरौं । चित् पिंड चंड अखंड सुगुणकरंड च्युत पुनि कलनितें ।।१०।।
अन्वयार्थ :- (जहँ) जिस स्वरूपाचरणचारित्र में (ध्यान) ध्यान (ध्याता) ध्याता और (ध्येय को) ध्येय - इन तीन के (विकल्प) भेद (न) नहीं होते तथा (जहाँ) जहाँ (वच) वचन का (भेद न) विकल्प नहीं होता, (तहाँ) वहाँ तो (चिद्भाव) आत्मा का स्वभाव ही (कर्म) कर्म, (चिदेश) आत्मा ही (करता) कर्ता, (चेतना) चैतन्यस्वरूप आत्मा ही (किरिया) क्रिया होता है - अर्थात कर्ता, कर्म और क्रिया - ये तीनों (अभिन्न) भेदरहित - एक, (अखिन्न) अखण्ड [बाधारहित] हो जाते हैं और (शुध उपयोग की) शुद्ध उपयोग की (निश्चल) निश्चल (दशा) पर्याय (प्रकटी) प्रकट होती है; (जहाँ) जिसमें (दृग-ज्ञान-व्रत) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (ये तीनधा) ये तीनों (एकै) एकरूप - अभेदरूप से (लसा) शोभायमान होते हैं।
भावार्थ :- वीतरागी मुनिराज स्वरूपाचरण के समय जब आत्मध्यान में लीन हो जाते हैं; तब ध्यान, ध्याता और ध्येय - ऐसे भेद नहीं रहते, वचन का विकल्प भी नहीं होता । वहाँ (आत्मध्यान में) तो आत्मा ही 'कर्म, आत्मा ही कर्ता और आत्मा का भाव, वह ही क्रिया होती है अर्थात् कर्ता, कर्म और क्रिया - वे तीनों बिलकुल अखण्ड, अभिन्न हो जाते हैं और शुद्धोपयोग की अचल दशा प्रकट होती है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक साथ-एकरूप होकर प्रकाशमान होते हैं।।९।। १. कर्म = कर्ता द्वारा हुआ कार्य; कर्ता = स्वतंत्ररूप से करे, सो कर्ता; क्रिया = कर्ता द्वारा
होनेवाली प्रवृत्ति।
अन्वयार्थ :- [उस स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनियों के (अनुभव में) आत्मानुभव में (परमाण) प्रमाण, (नय) नय और (निक्षेप को) निक्षेप का विकल्प (उद्योत) प्रकट (न दिखै) दिखाई नहीं देता; [परन्तु ऐसा विचार होता है कि] (मैं) मैं (सदा) सदा (दृग-ज्ञान-सुख-बलमय) अनन्तदर्शनअनन्तज्ञान-अनन्तसुख और अनन्तवीर्यमय हूँ। (मो विखै) मेरे स्वरूप में (आन) अन्य राग-द्वेषादि (भाव) भाव (नहिं) नहीं हैं, (मैं) मैं (साध्य) साध्य, (साधक) साधक तथा (कर्म) कर्म (अरु) और (तसु) उसके (फलनितें) फलों के (अबाधक) विकल्परहित (चित् पिंड) ज्ञान-दर्शनचेतनास्वरूप (चंड) निर्मल तथा ऐश्वर्यवान (अखंड) अखंड (सुगुण करंड) सुगुणों का भंडार (पुनि) और (कलनित) अशुद्धता से (च्युत) रहित हूँ।
भावार्थ :- इस स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनियों के आत्मानुभव में प्रमाण, नय और निक्षेप का विकल्प तो उठता ही नहीं, किन्तु गुण-गुणी का भेद भी नहीं होता - ऐसा ध्यान होता है। प्रथम ऐसा ध्यान होता है कि मैं
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अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप हूँ; मुझमें कोई रागादिक भाव नहीं हैं; मैं ही साध्य हूँ, मैं ही साधक हूँ और कर्म तथा कर्मफल से पृथक् हूँ। मैं ज्ञान-दर्शन-चेतनास्वरूप निर्मल ऐश्वर्यवान तथा अखण्ड, सहज शुद्ध गुणों का भण्डार और पुण्य-पाप से रहित हूँ।
तात्पर्य यह है कि सर्व प्रकार के विकल्पों से रहित निर्विकल्प आत्मस्थिरता को स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं।।१०।।
स्वरूपाचरणचारित्र और अरिहन्त दशा यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रकैं नाहीं कह्यो ।। तब ही शुकल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो। सबलख्यो केवलज्ञानकरि, भविलोक को शिवमग कहो।।११।।
समस्त पदार्थों के सर्वगुण तथा पर्यायों को (लख्यो) प्रत्यक्ष जान लेते हैं, तब (भविलोक को) भव्यजीवों को (शिवमग) मोक्षमार्ग (कह्यो) बतलाते हैं।
भावार्थ :- इस स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनिराज जब उपर्युक्तानुसार चितवन - विचार करके आत्मा में लीन हो जाते हैं; तब उन्हें जो आनन्द होता है, वैसा आनन्द इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र (चक्रवर्ती) या अहमिन्द्र (कल्पातीत देव) को भी नहीं होता । यह स्वरूपाचरणचारित्र प्रकट होने के पश्चात् स्वद्रव्य में उग्र एकाग्रता से - शुक्लध्यानरूप अग्नि द्वारा - चार घातिकर्मों का नाश होता है और अरिहन्त दशा तथा केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, जिसमें तीनकाल
और तीनलोक के समस्त पदार्थ स्पष्ट ज्ञात होते हैं और तब भव्यजीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं।।११।।
अन्वयार्थ :- [स्वरूपाचरणचारित्र में] (यों) इसप्रकार (चिन्त्य) चितवन करके (निज में) आत्मस्वरूप में (थिर भये) लीन होने पर (तिन) उन मुनियों को (जो) जो (अकथ) कहा न जा सकें - ऐसा - वचन से पार - (आनंद) आनंद (लह्यो) होता है (सो) वह आनन्द (इन्द्र) इन्द्र को, (नाग) नागेन्द्र को, (नरेन्द्र) चक्रवर्ती को (वा अहमिन्द्र को) या अहमिन्द्र को (नाहीं कहो) कहने में नहीं आया - नहीं होता। (तब ही) वह स्वरूपाचरणचारित्र प्रकट होने के पश्चात् जब (शुकल ध्यानाग्नि करि) शुक्लध्यानरूपी अग्नि द्वारा (चउघाति विधि कानन) चार घातिकर्मोंरूपी वन (दह्यो) जल जाता है और (केवलज्ञानकरि) केवलज्ञान से (सब) तीनकाल और तीनलोक में होनेवाले
१. घातिकर्म दो प्रकार के हैं - द्रव्य-घातिकर्म और भाव-घातिकर्म । उनमें शुक्लध्यान द्वारा
शुद्ध दशा प्रकट होने पर भाव-घातिकर्मरूप अशुद्ध पर्यायें उत्पन्न नहीं होतीं, वह भावघातिकर्म का नाश है तथा उसीप्रकार द्रव्य-घातिकर्म का स्वयं अभाव होता है, वह द्रव्य-घातिकर्म का नाश है।
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सिद्धदशा (सिद्ध स्वरूप) का वर्णन
पुनिघाति शेष अघाति विधि, छिनमाहिं अष्टम भू वरौं । वसु कर्म विनसँ सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं ।। संसार खार अपार पारावार तरि तीरहिं गये। अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये ।। १२ ।।
अन्वयार्थ :- (पुनि) केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् (शेष) शेष चार (अघाति विधि) अघातिया कर्मों का (घाति) नाश करके (छिनमाहिं) कुछ ही समय में (अष्टम भू) आठवीं पृथ्वी - ईषत् प्राग्भार - मोक्ष क्षेत्र में (वसैं) निवास करते हैं; उनको (वसु कर्म) आठ कर्मों का (विनसें) नाश हो जाने से (सम्यक्त्व आदिक ) सम्यक्त्वादि (सब) समस्त (वसु सुगुण) आठ मुख्य गुण (लसैं) शोभायमान होते हैं। [ऐसे सिद्ध होनेवाले मुक्तात्मा] (संसार खार अपार पारावार) संसाररूपी खारे तथा अगाध समुद्र को (तरि) पार करके (तीरहिं) किनारे पर (गये) पहुँच जाते हैं और (अविकार) विकाररहित, (अकल) शरीररहित, (अरूप) रूपरहित, (शुचि) शुद्ध - निर्दोष ( चिद्रूप) दर्शन - ज्ञान - चेतनास्वरूप तथा (अविनाशी) नित्य-स्थायी (भये) होते हैं।
भावार्थ :- अरिहन्त दशा अथवा केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उस जीव को भी जिन गुणों की पर्यायों में अशुद्धता होती है, उनका क्रमशः अभाव कर वह जीव पूर्ण शुद्ध दशा को प्रकट करता है और उससमय असिद्धत्व नामक अपने उदयभाव का नाश होता है तथा चार अघाति कर्मों का भी स्वयं
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सर्वथा अभाव हो जाता है। सिद्धदशा में सम्यक्त्वादि आठ गुण (गुणों की निर्मल पर्यायें) प्रकट होते हैं। मुख्य आठ गुण व्यवहार से कहे हैं; निश्चय से तो अनन्त गुण (सर्व गुणों की पर्यायें) शुद्ध होते हैं और स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन के कारण एक समयमात्र में लोकाग्र में पहुँचकर वहाँ स्थिर रह जाते हैं। ऐसे जीव संसाररूपी दुःखदायी तथा अगाध समुद्र से पार हो गये हैं और वही जीव निर्विकारी, अशरीरी, अमूर्तिक, शुद्ध चैतन्यरूप तथा अविनाशी होकर सिद्धदशा को प्राप्त हुए हैं ।। १२ ।।
मोक्षदशा का वर्णन
निजमाहिं लोक- अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित थये । रहिहैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परिणये ।। धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया। तिनही अनादि भ्रमण पंच प्रकार तजि वर सुख लिया ।। १३ ।।
1
अन्वयार्थ (निजमाहिं) उन सिद्धभगवान के आत्मा में (लोकअलोक) लोक तथा अलोक के (गुण, परजाय) गुण और पर्यायें (प्रतिबिम्बित थये) झलकने लगते हैं अर्थात् ज्ञात होने लगते हैं। वे (यथा) जिसप्रकार (शिव) मोक्षरूप से (परिणये) परिणमित हुए हैं (तथा) उसीप्रकार (अनन्तानन्त काल) अनन्त - अनन्त काल तक ( रहिहैं) रहेंगे।
(जे) जिन (जीव) जीवों ने (नरभव पाय) पुरुष पर्याय प्राप्त करके (यह ) यह मुनिपद आदि की प्राप्तिरूप (कारज) कार्य (किया) किया है, वे जीव (धनि धन्य हैं) महान धन्यवाद के पात्र हैं और (तिनही) उन्हीं जीवों ने
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(अनादि) अनादिकाल से चले आ रहे (पंच प्रकार) पाँच प्रकार के परिवर्तनरूप (भ्रमण ) संसारपरिभ्रमण को (तजि) छोड़कर (वर) उत्तम (सुख) सुख (लिया) प्राप्त किया है।
भावार्थ :- सिद्ध भगवान के आत्मा में केवलज्ञान द्वारा लोक और अलोक (समस्त पदार्थ) अपने-अपने गुण और तीनोंकाल की पर्यायों सहित एकसाथ, स्वच्छ दर्पण के दृष्टान्तरूप से- सर्वप्रकार से स्पष्ट ज्ञात होते हैं: (किन्तु ज्ञान में दर्पण की भाँति छाया और आकृति नहीं पड़ती)। वे पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षदशा को प्राप्त हुए हैं तथा वह दशा वहाँ विद्यमान अन्य सिद्धमुक्त जीवों की भाँति 'अनन्तानन्त काल तक रहेगी; अर्थात् अपरिमित काल व्यतीत हो जाये, तथापि उनकी अखण्ड ज्ञायकता-शान्ति आदि में किंचित् बाधा नहीं आती। यह मनुष्यपर्याय प्राप्त करके जिन जीवों ने शुद्ध चैतन्य की प्राप्तिरूप कार्य किया है, वे जीव महान धन्यवाद (प्रशंसा) के पात्र हैं और उन्होंने अनादिकाल से चले आ रहे पंच परावर्तनरूप संसार के परिभ्रमण का त्याग करके उत्तम सुख - मोक्षसुख प्राप्त किया है।।१३ ।।
रत्नत्रय का फल और आत्महित में प्रवृत्ति का उपदेश मुख्योपचार दु भेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरै । अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल-जग-मल ह ।। इमि जानि आलस हानि साहस ठानि, यह सिख आदरौ । जबलों न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ ।।१४ ।।
अन्वयार्थ :- (बड़भागि) जो महा पुरुषार्थी जीव (यों) इसप्रकार (मुख्योपचार) निश्चय और व्यवहार (दुभेद) ऐसे दो प्रकार के (रत्नत्रय)
रत्नत्रय को (धरै अरु धरेंगे) धारण करते हैं और करेंगे (ते) वे (शिव) मोक्ष (लहैं) प्राप्त करते हैं और (तिन) उन जीवों का (सुयश-जल) सुकीर्तिरूपी जल (जग-मल) संसाररूपी मैल का (हरै) नाश करता है। - (इमि) ऐसा (जानि) जानकर (आलस) प्रमाद [स्वरूप में असावधानी] (हानि) छोड़कर (साहस) पुरुषार्थ (ठानि) करने (यह) यह (सिख ) शिक्षा-उपदेश (आदरौ) ग्रहण करो कि (जबलौं) जबतक (रोग जरा) रोग या वृद्धावस्था (न गहै) न आये (तबलौं) तबतक (झटिति) शीघ्र (निज हित) आत्मा का हित (करौ) कर लेना चाहिए।
भावार्थ :- जो सत्पुरुषार्थी जीव सर्वज्ञ-वीतराग कथित निश्चय और व्यवहाररत्नत्रय का स्वरूप जानकर, उपादेय तथा हेय तत्त्वों का स्वरूप समझकर अपने शुद्ध उपादान-आश्रित निश्चयरत्नत्रय को (शुद्धात्माश्रित वीतरागभावस्वरूप मोक्षमार्ग को) धारण करते हैं तथा करेंगे, वे जीव पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षमार्ग को प्राप्त होते हैं और होंगे। (गुणस्थान के प्रमाण में शुभराग आता है, वह व्यवहार-रत्नत्रय का स्वरूप जानना तथा उसे निश्चय से उपादेय न मानना, उसका नाम व्यवहार-रत्नत्रय का धारण करना है)। जो जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और होंगे, उनका सुकीर्तिरूपी जल कैसा है? - कि जो सिद्ध परमात्मा का यथार्थ स्वरूप समझकर स्वोन्मुख होनेवाले भव्यजीव हैं, उनके संसार (मलिनभाव) रूपी मल को हरने का निमित्त है। ऐसा जानकर प्रमाद को छोड़कर, साहस अर्थात् सच्चा पुरुषार्थ करके यह उपदेश अङ्गीकार करो कि जबतक रोग या वृद्धावस्था ने शरीर को नहीं घेरा है, तबतक शीघ्र (वर्तमान में ही) आत्मा का हित कर लो।।१४।।
अन्तिम सीख यह राग-आग दहै सदा, ताक् समामृत सेइये। चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये ।। कहा रच्यो पर पद में, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै। अब "दौल"! होउ सुखी स्वपद-रचि, दाव मत चूको यहै ।।१५।।
१. जिसप्रकार बीज को यदि जला दिया जाये तो वह उगता नहीं है; उसीप्रकार जिन्होंने
संसार के कारणों का सर्वथा नाश कर दिया, वे पुनः जन्म धारण नहीं करते। अथवा जिसप्रकार मक्खन से घी हो जाने के पश्चात् पुनः मक्खन नहीं बनता, उसीप्रकार आत्मा की सम्पूर्ण पवित्रतारूप अशरीरी मोक्षदशा (परमात्मपद) प्रकट करने के पश्चात् उसमें कभी अशुद्धता नहीं आती - संसार में पुनः आगमन नहीं होता।
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अन्वयार्थ :- (यह) यह (राग-आग) रागरूपी अग्नि (सदा) अनादिकाल से निरन्तर जीव को (दहै) जला रही है, (तात) इसलिये (समामृत) समतारूप अमृत का (सेइये) सेवन करना चाहिए। (विषय-कषाय) विषय-कषाय का (चिर भजे) अनादिकाल से सेवन किया है (अब तो) अब तो (त्याग) उसका त्याग करके (निजपद) आत्मस्वरूप को (बेइये) जानना चाहिए - प्राप्त करना चाहिए। (पर पद में) परपदार्थों में - परभावों में (कहा) क्यों (रच्यो) आसक्तसन्तुष्ट हो रहा है? (यहै) यह (पद) पद (तेरो) तेरा (न) नहीं है। तू (दुख) दुःख (क्यों) किसलिये (सहै) सहन करता है? (दौल!) हे दौलतराम! (अब) अब (स्वपद) अपने आत्मपद - सिद्धपद में (रचि) लगकर (सुखी) सुखी (होउ) होओ! (यह) यह (दाव) अवसर (मत चूकौ) न गँवाओ!
भावार्थ :- यह राग (मोह, अज्ञान) रूपी अग्नि अनादिकाल से निरन्तर संसारी जीवों को जला रही है - दुःखी कर रही है इसलिये जीवों को निश्चयरत्नत्रयमय समतारूपी अमृत का पान करना चाहिए, जिससे राग-द्वेष मोह (अज्ञान) का नाश हो। विषय-कषायों का सेवन विपरीत पुरुषार्थ द्वारा अनादिकाल से कर रहा है। अब उसका त्याग करके आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करना चाहिए। तू दुःख किसलिये सहन करता है? तेरा वास्तविक स्वरूप अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और अनन्तवीर्य है, उसमें लीन होना चाहिए। ऐसा करने से ही सच्चा-सुख मोक्ष प्राप्त हो सकता है। इसलिये हे दौलतराम! हे जीव! अब आत्मस्वरूप को प्राप्त कर! आत्मस्वरूप को पहिचान! यह उत्तम अवसर बारम्बार प्राप्त नहीं होता, इसलिये इसे न गँवा । सांसारिक मोह का त्याग करके मोक्षप्राप्ति का उपाय कर!
यहाँ विशेष यह समझना कि - जीव अनादिकाल से मिथ्यात्वरूपी अग्नि तथा राग-द्वेषरूप अपने अपराध से ही दुःखी हो रहा है, इसलिये अपने यथार्थ पुरुषार्थ से ही सुखी हो सकता है। ऐसा नियम होने से जड़कर्म के उदय से या किसी पर के कारण दुःखी हो रहा है अथवा पर के द्वारा जीव को लाभ-हानि होते हैं - ऐसा मानना उचित नहीं है।।१५ ।।
ग्रन्थ-रचना का काल और उसमें आधार इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुक्ल वैशाख । कर्यो तत्त्व-उपदेश यह, लखि बुधजन की भाख ।। लघु-धी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भव-कूल ।।१६।। भावार्थ :- पण्डित बुधजनकृत 'छहढाला के कथन का आधार लेकर मैंने (दौलतराम ने) विक्रम संवत १८९१, वैशाख शुक्ला ३ (अक्षय तृतीया) के दिन इस छहढाला ग्रन्थ की रचना की है। मेरी अल्पबुद्धि तथा प्रमादवश उसमें कहीं शब्द की या अर्थ की भूल रह गई हो तो बुद्धिमान उसे सुधारकर पढ़ें, ताकि जीव संसार-समुद्र को पार करने में शक्तिमान हो।
छठवीं ढाल का सारांश जिस चारित्र के होने से समस्त परपदार्थों से वृत्ति हट जाती है, वर्णादि तथा रागादि से चैतन्यभाव को पृथक् कर लिया जाता है - अपने आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा द्वारा, अपने आत्मा का ही अनुभव होने लगता है; वहाँ नय, प्रमाण, निक्षेप, गुण-गुणी, ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि भेदों का किंचित् विकल्प नहीं रहता; शुद्ध उपयोगरूप अभेद रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्य का ही अनुभव होने लगता है, उसे १. इस ग्रन्थ में छह प्रकार के छन्द और छह प्रकरण हैं, इसलिये तथा जिसप्रकार तीक्ष्ण शस्त्रों
के प्रहार को रोकनेवाली ढाल होती है, उसीप्रकार जीव को अहितकारी शत्रु-मिथ्यात्व, रागादि, आस्रवों का तथा अज्ञानांधकार को रोकने के लिए ढाल के समान यह छह प्रकरण हैं; इसलिये इस ग्रन्थ का नाम छहढाला रखा गया है।
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छहढाला
स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं। यह स्वरूपाचरणचारित्र चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर मुनिदशा में अधिक उच्च होता है। तत्पश्चात् शुक्लध्यान द्वारा चार घाति कर्मों का नाश होने पर वह जीव केवलज्ञान प्राप्त करके १८ दोष रहित श्री अरिहन्तपद प्राप्त करता है; फिर शेष चार अघातिकर्मों का भी नाश करके क्षणमात्र में मोक्ष प्राप्त कर लेता है; उस आत्मा में अनन्तकाल तक अनन्त चतुष्टय का (अनन्तज्ञान - दर्शन - सुख - वीर्य का) एक-सा अनुभव होता रहता है; फिर उसे पंचपरावर्तनरूप संसार में नहीं भटकना पड़ता; वह कभी अवतार धारण नहीं करता; सदैव अक्षय अनन्त सुख का अनुभव करता है। अखण्डित ज्ञान-आनन्दरूप अनन्तगुणों में निश्चल रहता है; उसे मोक्षस्वरूप कहते हैं।
जो जीव मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस रत्नत्रय को धारण करते हैं और करेंगे, उन्हें अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। प्रत्येक संसारी जीव मिथ्यात्व, कषाय और विषयों का सेवन तो अनादिकाल से करता आया है, किन्तु उससे उसे किंचित् शान्ति प्राप्त नहीं हुई। शान्ति का एकमात्र कारण तो मोक्षमार्ग है; उसमें उस जीव ने कभी तत्परतापूर्वक प्रवृत्ति नहीं की; इसलिये अब भी यदि शान्ति की (आत्महित की) इच्छा हो तो आलस्य को छोड़कर, (आत्मा का) कर्तव्य समझकर, रोग और वृद्धावस्थादि आने से पूर्व ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो जाना चाहिए; क्योंकि यह पुरुषपर्याय, सत्समागम आदि सुयोग बारम्बार प्राप्त नहीं होते; इसलिये उन्हें व्यर्थ न गँवाकर अवश्य ही आत्महित साध लेना चाहिए।
अन्तरंग तप के नाम :उपयोग :
छठवीं ढाल का भेद - संग्रह
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और
ध्यान ।
शुद्ध उपयोग, शुभ उपयोग और अशुभ उपयोग - ऐसे तीन उपयोग हैं। ये चारित्रगुण की अवस्थाएँ हैं। (जाननादेखना, वह ज्ञान - दर्शनगुण का उपयोग है - यह बात
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छठवीं ढाल
यहाँ नहीं है।)
छियालीस दोष :- दाता के आश्रित सोलह उद्गमादि दोष, पात्र के आश्रित सोलह उत्पादन दोष तथा आहार सम्बन्धी दश और भोजन क्रिया सम्बन्धी चार ऐसे छियालीस दोष हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ।
तीन रत्न :
तेरह प्रकार का चारित्र :- पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति । धर्म :
मुनि की क्रिया :
रत्नत्रय :
सिद्ध परमात्मा के गुण :
शील :
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:
उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ऐसे दश हैं। (दशों धर्मों को उत्तम संज्ञा है, इसलिये निश्चयसम्यग्दर्शनपूर्वक वीतरागभावना के ही वे दश प्रकार हैं।)
(मुनि के गुण) मूल गुण २८ हैं । निश्चय और व्यवहार अथवा मुख्य और उपचार - ऐसे दो प्रकार हैं।
सर्वगुणों में सम्पूर्ण शुद्धता प्रकट होने पर सर्वप्रकार से अशुद्ध पर्यायों का नाश होने से, ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का स्वयं सर्वथा नाश हो जाता है और गुण प्रकट
नहीं होते, किन्तु गुणों की निर्मल पर्यायें प्रकट होती हैं; जैसे कि अनन्तदर्शन ज्ञान सम्यक्त्व सुख, अनन्तवीर्य, अनंत अवगाहना, अमूर्तिक (सूक्ष्मत्व) और अगुरुलघुत्व । - ये आठ मुख्य गुण व्यवहार से कहे हैं, निश्चय से तो प्रत्येक सिद्ध के अनन्तगुण समझना चाहिए।
अचेतन स्त्री :- तीन (कठोर स्पर्श, कोमल स्पर्श, चित्रपट) प्रकार की, उसके साथ तीन करण (करना,
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छहढाला
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आवश्यक :कायगुप्ति :गुप्ति :
चेतन स्त्री:
तप:
कराना और अनुमोदना करना) से दो (मन, वचन) योग द्वारा पाँच इन्द्रियाँ (कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्श) से चार संज्ञा (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) सहित द्रव्य से और भाव से सेवन ३--३--२--५-४--२ = ७२० - ऐसे भेद हुए। (देवी, मनुष्य, तिर्यंच) तीन प्रकार की, उनके साथ तीन कारण (करना, कराना और अनुमोदन करना) से तीन (मन, वचन, कायारूप) योग द्वारा, पाँच (कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शरूप) इन्द्रियों से चार (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) संज्ञा सहित द्रव्य से और भाव से, सोलह (अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणीय, प्रत्याख्याना वरणीय और संज्वलन - इन चार प्रकार से क्रोध, मान, माया, लोभ - ऐसे प्रत्येक) प्रकार से सेवन ३--३--३--५--४--२--१६ = १७२८० भेद हुए। प्रथम ७२० और दूसरे १७२८० भेद मिलकर १८००० भेद मैथुन-कर्म के दोषरूप भेद हैं; उनका अभाव सो शील है; उसे निर्मल स्वभाव अथवा शील कहते हैं। निश्चय और व्यवहार। नाम, स्थापना द्रव्य और भाव - ये चार हैं।
प्रत्यक्ष और परोक्ष। छठवीं ढाल का लक्षण-संग्रह
शुभाशुभ इच्छाओं के निरोधपूर्वक आत्मा में निर्मल ज्ञान-आनंद के अनुभव से अखण्डित प्रतापवन्त रहना; निस्तरंग चैतन्यरूप से शोभित होना। स्वोन्मुख हुए ज्ञान और सुख का रसास्वादन ।
ध्यान:
वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावे विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याको नाम ।। मुनियों को अवश्य करने योग्य स्ववश शुद्ध आचरण। काया की ओर उपयोग न जाकर आत्मा में ही लीनता । मन, वचन, काया की ओर उपयोग की प्रवृत्ति को भलीभाँति आत्मभानपूर्वक रोकना अर्थात् आत्मा में ही लीनता होना, सो गुप्ति है। स्वरूपविश्रान्त, निस्तरंगरूप से निज शुद्धता में प्रतापवन्त होना - शोभायमान होना, सो तप है। उसमें जितनी शुभाशुभ इच्छाओं का निरोध होकर शुद्धता बढ़ती है, वह तप है; अन्य बारह भेद तो व्यवहार (उपचार) तप के हैं। सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने ज्ञान को लक्ष्य में स्थिर करना, सो ध्यान है। वस्तु के एक अंश को मुख्य करके जाने, वह नय है
और वह उपयोगात्मक है। सम्यक् श्रुतज्ञानप्रमाण का अंश, वह नय है। नयज्ञान द्वारा बाधारहितरूप से प्रसंगवशात् पदार्थ में नामादि की स्थापना करना, सो निक्षेप है। परवस्तु में ममताभाव (मोह अथवा ममत्व)। दुःख के कारण मिलने से दुःखी न हो तथा सुख के कारण मिलने से सुखी न हो, किन्तु ज्ञातारूप से उस ज्ञेय का जाननेवाला ही रहे - वही सच्चा परिषहजय है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को निरवशेषरूप से छोड़कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को
नय:
निक्षेप:
नय:निक्षेप :प्रमाण :
परिग्रह :परिषहजय:
अंतरंग तप :
प्रतिक्रमण :
अनुभव :
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छहढाला
छठवीं ढाल
(३) शुभ उपयोग तो बन्ध का अथवा संसार का कारण है, किन्तु शुद्ध उपयोग निर्जरा और मोक्ष का कारण है।
प्रश्नावली
(जीव) भाता है, वह (जीव) प्रतिक्रमण है। (नियमसार,
गाथा - ९१)। प्रमाण :- स्व-पर वस्तु का निश्चय करनेवाला सम्यग्ज्ञान । बहिरंग तप :- दूसरे देख सकें - ऐसे पर-पदार्थों से सम्बन्धित
इच्छानिरोध। मनोगुप्ति :- मन की ओर उपयोग न जाकर आत्मा में ही लीनता। महाव्रत :- निश्चयरत्नत्रयपूर्वक तीनों योग (मन, वचन, काय)
तथा करने-कराने-अनुमोदन के भेद सहित हिंसादि पाँच पापों का सर्वथा त्याग।
जैन साधु (मुनि) को हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और
परिग्रह - इन पाँचों पापों का सर्वथा त्याग होता है। रत्नत्रय :- निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र। वचनगुप्ति :- बोलने की इच्छा को रोकना अर्थात् आत्मा में लीनता। शुक्लध्यान :- अत्यन्त निर्मल, वीतरागतापूर्ण ध्यान । शुद्ध उपयोग :- शुभ-अशुभ, राग-द्वेषादि से रहित आत्मा की चारित्र
परिणति। समिति :- प्रमादरहित यत्नाचारसहित सम्यक् प्रवृत्ति । स्वरूपाचरणचारित्र :- आत्मस्वरूप में एकाग्रतापूर्वक रमणता - लीनता।
अन्तर-प्रदर्शन (१) 'नय' तो ज्ञाता अर्थात् जाननेवाला है और निक्षेप' ज्ञेय अर्थात् ज्ञान में
ज्ञात होने योग्य है। (२) प्रमाण तो वस्तु के सामान्य-विशेष समस्त भागों को जानता है, किन्तु
नय वस्तु के एक भाग को मुख्य रखकर जानता है।
१ अंतरंग तप, अनुभव, आवश्यक, गुप्ति, गुप्तियाँ, तप, द्रव्यहिंसा,
अहिंसा, ध्यानस्थ मुनि, नय, निश्चय, आत्मचारित्र, परिग्रह, प्रमाण, प्रमाद, प्रतिक्रमण, बहिरंग तप, भावहिंसा, अहिंसा, महाव्रत, पंच महाव्रत, रत्नत्रय, शुद्धात्म-अनुभव, शुद्ध-उपयोग, शुक्लध्यान, समिति
और समितियों के लक्षण बतलाओ। २. अघातिया, आवश्यक, उपयोग, कायगुप्ति, छियालीस दोष, तप, धर्म,
परिग्रह, प्रमाद, प्रमाण, मुनिक्रिया, महाव्रत, रत्नत्रय, शील, शेष गुण,
समिति, साधुगुण और सिद्धगुण के भेद कहो। ३. नय और निक्षेप में, प्रमाण और नय में, ज्ञान और आत्मा में, शुभ____ उपयोग और शुद्ध-उपयोग में अन्तर बतलाओ। ४. आठवीं पृथ्वी, ग्रन्थ, ग्रन्थकार, ग्रन्थ-छन्द, ग्रन्थ-प्रकरण, सर्वोत्तम
तप, सर्वोत्तम धर्म, संयम का उपकरण, शुचि का उपकरण और ज्ञान
का उपकरण - आदि के नाम बतलाओ। ५. ध्यानस्थ मुनि, सम्यग्ज्ञान और सिद्ध का सुख आदि के दृष्टान्त बतलाओ। ६. छह ढालों के नाम, मुनि के पीछी आदि का अपरिग्रहपना, रत्नत्रय के
नाम, श्रावक को नग्नता का अभाव आदि के कारण मात्र बतलाओ। ७. अरिहन्त दशा का समय, अन्तिम उपदेश, आत्मस्थिरता के समय का
सुख, केशलोंच का समय, कर्मनाश से उत्पन्न होनेवाले गुणों का विभाग, ग्रन्थ-रचना का काल, जीव की नित्यता तथा अमूर्तिकपना, परिषह जय का फल, रागरूपी अग्नि की शान्ति का उपाय, शुद्ध आत्मा, शुद्ध
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उपयोग का विचार और दशा, सकलचारित्र, सिद्धों की आयु निवास स्थान और समय तथा स्वरूपाचरणचारित्रादि का वर्णन करो।
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८. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, देशचारित्र, सकलचारित्र, चार गति, स्वरूपाचरणचारित्र, बारह व्रत, बारह भावना, मिथ्यात्व और मोक्षादि विषयों पर लेख लिखो ।
९. दिगम्बर जैन मुनि का भोजन, समता, विहार, नग्नता से हानि-लाभ; दिगम्बर जैन मुनि को रात्रिगमन का विधि या निषेध, दिगम्बर जैन मुनि को घड़ी, चटाई (आसन) या चश्मा आदि रखने का विधि या निषेध - आदि बातों का स्पष्टीकरण करो ।
१०. अमुक शब्द, चरण और छन्द का अर्थ या भावार्थ कहो। आठवीं ढाल का सारांश बतलाओ ।
इति कविवर पंडित दौलतराम विरचित छहढाला के गुजराती अनुवाद का हिन्दी अनुवाद
देखो जी आदीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपर कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है। टेक ॥। जगत विभूति भूति सम तजकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभि श्वासा आशावासा, नासा दृष्टि सुहाया है ।।१ ॥ कंचन वरन चले मन रंच न सुर-गिरि ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि मोर मृगी हरि, जाति विरोध नशाया है ।। २ ।। शुध-उपयोग हुताशन में जिन, वसुविधि समिध जलाया है। श्यामलि अलकावलि सिर सोहे, मानो धुआँ उड़ाया है ।। ३ ।। जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन, सबको नाश बताया है। सुर नर नाग नमहिं पद जाके “दौल" तास जस गाया है ।।४ ॥
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________________ छहढाला छहढाला (5) असुरकुमारों का गमन, सम्पूर्ण जीवराशि, गर्भनिवास का समय, यौवनावस्था, नरक की आयु, निगोदवास का समय, निगोदिया की इन्द्रियाँ, निगोदिया की आयु, निगोद में एक श्वास में जन्म-मरण तथा श्वास का परिमाण बतलाओ। त्रस पर्याय की दुर्लभता 1-2-3-4-5 इन्द्रिय जीव, तथा शीत से लोहे का गोला गल जाने को दृष्टांत द्वारा समझाओ। (7) बुरे परिणामों से प्राप्त होने योग्य गति, ग्रन्थ रचयिता, जीव-कर्म सम्बन्ध, जीवों की इच्छित तथा अनिच्छित वस्तु, नमस्कृत वस्तु, नरक की नदी, नरक में जानेवाले असुरकुमार, नारकी का शरीर, निगोदिया का शरीर, निगोद से निकलकर प्राप्त होनेवाली पर्यायें, नौ महीने से कम समय तक गर्भ में रहनेवाले, मिथ्यात्वी वैमानिक की भविष्यकालीन पर्याय, माता-पिता रहित जीव, सर्वाधिक दुःख का स्थान, और संक्लेश परिणाम सहित मृत्यु होने के कारण प्राप्त होने योग्य गति का नाम बतलाओ। (8) अपनी इच्छानुसार किसी शब्द, चरण अथवा छंद का अर्थ या भावार्थ कहो। पहली ढाल का सारांश समझाओ, गतियों के दुःखों पर एक लेख लिखो अथवा कहकर सुनाओ। (4) आत्महित, आत्मशक्ति का विस्मरण, गृहीत मिथ्यात्व, जीवतत्त्व की पहिचान न होने में किसका दोष है, तत्त्व का प्रयोजन, दुःख, मोक्षसुख की अप्राप्ति और संसार-परिभ्रमण के कारण दर्शाओ। (5) मिथ्यादृष्टि का आत्मा, जन्म और मरण, कष्टदायक वस्तु आदि सम्बन्धी विचार प्रगट करो। (6) कुगुरु, कुदेव और मिथ्याचारित्र आदि के दृष्टान्त दो। आत्महितरूप धर्म के लिये प्रथम व्यवहार या निश्चय? (7) कुगुरु तथा कुधर्म का सेवन और रागादिभाव आदि का फल बतलाओ। मिथ्यात्व पर एक लेख लिखो। अनेकान्त क्या है? राग तो बाधक ही है, तथापि व्यवहार मोक्षमार्ग को (शुभराग का) निश्चय का हेतु क्यों कहा है? अमुक शब्द, चरण अथवा छन्द का अर्थ और भावार्थ बतलाओ। दूसरी ढाल का सारांश समझाओ। भजन वन्दों अद्भुत चन्द्रवीर जिन, भविचकोर चित हारी। चिदानन्द अंबुधि अब उछस्यो भव तप नाशन हारी।।टेक. / / सिद्धारथ नृप कुल नभ मण्डल, खण्डन भ्रम-तम भारी। परमानन्द जलधि विस्तारन, पाप ताप छय कारी / / 1 / / उदित निरन्तर त्रिभुवन अन्तर, कीरत किरन पसारी। दोष मलंक कलंक अखकि, मोह राह निरवारी / / 2 / / कर्मावरण पयोध अरोधित, बोधित शिव मगचारी। गणधरादि मुनि उङ्गन सेवत, नित पूनम तिथि धारी / / 3 / / अखिल अलोकाकाश उल्लंघन, जासु ज्ञान उजयारी। 'दौलत' तनसा कुमुदिनिमोदन, ज्यों चरम जगतारी / / 4 / / हे जिन तेरो सुजस उजागर गावत है मुनिजन ज्ञानी ।।टेक. / / दुर्जय मोह महाभट जाने निज वस कीने हैं जग प्रानी। सो तुम ध्यान कृपान पान गहिं तत् छिन ताकी थितिहानी / / 1 / / सुप्त अनादि अविद्या निद्रा जिन जन निज सुधि बिसरानी। वै सचेत तिन निज निधि पाई श्रवण सुनी जब तुम वानी / / 2 / / मंगलमय तू जग में उत्तम, तू ही शरण शिवमग दानी।। तुम पद सेवा परम औषधि जन्म-जरा-मृत गद हानि / / 3 / / तुमरे पंचकल्याणक माहीं त्रिभुवन मोह दशा हानी / विष्णु विदाम्बर जिष्णु दिगम्बर बुध शिव कहि ध्यावत ध्यानी / / 4 / / सर्व दर्व गुण परिजय परिणति, तुम सुबोध में नहिं छानी। तातें 'दौल' दास उर आशा प्रकट करी निज रस सानी / / 4 / /