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छहढाला
दूसरी ढाल
(भ्रमण को) भटकना (देहु त्याग) छोड़ दो, (दौलत) हे दौलतराम! (निज आतम) अपने आत्मा में (अब) अब (सुपाग) भलीभाँति लीन हो जाओ। ___ भावार्थ :-आत्महितैषी जीव को निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ग्रहण करके गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का त्याग करके आत्मकल्याण के मार्ग में लगना चाहिए। श्री पण्डित दौलतरामजी अपनी आत्मा को सम्बोधन करके कहते हैं कि - हे आत्मन्! पराश्रयरूप संसार अर्थात् पुण्य-पाप में भटकना छोड़कर सावधानी से आत्मस्वरूप में लीन हो।
दूसरी ढाल का सारांश (१) यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर चार गतियों में परिभ्रमण करके प्रतिसमय अनन्त दुःख भोग रहा है। जब तक देहादि से भिन्न अपने आत्मा की सच्ची प्रतीति तथा रागादि का अभाव न करे, तब तक सुख-शान्ति और आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता।
(२) आत्महित के लिए (सुखी होने के लिए) प्रथम (१) सच्चे देव, गुरु और धर्म की यथार्थ प्रतीति, (२) जीवादि सात तत्त्वों की यथार्थ प्रतीति, (३) स्व-पर के स्वरूप की श्रद्धा, (४) निज शुद्धात्मा के प्रतिभासरूप आत्मा की श्रद्धा - इन चार लक्षणों के अविनाभाव सहित सत्य श्रद्धा (निश्चय सम्यग्दर्शन) जबतक जीव प्रकट न करे, तब तक जीव (आत्मा) का उद्धार नहीं हो सकता अर्थात् धर्म का प्रारम्भ भी नहीं हो सकता: और तब तक आत्मा को अंशमात्र भी सुख प्रकट नहीं होता।
(३) सात तत्त्वों की मिथ्याश्रद्धा करना, उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं। अपने स्वतंत्र स्वरूप की भूल का कारण आत्मस्वरूप में विपरीत श्रद्धा होने से ज्ञानावरणीयादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म तथा पुण्य-पाप-रागादि मलिन भावों में एकताबुद्धि-कर्ताबुद्धि है और इसलिये शुभराग तथा पुण्य हितकर है, शरीरादि परपदार्थों की अवस्था (क्रिया) मैं कर सकता हूँ, पर मुझे लाभ-हानि कर सकता है तथा मैं पर का कुछ कर सकता हूँ - ऐसी मान्यता के कारण उसे सत्-असत्
का विवेक होता ही नहीं। सच्चा सुख तथा हितरूप श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र अपने आत्मा के ही आश्रय से होते हैं, इस बात की भी उसे खबर नहीं होती।
(४) पुनश्च, कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र और कुधर्म की श्रद्धा, पूजा, सेवा तथा विनय करने की जो-जो प्रवृत्ति है, वह अपने मिथ्यात्वादि महान दोषों को पोषण देनेवाली होने से दुःखदायक है, अनन्त संसार-भ्रमण का कारण है। जो जीव उसका सेवन करता है, उसे कर्तव्य समझता है, वह दुर्लभ मनुष्य-जीवन को नष्ट करता है।
(५) अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जीव को अनादिकाल से होते हैं, फिर वह मनुष्य होने के पश्चात् कुशास्त्र का अभ्यास करके अथवा कुगुरु का उपदेश स्वीकार करके गृहीत मिथ्याज्ञान-मिथ्याश्रद्धा धारण करता है तथा कुमत का अनुसरण करके मिथ्याक्रिया करता है, वह गृहीत मिथ्याचारित्र है। इसलिये जीव को भलीभाँति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत - दोनों प्रकार के मिथ्याभाव छोड़ने योग्य हैं तथा उनका यथार्थ निर्णय करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रकट करना चाहिए। मिथ्याभावों का सेवन कर-करके, संसार में भटककर, अनन्त जन्म धारण करके अनन्तकाल गँवा दिया; इसलिये अब सावधान होकर आत्मोद्धार करना चाहिए।
दूसरी ढाल का भेद-संग्रह इन्द्रियविषय :- स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द । तत्त्व :- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । द्रव्य :- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । मिथ्यादर्शन :- गृहीत, अगृहीत । मिथ्याज्ञान :- गृहीत (बाह्यकारण प्राप्त), अगृहीत (निसर्गज)। मिथ्याचारित्र :- गृहीत और अगृहीत ।
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