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छहढाला
पर्वत के बराबर लोहे का पिण्ड भी पिघल जाता है तथा इतनी ठण्ड पड़ती है कि सुमेरु के समान लोहे का गोला भी गल जाता है। जिसप्रकार लोक में कहा जाता है कि ठण्ड के मारे हाथ अकड़ गये, हिम गिरने से वृक्ष या ना जल गया आदि। यानि अतिशय प्रचंड ठण्ड के कारण लोहे में चिकनाहट कम हो जाने से उसका स्कंध बिखर जाता है ।। ११ ।।
नरकों में अन्य नारकी, असुरकुमार तथा प्यास का दुःख तिल-तिल करें देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड । सिन्धुनीर तैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूँद लहाय ।।१२ ।।
अन्वयार्थ :- [उन नरकों में नारकी जीव एक-दूसरे के ] (देह के) शरीर के ( तिल-तिल) तिल्ली के दाने बराबर (खण्ड) टुकड़े (करें) कर डालते हैं [और] (प्रचण्ड) अत्यन्त (दुष्ट) क्रूर (असुर) असुरकुमार जाति के देव
१. मेरुसम लोहपिण्डं सीदं उन्हे विलम्मि पक्खितं ।
पण लहदि तलप्पदेशं विलीयदे मयणखण्डं वा ।।
२. मेरुसम लोहपिण्डं उण्हं सीदे विलम्मि पक्खितं ।
ण लहदि तलं पदेशं विलीयदे लवणखण्डं वा ।।
१. अर्थ:- जिसप्रकार गर्मी में मोम पिघल जाता है (बहने लगता है) उसीप्रकार सुमेरु पर्वत
के बराबर लोहे का गोला गर्म बिल में फेंका जाये तो वह बीच में ही पिघलने लगता है। २. तथा जिसप्रकार ठण्ड और बरसात में नमक गल जाता है (पानी बन जाता है), उसी प्रकार सुमेरु के बराबर लोहे का गोला ठण्डे बिल में फेंका जाये तो बीच में ही गलने लगता है। पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे नरक की भूमि गर्म है; पाँचवें नरक में ऊपर की भूमि गर्म तथा नीचे तीसरा भाग ठण्डा है। छठवें तथा सातवें नरक की भूमि ठण्डी हैं।
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पहली ढाल
[एक-दूसरे के साथ] (भिड़ावें) लड़ाते हैं; [तथा इतनी ] ( प्यास) प्यास [लगती है कि] (सिन्धुनीर तैं) समुद्रभर पानी पीने से भी ( न जाय ) शांत न हो, (तो पण) तथापि (एक बूँद) एक बूँद भी (न लहाय) नहीं मिलती।
भावार्थ :- उन नरकों में नारकी एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं अर्थात् कुत्तों की भाँति हमेशा आपस में लड़ते रहते हैं। वे एक-दूसरे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं, तथापि उनके शरीर बारम्बार पारे' की भाँति बिखर कर फिर जुड़ जाते हैं। संक्लिष्ट परिणामवाले अम्बरीष आदि जाति के असुरकुमार देव पहले, दूसरे तथा तीसरे नरक तक जाकर वहाँ की तीव्र यातनाओं में पड़े हुए नारकियों को अपने अवधिज्ञान के द्वारा परस्पर वैर बतलाकर अथवा क्रूरता और कुतूहल से आपस में लड़ाते हैं और स्वयं आनन्दित होते हैं। उन नारकी जीवों को इतनी महान प्यास लगती है कि मिल जाये तो पूरे महासागर का जल भी पी जायें, तथापि तृषा शांत न हो; किन्तु पीने के लिए जल की एक बूँद भी नहीं मिलती ।। १२ ।।
नरकों की भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्ति का वर्णन तीनलोकको नाज जुखाय, मिटै न भूख कणा न लहाय । ये दुख बहु सागर लौं सहै, करम जोगतैं नरगति लहै ।। १३ ।।
अन्वयार्थ :- [उन नरकों में इतनी भूख लगती है कि ] (तीन लोक को) तीनों लोक का (नाज) अनाज (जु खाय) खा जाये तथापि (भूख) क्षुधा (न मिटै) शांत न हो [परन्तु खाने के लिए] (कणा) एक दाना भी ( न लहाय )
१. पारा एक धातु के रस समान होता है। धरती पर फेंकने से वह अमुक अंश में छार छार होकर बिखर जाता है और पुनः एकत्रित कर देने से एक पिण्डरूप बन जाता है।