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________________ छहढाला पहली ढाल मनुष्यगति में बाल, युवा और वृद्धावस्था के दुःख बालपने में ज्ञान न लो, तरुण समय तरुणी-रत रह्यो। अर्धमृतकसम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखै आपनो ।।१५।। नहीं मिलता। (ये दुख) ऐसे दुःख (बहु सागर लौं) अनेक सागरोपमकाल तक (सहै) सहन करता है, (करम जोगतै) किसी विशेष शुभकर्म के योग से (नरगति) मनुष्यगति (लहै) प्राप्त करता है। भावार्थ :- उन नरकों में इतनी तीव्र भूख लगती है कि यदि मिल जाये तो तीनों लोक का अनाज एकसाथ खा जायें, तथापि क्षुधा शांत न हो; परन्तु वहाँ खाने के लिए एक दाना भी नहीं मिलता। उन नरकों में यह जीव ऐसे अपार दुःख दीर्घकाल (कम से कम दस हजार वर्ष और अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम काल तक) भोगता है। फिर किसी शुभकर्म के उदय से यह जीव मनुष्यगति प्राप्त करता है।।१३।। मनुष्यगति में गर्भनिवास तथा प्रसवकाल के दुःख जननी उदर वस्यो नव मास, अंग सकुचतँ पायो त्रास । निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ।।१४।। अन्वयार्थ :- [मनुष्यगति में] (बालपने में) बचपन में (ज्ञान) ज्ञान (न लह्यो) प्राप्त नहीं कर सका [और] (तरुण समय) युवावस्था में (तरुणी-रत) युवती स्त्री में लीन (रह्यो) रहा, [और] (बूढ़ापनो) वृद्धावस्था (अर्धमृतकसम) अधमरा जैसा [रहा, ऐसी दशा में] (कैसे) किसप्रकार [जीव] (आपनो) अपना (रूप) स्वरूप (लखै) देखे - विचारे। भावार्थ :- मनुष्यगति में भी यह जीव बाल्यावस्था में विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया; यौवनावस्था में ज्ञान तो प्राप्त किया, किन्तु स्त्री के मोह (विषय-भोग) में भूला रहा और वृद्धावस्था में इन्द्रियों की शक्ति कम हो गई अथवा मरणपर्यंत पहुँचे - ऐसा कोई रोग लग गया कि, जिससे अधमरा जैसा पड़ा रहा। इसप्रकार यह जीव तीनों अवस्थाओं में आत्मस्वरूप का दर्शन (पहिचान) न कर सका ।।१५।। देवगति में भवनत्रिक का दुःख कभी अकामनिर्जरा करै, भवनत्रिक में सुरतन धरै। विषय-चाह-दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुख सहो ।।१६ ।। अन्वयार्थ :- [मनुष्यगति में भी यह जीव] (नव मास) नौ महीने तक (जननी) माता के (उदर) पेट में (वस्यो) रहा; [तब वहाँ] (अंग) शरीर (सकुचत) सिकोड़कर रहने से (त्रास) दुःख (पायो) पाया, [और] (निकसत) निकलते समय (जे) जो (घोर) भयंकर (दुख पाये) दुःख पाये (तिनको) उन दुःखों को (कहत) कहने से (ओर) अन्त (न आवे) नहीं आ सकता। ___ भावार्थ :- मनुष्यगति में भी यह जीव नौ महीने तक माता के पेट में रहा; वहाँ शरीर को सिकोड़कर रहने से तीव्र वेदना सहन की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कभी-कभी तो माता के पेट से निकलते समय माता का अथवा पुत्र का अथवा दोनों का मरण भी हो जाता है।।१४ ।।
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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