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________________ छहढाला पहली ढाल अन्वयार्थ :- [इस तिर्यंचगति में जीव ने अन्य भी] (वध) मारा जाना, (बंधन) बँधना (आदिक) आदि (घने) अनेक (दुख) दुःख सहन किये; [व] (कोटि) करोड़ों (जीभतें) जीभों से (भने न जात) नहीं कहे जा सकते। [इस कारण] (अति संक्लेश) अत्यन्त बुरे (भावत) परिणामों से (मस्यो) मरकर (घोर) भयानक (श्वभ्रसागर में) नरकरूपी समुद्र में (पस्यो) जा गिरा। भावार्थ :- इस जीव ने तिर्यंचगति में मारा जाना, बँधना आदि अनेक दुःख सहन किये; जो करोड़ों जीभों से भी नहीं कहे जा सकते और अंत में इतने बुरे परिणामों (आर्तध्यान) से मरा कि जिसे बड़ी कठिनता से पार किया जा सके - ऐसे समुद्र-समान घोर नरक में जा पहुँचा ।।९।। नरकों की भूमि और नदियों का वर्णन तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसे नहिं तिसो। तहाँराध-श्रोणितवाहिनी, कृमि-कुल-कलित, देह-दाहिनी ।।१०।। तथा उस नरक में रक्त, मवाद और छोटे-छोटे कीड़ों से भरी हुई, शरीर में दाह उत्पन्न करनेवाली एक वैतरणी नदी है, जिसमें शांतिलाभ की इच्छा से नारकी जीव कूदते हैं, किन्तु वहाँ तो उनकी पीड़ा अधिक भयंकर हो जाती है। (जीवों को दुःख होने का मूल कारण तो उनकी शरीर के साथ ममता तथा एकत्वबुद्धि ही है; धरती का स्पर्श आदि तो मात्र निमित्त कारण है।)।।१०।। नरकों के सेमल वृक्ष तथा सर्दी-गर्मी के दुःख सेमर तरु दलजुत असिपत्र, असि ज्यों देह विदारै तत्र । मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ।।११।। अन्वयार्थ :- (तत्र) उन नरकों में, (असिपत्र ज्यों) तलवार की धार की भाँति तीक्ष्ण (दलजुत) पत्तोंवाले (सेमर तरु) सेमल के वृक्ष [हैं, जो] (देह) शरीर को (असि ज्यों) तलवार की भाँति (विदाएँ) चीर देते हैं [और] (तत्र) वहाँ [उस नरक में] (ऐसी) ऐसी (शीत) ठण्ड [और] (उष्णता)गरमी (थाय) होती है कि] (मेरु समान) मेरु पर्वत के बराबर (लोह) लोहे का गोला भी (गलि) गल (जाय) सकता है। अन्वयार्थ :- (तहाँ) उस नरक में (भूमि) धरती (परसत) स्पर्श करने से (इसो) ऐसा (दुख) दुःख होता है [कि] (सहस) हजारों (बिच्छू) बिच्छू (डसे) डंक मारें, तथापि (नहिं तिसो) उसके समान दुःख नहीं होता [तथा] (तहाँ) वहाँ [नरक में] (राध-श्रोणितवाहिनी) रक्त और मवाद बहानेवाली नदी [वैतरणी नामक नदी] है, जो (कृमिकुलकलित) छोटे-छोटे क्षुद्र कीड़ों से भरी है तथा (देहदाहिनी) शरीर में दाह उत्पन्न करनेवाली है। भावार्थ :- उन नरकों की भूमिका स्पर्शमात्र करने से नारकियों को इतनी वेदना होती है कि हजारों बिच्छू एकसाथ डंक मारें, तब भी उतनी वेदना न हो। भावार्थ :- उन नरकों में अनेक सेमल के वृक्ष हैं, जिनके पत्ते तलवार की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। जब दुःखी नारकी छाया मिलने की आशा लेकर उस वृक्ष के नीचे जाता है, तब उस वृक्ष के पत्ते गिरकर उसके शरीर को चीर देते हैं। उन नरकों में इतनी गर्मी होती है कि एक लाख योजन ऊँचे सुमेरु
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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