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छहढाला
इल्ली (पिपील) चींटी (अलि) भँवरा (आदि) इत्यादि के (शरीर) शरीर (धर धर) बारम्बार धारण करके (मयो) मरण को प्राप्त हुआ [और] (बहु पीर) अत्यन्त पीड़ा (सही) सहन की।
भावार्थ :- जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस जीव नेत्रस की पर्याय बड़ी कठिनता से प्राप्त की। उस त्रस पर्याय में भी लट ( इल्ली) आदि दो इन्द्रिय जीव, चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव और भँवरा आदि चार इन्द्रिय जीव के शरीर धारण करके मरा और अनेक दुःख सहन किये || ६ ||
तिर्यंचगति में असंज्ञी तथा संज्ञी के दुःख
कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो । सिंहादिक सैनी है क्रूर, निबल पशु हति खाये भूर ॥ ७ ॥
अन्वयार्थ :- [ यह जीव] (कबहूँ) कभी (पंचेन्द्रिय) पंचेन्द्रिय (पशु) तिर्यंच (भयो) हुआ [तो] (मन बिन) मन के बिना (निपट) अत्यन्त (अज्ञानी) मूर्ख (थयो) हुआ [और] (सैनी) संज्ञी [भी] ( है ) हुआ [ तो ] ( सिंहादिक) सिंह आदि (क्रूर) क्रूर जीव (है) होकर (निबल) अपने से निर्बल, (भूर) अनेक (पशु) तिर्यंच (हति) मार-मारकर (खाये) खाये ।
भावार्थ :- यह जीव कभी पंचेन्द्रिय असंज्ञी पशु भी हुआ तो मनरहित होने से अत्यन्त अज्ञानी रहा; और कभी संज्ञी हुआ तो सिंह आदि क्रूर-निर्दय होकर, अनेक निर्बल जीवों को मार-मारकर खाया तथा घोर अज्ञानी हुआ ।। ७ ।। तिर्यंचगति में निर्बलता तथा दुःख
कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन ।
छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन, हिम, आतप त्रास ।।८।।
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पहली ढाल
अन्वयार्थ :- [यह जीव तिर्यंच गति में] (कबहूँ) कभी (आप) स्वयं (बलहीन) निर्बल (भयो) हुआ [तो] (अतिदीन) असमर्थ होने से (सब करि) अपने से बलवान प्राणियों द्वारा (खायो ) खाया गया [ और ] (छेदन) छेदा जाना, (भेदन) भेदा जाना, (भूख) भूख (पियास) प्यास, (भार वहन) बोझ ढोना, (हिम) ठण्ड (आतप) गर्मी [आदि के] (त्रास) दुःख सहन किये।
भावार्थ :- जब यह जीव तिर्यंचगति में किसी समय निर्बल पशु हुआ स्वयं असमर्थ होने के कारण अपने से बलवान प्राणियों द्वारा खाया गया तथा उस तिर्यंचगति में छेदा जाना, भेदा जाना, भूख, प्यास, बोझ ढोना, ठण्ड, गर्मी आदि के दुःख भी सहन किये ॥ ८ ॥
तिर्यंच के दुःख की अधिकता और नरकगति की प्राप्ति का कारण बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभ तैं जात न भने । अति संक्लेश भावतैं मस्यो, घोर श्वभ्रसागर में परयो ।। ९ ।