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छहढाला
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यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब । जिस होत प्रकटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब ।।७।।
अन्वयार्थ :- [वे वीतरागी मुनि सदा] (द्वादश) बारह प्रकार के (तप तपैं) तप करते हैं; (दश) दश प्रकार के (वृष) धर्म को (धरै) धारण करते हैं
और (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का (सदा) सदा (सेवै) सेवन करते हैं। (मुनि साथ में) मुनियों के संघ में (वा) अथवा (एक) अकेले (विच) विचरते हैं और (कदा) किसी भी समय (भवसुख) सांसारिक सुखों की (नहिं चहैं) इच्छा नहीं करते । (यों) इसप्रकार (सकल संयम चरित) सकल संयम चारित्र (है) है; (अब) अब (स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र सुनो । (जिस) जिस चारित्र के स्वरूप में रमणतारूप चारित्र] (होत) प्रकट होने से (आपनी) अपने आत्मा की (निधि) ज्ञानादिक सम्पत्ति (प्रकट) प्रकट होती है तथा (पर की) परवस्तुओं की ओर की (सब) सर्व प्रकार की (प्रवृत्ति) प्रवृत्ति (मिटै) मिट जाती है। अब से (स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र को सुनो।
भावार्थ :- (१) भावलिंगी मुनि का शुद्धात्मस्वरूप में लीन रहकर प्रतपना-प्रतापवन्त वर्तना, सो तप है। तथा हठरहित बारह प्रकार के तप के शुभ विकल्प होते हैं, वह व्यवहार तप है। वीतरागभावरूप उत्तमक्षमादि परिणाम सो धर्म है। भावलिंगी मुनि को उपर्युक्तानुसार तप और धर्म का आचरण होता है। वे मुनियों के संघ में अथवा अकेले विहार करते हैं; किसी भी समय सांसारिक सुख की इच्छा नहीं करते । - इसप्रकार सकलचारित्र का स्वरूप कहा।
(२) अज्ञानी जीव अनशनादि तप से निर्जरा मानते हैं; किन्तु मात्र बाह्य तप करने से तो निर्जरा होती नहीं है। शुद्धोपयोग निर्जरा का कारण है, इसलिये उपचार से तप को भी निर्जरा का कारण कहा है। यदि बाह्य दुःख सहन करना ही निर्जरा का कारण हो, तब तो पशु आदि भी क्षुधा-तृषा सहन करते हैं।
प्रश्न :- वे तो पराधीनतापूर्वक सहन करते हैं। जो स्वाधीनरूप से धर्मबुद्धिपूर्वक उपवासादि तप करे, उसे तो निर्जरा होती है न?
छठवीं ढाल
उत्तर :- धर्मबुद्धि से बाह्य उपवासादि करे तो वहाँ उपयोग तो अशुभ, शुभ या शुद्धरूप - जिसप्रकार जीव परिणमे, परिणमित होगा; उपवास के प्रमाण में यदि निर्जरा हो तो निर्जरा का मुख्य कारण उपवासादि सिद्ध हो, किन्तु ऐसा तो हो नहीं सकता; क्योंकि परिणाम दुष्ट होने पर उपवासादि करने से भी, निर्जरा कैसे सम्भव हो सकती है? यहाँ यदि ऐसा कहोगे कि - जैसे अशुभ, शुभ या शुद्धरूप उपयोग परिणमित हो, तदनुसार बन्ध-निर्जरा हैं तो उपवासादि तप निर्जरा का मुख्य कारण कहाँ रहा? - वहाँ अशुभ और शुभ परिणाम तो बन्ध के कारण सिद्ध हुए तथा शुद्ध परिणाम निर्जरा का कारण सिद्ध हुआ।
प्रश्न :- यदि ऐसा है तो अनशनादि को तप की संज्ञा किसप्रकार कही गई?
उत्तर :- उन्हें बाह्य-तप कहा है; बाह्य का अर्थ यह है कि बाह्य में दूसरों को दिखाई दे कि यह तपस्वी है; किन्तु स्वयं तो जैसे अंतरंग-परिणाम होंगे, वैसा ही फल प्राप्त करेगा।
(३) तथा अंतरंग तपों में भी प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप क्रिया में बाह्य प्रवर्तन है, वह तो बाह्य-तप जैसा ही जानना; जैसी बाह्य-क्रिया है, उसीप्रकार यह भी बाह्य-क्रिया है; इसलिये प्रायश्चित्त आदि बाह्य-साधन भी अन्तरंग तप नहीं हैं।
परन्तु ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अंतरंग परिणामों की शुद्धता हो, उसका नाम अन्तरंग तप जानना; और वहाँ तो निर्जरा ही है, वहाँ बन्ध नहीं होता तथा उस शुद्धता का अल्पांश भी रहे तो जितनी शुद्धता हुई, उससे तो निर्जरा है तथा जितना शुभभाव है, उससे बन्ध है । इसप्रकार अनशनादि क्रिया को उपचार से तप संज्ञा दी गई है - ऐसा जानना और इसलिये उसे व्यवहारतप कहा है। व्यवहार और उपचार का एक ही अर्थ है।
अधिक क्या कहें? इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है तथा अन्य अनेक प्रकार के भेद निमित्त की अपेक्षा से उपचार से कहे हैं; उन्हें व्यवहारमात्र धर्म संज्ञा जानना । इस रहस्य को (अज्ञानी) नहीं जानता, इसलिये