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छहढाला
अरि मित्र महल मसान कंचन, काँच निन्दन थुति करन । अर्घावतारन असि-प्रहारन में सदा समता धरन ।। ६ ।।
अन्वयार्थ :- [ वे वीतराग मुनि ] (दिन में) दिन में (इकबार ) एकबार (खड़े) खड़े रहकर और (निज-पान में) अपने हाथ में रखकर (अल्प) थोड़ा-सा (आहार) आहार (लें) लेते हैं; (कचलोंच) केशलोंच ( करत) करते हैं, (निज ध्यान में) अपने आत्मा के ध्यान में (लगे) तत्पर होकर (परिषह सौं) बाईस प्रकार के परिषहों से ( न डरत) नहीं डरते और (अरि मित्र) शत्रु या मित्र, ( महल मसान) महल या श्मशान, (कंचन काँच) सोना या काँच (निन्दन श्रुति करन) निन्दा या स्तुति करनेवाले, (अर्घावतारन) पूजा करनेवाले और (असि प्रहारन ) तलवार से प्रहार करनेवाले, उन सब में (सदा सदा (समता) समताभाव (धरन) धारण करते हैं।
भावार्थ :- [वे वीतराग मुनि ] (५) दिन में एकबार (६) खड़े-खड़े अपने हाथ में रखकर थोड़ा आहार लेते हैं; (७) केश का लोंच करते हैं;
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छठवीं ढाल
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आत्मध्यान में मग्न रहकर परिषहों से नहीं डरते अर्थात् बाईस प्रकार के परिषहों पर विजय प्राप्त करते हैं तथा शत्रु-मित्र, महल - श्मशान, सुवर्ण-काँच, निन्दक और स्तुति करनेवाले इन सबमें समभाव (राग-द्वेष का अभाव ) रखते हैं अर्थात् किसी पर राग-द्वेष नहीं करते ।
प्रश्न :- सच्चा परिषह-जय किसे कहते हैं?
उत्तर :- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कारपुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और अज्ञान ये बाईस प्रकार के परिषह हैं। भावलिंगी मुनि को प्रतिसमय तीन कषाय का (अनन्तानुबन्धी आदि का ) अभाव होने से स्वरूप में सावधानी के कारण जितने अंश में राग-द्वेष की उत्पत्ति नहीं होती, उतने अंश में उनका निरन्तर परिषह - जय होता है। क्षुधादि लगने पर उसके नाश का उपाय न करना, उसे (अज्ञानी जीव ) परिषह सहन कहते हैं। वहाँ उपाय तो नहीं किया; किन्तु अंतरंग में क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मिलने से दुःखी हुआ तथा रति आदि का कारण मिलने से सुखी हुआ किन्तु वे तो दुःख - स्वरूप परिणाम है और आर्त-रौद्रध्यान हैं; ऐसे भावों से संवर किस प्रकार हो सकता है?
प्रश्न :- तो फिर परिषह-जय किसप्रकार होता है?
उत्तर :- तत्त्वज्ञान के अभ्यास से कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट भासित न हो; दुःख के कारण मिलने से दुःखी न हो तथा सुख के कारण मिलने से सुखी न हो, किन्तु ज्ञेयरूप से उसका ज्ञाता ही रहे; वही सच्चा परिषहजय है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ ३३६) । ६ ।
मुनियों के तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरणचारित्र
तप तपैं द्वादश, धरै वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा । मुनि साथ में वा एक विचरें चहैं नहिं भवसुख कदा ॥।