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छहढाला
छठवीं ढाल
स्वरूपाचरणचारित्र का लक्षण और निर्विकल्प ध्यान परमाण नय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखै । दृग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जुमो विखै ।। मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनिरौं । चित् पिंड चंड अखंड सुगुणकरंड च्युत पुनि कलनितें ।।१०।।
अन्वयार्थ :- (जहँ) जिस स्वरूपाचरणचारित्र में (ध्यान) ध्यान (ध्याता) ध्याता और (ध्येय को) ध्येय - इन तीन के (विकल्प) भेद (न) नहीं होते तथा (जहाँ) जहाँ (वच) वचन का (भेद न) विकल्प नहीं होता, (तहाँ) वहाँ तो (चिद्भाव) आत्मा का स्वभाव ही (कर्म) कर्म, (चिदेश) आत्मा ही (करता) कर्ता, (चेतना) चैतन्यस्वरूप आत्मा ही (किरिया) क्रिया होता है - अर्थात कर्ता, कर्म और क्रिया - ये तीनों (अभिन्न) भेदरहित - एक, (अखिन्न) अखण्ड [बाधारहित] हो जाते हैं और (शुध उपयोग की) शुद्ध उपयोग की (निश्चल) निश्चल (दशा) पर्याय (प्रकटी) प्रकट होती है; (जहाँ) जिसमें (दृग-ज्ञान-व्रत) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (ये तीनधा) ये तीनों (एकै) एकरूप - अभेदरूप से (लसा) शोभायमान होते हैं।
भावार्थ :- वीतरागी मुनिराज स्वरूपाचरण के समय जब आत्मध्यान में लीन हो जाते हैं; तब ध्यान, ध्याता और ध्येय - ऐसे भेद नहीं रहते, वचन का विकल्प भी नहीं होता । वहाँ (आत्मध्यान में) तो आत्मा ही 'कर्म, आत्मा ही कर्ता और आत्मा का भाव, वह ही क्रिया होती है अर्थात् कर्ता, कर्म और क्रिया - वे तीनों बिलकुल अखण्ड, अभिन्न हो जाते हैं और शुद्धोपयोग की अचल दशा प्रकट होती है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक साथ-एकरूप होकर प्रकाशमान होते हैं।।९।। १. कर्म = कर्ता द्वारा हुआ कार्य; कर्ता = स्वतंत्ररूप से करे, सो कर्ता; क्रिया = कर्ता द्वारा
होनेवाली प्रवृत्ति।
अन्वयार्थ :- [उस स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनियों के (अनुभव में) आत्मानुभव में (परमाण) प्रमाण, (नय) नय और (निक्षेप को) निक्षेप का विकल्प (उद्योत) प्रकट (न दिखै) दिखाई नहीं देता; [परन्तु ऐसा विचार होता है कि] (मैं) मैं (सदा) सदा (दृग-ज्ञान-सुख-बलमय) अनन्तदर्शनअनन्तज्ञान-अनन्तसुख और अनन्तवीर्यमय हूँ। (मो विखै) मेरे स्वरूप में (आन) अन्य राग-द्वेषादि (भाव) भाव (नहिं) नहीं हैं, (मैं) मैं (साध्य) साध्य, (साधक) साधक तथा (कर्म) कर्म (अरु) और (तसु) उसके (फलनितें) फलों के (अबाधक) विकल्परहित (चित् पिंड) ज्ञान-दर्शनचेतनास्वरूप (चंड) निर्मल तथा ऐश्वर्यवान (अखंड) अखंड (सुगुण करंड) सुगुणों का भंडार (पुनि) और (कलनित) अशुद्धता से (च्युत) रहित हूँ।
भावार्थ :- इस स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनियों के आत्मानुभव में प्रमाण, नय और निक्षेप का विकल्प तो उठता ही नहीं, किन्तु गुण-गुणी का भेद भी नहीं होता - ऐसा ध्यान होता है। प्रथम ऐसा ध्यान होता है कि मैं