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छहढाला
पहली ढाल
छहढाला
(धार) करके (दुःखहारी) दुःख का नाश करनेवाली और (सुखकार) सुख को देनेवाली (सीख) शिक्षा (कहैं) कहते हैं।
भावार्थ :- तीन लोक में जो अनन्त जीव (प्राणी) हैं, वे दुःख से डरते हैं और सुख को चाहते हैं; इसलिये आचार्य दुःख का नाश करनेवाली तथा सुख को देनेवाली शिक्षा देते हैं ।।२।।
गुरु शिक्षा सुनने का आदेश तथा संसार-परिभ्रमण का कारण ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान । मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ।।३।।
ग्रन्थ रचना का उद्देश्य और जीवों की इच्छा जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दुखतें भयवन्त । तातै दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार ।।२।।
अन्वयार्थ :- (त्रिभुवन में) तीनों लोकों में (जे) जो (अनन्त) अनन्त (जीव) प्राणी [हैं वे] (सुख) सुख की (चाहैं) इच्छा करते हैं और (दुखते) दुःख से (भयवन्त) डरते हैं (तातें) इसलिये (गुरु) आचार्य (करुणा) दया
अन्वयार्थ :- (भवि) हे भव्यजीवो! (जो) यदि (अपनो) अपना (कल्यान) हित (चाहो) चाहते हो तो] (ताहि) गुरु की वह शिक्षा (मन) मन को (थिर) स्थिर (आन) करके (सुनो) सुनो [कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी] (अनादि) अनादिकाल से (मोह महामद) मोहरूपी महामदिरा (पियो) पीकर, (आपको) अपने आत्मा को (भूल) भूलकर (वादि) व्यर्थ (भरमत) भटक रहा है।