________________ छहढाला छहढाला (5) असुरकुमारों का गमन, सम्पूर्ण जीवराशि, गर्भनिवास का समय, यौवनावस्था, नरक की आयु, निगोदवास का समय, निगोदिया की इन्द्रियाँ, निगोदिया की आयु, निगोद में एक श्वास में जन्म-मरण तथा श्वास का परिमाण बतलाओ। त्रस पर्याय की दुर्लभता 1-2-3-4-5 इन्द्रिय जीव, तथा शीत से लोहे का गोला गल जाने को दृष्टांत द्वारा समझाओ। (7) बुरे परिणामों से प्राप्त होने योग्य गति, ग्रन्थ रचयिता, जीव-कर्म सम्बन्ध, जीवों की इच्छित तथा अनिच्छित वस्तु, नमस्कृत वस्तु, नरक की नदी, नरक में जानेवाले असुरकुमार, नारकी का शरीर, निगोदिया का शरीर, निगोद से निकलकर प्राप्त होनेवाली पर्यायें, नौ महीने से कम समय तक गर्भ में रहनेवाले, मिथ्यात्वी वैमानिक की भविष्यकालीन पर्याय, माता-पिता रहित जीव, सर्वाधिक दुःख का स्थान, और संक्लेश परिणाम सहित मृत्यु होने के कारण प्राप्त होने योग्य गति का नाम बतलाओ। (8) अपनी इच्छानुसार किसी शब्द, चरण अथवा छंद का अर्थ या भावार्थ कहो। पहली ढाल का सारांश समझाओ, गतियों के दुःखों पर एक लेख लिखो अथवा कहकर सुनाओ। (4) आत्महित, आत्मशक्ति का विस्मरण, गृहीत मिथ्यात्व, जीवतत्त्व की पहिचान न होने में किसका दोष है, तत्त्व का प्रयोजन, दुःख, मोक्षसुख की अप्राप्ति और संसार-परिभ्रमण के कारण दर्शाओ। (5) मिथ्यादृष्टि का आत्मा, जन्म और मरण, कष्टदायक वस्तु आदि सम्बन्धी विचार प्रगट करो। (6) कुगुरु, कुदेव और मिथ्याचारित्र आदि के दृष्टान्त दो। आत्महितरूप धर्म के लिये प्रथम व्यवहार या निश्चय? (7) कुगुरु तथा कुधर्म का सेवन और रागादिभाव आदि का फल बतलाओ। मिथ्यात्व पर एक लेख लिखो। अनेकान्त क्या है? राग तो बाधक ही है, तथापि व्यवहार मोक्षमार्ग को (शुभराग का) निश्चय का हेतु क्यों कहा है? अमुक शब्द, चरण अथवा छन्द का अर्थ और भावार्थ बतलाओ। दूसरी ढाल का सारांश समझाओ। भजन वन्दों अद्भुत चन्द्रवीर जिन, भविचकोर चित हारी। चिदानन्द अंबुधि अब उछस्यो भव तप नाशन हारी।।टेक. / / सिद्धारथ नृप कुल नभ मण्डल, खण्डन भ्रम-तम भारी। परमानन्द जलधि विस्तारन, पाप ताप छय कारी / / 1 / / उदित निरन्तर त्रिभुवन अन्तर, कीरत किरन पसारी। दोष मलंक कलंक अखकि, मोह राह निरवारी / / 2 / / कर्मावरण पयोध अरोधित, बोधित शिव मगचारी। गणधरादि मुनि उङ्गन सेवत, नित पूनम तिथि धारी / / 3 / / अखिल अलोकाकाश उल्लंघन, जासु ज्ञान उजयारी। 'दौलत' तनसा कुमुदिनिमोदन, ज्यों चरम जगतारी / / 4 / / हे जिन तेरो सुजस उजागर गावत है मुनिजन ज्ञानी ।।टेक. / / दुर्जय मोह महाभट जाने निज वस कीने हैं जग प्रानी। सो तुम ध्यान कृपान पान गहिं तत् छिन ताकी थितिहानी / / 1 / / सुप्त अनादि अविद्या निद्रा जिन जन निज सुधि बिसरानी। वै सचेत तिन निज निधि पाई श्रवण सुनी जब तुम वानी / / 2 / / मंगलमय तू जग में उत्तम, तू ही शरण शिवमग दानी।। तुम पद सेवा परम औषधि जन्म-जरा-मृत गद हानि / / 3 / / तुमरे पंचकल्याणक माहीं त्रिभुवन मोह दशा हानी / विष्णु विदाम्बर जिष्णु दिगम्बर बुध शिव कहि ध्यावत ध्यानी / / 4 / / सर्व दर्व गुण परिजय परिणति, तुम सुबोध में नहिं छानी। तातें 'दौल' दास उर आशा प्रकट करी निज रस सानी / / 4 / /