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छहढाला
सिद्धदशा (सिद्ध स्वरूप) का वर्णन
पुनिघाति शेष अघाति विधि, छिनमाहिं अष्टम भू वरौं । वसु कर्म विनसँ सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं ।। संसार खार अपार पारावार तरि तीरहिं गये। अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये ।। १२ ।।
अन्वयार्थ :- (पुनि) केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् (शेष) शेष चार (अघाति विधि) अघातिया कर्मों का (घाति) नाश करके (छिनमाहिं) कुछ ही समय में (अष्टम भू) आठवीं पृथ्वी - ईषत् प्राग्भार - मोक्ष क्षेत्र में (वसैं) निवास करते हैं; उनको (वसु कर्म) आठ कर्मों का (विनसें) नाश हो जाने से (सम्यक्त्व आदिक ) सम्यक्त्वादि (सब) समस्त (वसु सुगुण) आठ मुख्य गुण (लसैं) शोभायमान होते हैं। [ऐसे सिद्ध होनेवाले मुक्तात्मा] (संसार खार अपार पारावार) संसाररूपी खारे तथा अगाध समुद्र को (तरि) पार करके (तीरहिं) किनारे पर (गये) पहुँच जाते हैं और (अविकार) विकाररहित, (अकल) शरीररहित, (अरूप) रूपरहित, (शुचि) शुद्ध - निर्दोष ( चिद्रूप) दर्शन - ज्ञान - चेतनास्वरूप तथा (अविनाशी) नित्य-स्थायी (भये) होते हैं।
भावार्थ :- अरिहन्त दशा अथवा केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उस जीव को भी जिन गुणों की पर्यायों में अशुद्धता होती है, उनका क्रमशः अभाव कर वह जीव पूर्ण शुद्ध दशा को प्रकट करता है और उससमय असिद्धत्व नामक अपने उदयभाव का नाश होता है तथा चार अघाति कर्मों का भी स्वयं
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छठवीं ढाल
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सर्वथा अभाव हो जाता है। सिद्धदशा में सम्यक्त्वादि आठ गुण (गुणों की निर्मल पर्यायें) प्रकट होते हैं। मुख्य आठ गुण व्यवहार से कहे हैं; निश्चय से तो अनन्त गुण (सर्व गुणों की पर्यायें) शुद्ध होते हैं और स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन के कारण एक समयमात्र में लोकाग्र में पहुँचकर वहाँ स्थिर रह जाते हैं। ऐसे जीव संसाररूपी दुःखदायी तथा अगाध समुद्र से पार हो गये हैं और वही जीव निर्विकारी, अशरीरी, अमूर्तिक, शुद्ध चैतन्यरूप तथा अविनाशी होकर सिद्धदशा को प्राप्त हुए हैं ।। १२ ।।
मोक्षदशा का वर्णन
निजमाहिं लोक- अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित थये । रहिहैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परिणये ।। धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया। तिनही अनादि भ्रमण पंच प्रकार तजि वर सुख लिया ।। १३ ।।
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अन्वयार्थ (निजमाहिं) उन सिद्धभगवान के आत्मा में (लोकअलोक) लोक तथा अलोक के (गुण, परजाय) गुण और पर्यायें (प्रतिबिम्बित थये) झलकने लगते हैं अर्थात् ज्ञात होने लगते हैं। वे (यथा) जिसप्रकार (शिव) मोक्षरूप से (परिणये) परिणमित हुए हैं (तथा) उसीप्रकार (अनन्तानन्त काल) अनन्त - अनन्त काल तक ( रहिहैं) रहेंगे।
(जे) जिन (जीव) जीवों ने (नरभव पाय) पुरुष पर्याय प्राप्त करके (यह ) यह मुनिपद आदि की प्राप्तिरूप (कारज) कार्य (किया) किया है, वे जीव (धनि धन्य हैं) महान धन्यवाद के पात्र हैं और (तिनही) उन्हीं जीवों ने