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छहढाला
छठवीं ढाल
(अनादि) अनादिकाल से चले आ रहे (पंच प्रकार) पाँच प्रकार के परिवर्तनरूप (भ्रमण ) संसारपरिभ्रमण को (तजि) छोड़कर (वर) उत्तम (सुख) सुख (लिया) प्राप्त किया है।
भावार्थ :- सिद्ध भगवान के आत्मा में केवलज्ञान द्वारा लोक और अलोक (समस्त पदार्थ) अपने-अपने गुण और तीनोंकाल की पर्यायों सहित एकसाथ, स्वच्छ दर्पण के दृष्टान्तरूप से- सर्वप्रकार से स्पष्ट ज्ञात होते हैं: (किन्तु ज्ञान में दर्पण की भाँति छाया और आकृति नहीं पड़ती)। वे पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षदशा को प्राप्त हुए हैं तथा वह दशा वहाँ विद्यमान अन्य सिद्धमुक्त जीवों की भाँति 'अनन्तानन्त काल तक रहेगी; अर्थात् अपरिमित काल व्यतीत हो जाये, तथापि उनकी अखण्ड ज्ञायकता-शान्ति आदि में किंचित् बाधा नहीं आती। यह मनुष्यपर्याय प्राप्त करके जिन जीवों ने शुद्ध चैतन्य की प्राप्तिरूप कार्य किया है, वे जीव महान धन्यवाद (प्रशंसा) के पात्र हैं और उन्होंने अनादिकाल से चले आ रहे पंच परावर्तनरूप संसार के परिभ्रमण का त्याग करके उत्तम सुख - मोक्षसुख प्राप्त किया है।।१३ ।।
रत्नत्रय का फल और आत्महित में प्रवृत्ति का उपदेश मुख्योपचार दु भेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरै । अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल-जग-मल ह ।। इमि जानि आलस हानि साहस ठानि, यह सिख आदरौ । जबलों न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ ।।१४ ।।
अन्वयार्थ :- (बड़भागि) जो महा पुरुषार्थी जीव (यों) इसप्रकार (मुख्योपचार) निश्चय और व्यवहार (दुभेद) ऐसे दो प्रकार के (रत्नत्रय)
रत्नत्रय को (धरै अरु धरेंगे) धारण करते हैं और करेंगे (ते) वे (शिव) मोक्ष (लहैं) प्राप्त करते हैं और (तिन) उन जीवों का (सुयश-जल) सुकीर्तिरूपी जल (जग-मल) संसाररूपी मैल का (हरै) नाश करता है। - (इमि) ऐसा (जानि) जानकर (आलस) प्रमाद [स्वरूप में असावधानी] (हानि) छोड़कर (साहस) पुरुषार्थ (ठानि) करने (यह) यह (सिख ) शिक्षा-उपदेश (आदरौ) ग्रहण करो कि (जबलौं) जबतक (रोग जरा) रोग या वृद्धावस्था (न गहै) न आये (तबलौं) तबतक (झटिति) शीघ्र (निज हित) आत्मा का हित (करौ) कर लेना चाहिए।
भावार्थ :- जो सत्पुरुषार्थी जीव सर्वज्ञ-वीतराग कथित निश्चय और व्यवहाररत्नत्रय का स्वरूप जानकर, उपादेय तथा हेय तत्त्वों का स्वरूप समझकर अपने शुद्ध उपादान-आश्रित निश्चयरत्नत्रय को (शुद्धात्माश्रित वीतरागभावस्वरूप मोक्षमार्ग को) धारण करते हैं तथा करेंगे, वे जीव पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षमार्ग को प्राप्त होते हैं और होंगे। (गुणस्थान के प्रमाण में शुभराग आता है, वह व्यवहार-रत्नत्रय का स्वरूप जानना तथा उसे निश्चय से उपादेय न मानना, उसका नाम व्यवहार-रत्नत्रय का धारण करना है)। जो जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और होंगे, उनका सुकीर्तिरूपी जल कैसा है? - कि जो सिद्ध परमात्मा का यथार्थ स्वरूप समझकर स्वोन्मुख होनेवाले भव्यजीव हैं, उनके संसार (मलिनभाव) रूपी मल को हरने का निमित्त है। ऐसा जानकर प्रमाद को छोड़कर, साहस अर्थात् सच्चा पुरुषार्थ करके यह उपदेश अङ्गीकार करो कि जबतक रोग या वृद्धावस्था ने शरीर को नहीं घेरा है, तबतक शीघ्र (वर्तमान में ही) आत्मा का हित कर लो।।१४।।
अन्तिम सीख यह राग-आग दहै सदा, ताक् समामृत सेइये। चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये ।। कहा रच्यो पर पद में, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै। अब "दौल"! होउ सुखी स्वपद-रचि, दाव मत चूको यहै ।।१५।।
१. जिसप्रकार बीज को यदि जला दिया जाये तो वह उगता नहीं है; उसीप्रकार जिन्होंने
संसार के कारणों का सर्वथा नाश कर दिया, वे पुनः जन्म धारण नहीं करते। अथवा जिसप्रकार मक्खन से घी हो जाने के पश्चात् पुनः मक्खन नहीं बनता, उसीप्रकार आत्मा की सम्पूर्ण पवित्रतारूप अशरीरी मोक्षदशा (परमात्मपद) प्रकट करने के पश्चात् उसमें कभी अशुद्धता नहीं आती - संसार में पुनः आगमन नहीं होता।
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