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________________ प्रथम उन्तीस संस्करण १ लाख ११ हजार ५०० ( १९६५ से अद्यतन ) तीसवाँ संस्करण (२७ मई, २००७) मूल्य: बारह रुपये योग टाइपसैटिंग : त्रिमूर्ति कम्प्यूटर्स ए-४ बापूनगर, जयपुर मुद्रक : प्रिन्ट 'ओ' लैण्ड बाईस गोदाम, जयपुर ३ हजार : १ लाख १४ हजार, ५०० पण्डित दौलतरामजी का जीवन परिचय 'छहढाला' जैसी अमर कृति के रचनाकार पण्डित दौलतरामजी का जन्म वि.सं. १८५५-५६ के मध्य सासनी, जिला- हाथरस में हुआ था। उनके पिता का नाम टोडरमलजी था, जो गंगटीवाल गोत्रीय पल्लीवाल जाति के थे। आपने बजाजी का व्यवसाय चुना और अलीगढ़ बस गये। आपका विवाह अलीगढ़ निवासी चिन्तामणि बजाज की सुपुत्री के साथ हुआ। आपके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़े टीकारामजी थे। 11 दौलतरामजी की दो प्रमुख रचनाएँ हैं एक तो 'छहढाला' और दूसरी 'दौलत-विलास'। छहढाला ने तो आपको अमरत्व प्रदान किया ही; साथ ही आपने १५० के लगभग आध्यात्मिक पदों की रचना की, जो दौलत-विलास में संग्रहित हैं। सभी पद भावपूर्ण हैं और 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। "छहढाला' ग्रन्थ का निर्माण वि. सं. १८९१ में हुआ। यह कृति अत्यन्त लोकप्रिय है तथा जन-जन के कंठ का हार बनी हुई है। इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण जैनधर्म का मर्म छिपा हुआ है। वि. सं. १९२३ में मार्ग शीर्ष कृष्णा अमावस्या को पण्डित दौलतरामजी का देहली में स्वर्गवास हो गया। (ii) 2 प्रकाशकीय ( परिवर्धित नवीन संस्करण) अध्यात्म प्रेमी कविवर पण्डित श्री दौलतरामजी कृत छहढाला ग्रन्थ आज दिगम्बर जैन समाज में इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि पाठशालाओं के माध्यम से इसके छन्द बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़े हुए हैं। यद्यपि दौलतरामजी कृत इस छहढाला के पूर्व पण्डित श्री बुधजनजी एवं पण्डित श्री द्यानतरायजी ने छहढाला की रचना की थी, परन्तु उनका समाज में अपना कोई विशिष्ट स्थान नहीं बन पाया। दोनों छहढाला में ढालों के विषय सम्बन्धी क्रम में भी मौलिक अन्तर है। इसमें संसारी जीव के भ्रमण की कथा है तथा किसप्रकार यह जीव संसाररूपी समुद्र को पार करके मोक्षपद प्राप्त कर सकता है इसका मार्ग सुगमता से बताया गया है। छहढाला से तात्पर्य इस ग्रन्थ में वर्णित ढालों से है। जिसप्रकार युद्धक्षेत्र में शत्रु पक्ष - के वारों से बचाव के लिए ढालों का प्रयोग किया जाता है, उसीप्रकार इस संसार चक्र में इस जीव को चौरासी लाख योनियों में भटकानेवाले मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञानमिथ्याचारित्र से बचाव के लिए छहढाला ग्रन्थ है। सर्वप्रथम यह जीव मिथ्यात्व के वशीभूत होकर किन-किन गतियों व किन-किन योनियों में भटकता है - इसका सुविशद व संक्षिप्त वर्णन पहली ढाल में किया गया है। जिनके वशीभूत होकर यह जीव संसार चक्र में जन्म-मरण के अनन्त दुःख उठा रहा है, उन मिथ्यादर्शन - मिथ्याज्ञान- मिथ्याचारित्र (अगृहीत व गृहीत) का स्वरूप क्या है - इसका वर्णन दूसरी ढाल में सूत्रात्मक शैली में किया गया है। - तीसरी ढाल में मोक्षमार्ग का सामान्य स्वरूप दर्शन व सम्यग्दर्शन का विशेष लक्षण, फल एवं महिमा का वर्णन बहुत ही सुन्दर रीति से किया गया है। चौथी ढाल में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप फल एवं महिमा के साथ-साथ सम्यक्चारित्र के अंतर्गत पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक के बारह व्रतों का चित्रण भी प्रामाणिकता के साथ किया गया है। देशव्रती श्रावक जब स्वयं विशेष पुरुषार्थ करके मुनिव्रत अंगीकार करता है, तब वह कैसी भावना भाता है इसका सर्वांगीण चित्रण बारह भावनाओं के रूप में पाँचवीं ढाल में अत्युत्तम रीति से किया गया है। - समाज में अभी भी इन अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का चिन्तवन रो-रोकर किया जाता है, परन्तु यहाँ तो पाँचवीं ढाल के शुरू में पण्डित दौलतरामजी कहते हैं इन चिन्तन सम-सुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागे। (iii)
SR No.008344
Book TitleChahdhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size326 KB
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