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छहढाला
पाँचवीं ढाल
सकलव्रत:
देवों को रहने के स्थान। देवगति को प्राप्त जीवों को देव कहते हैं। वे अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वाशित्व - इन आठ सिद्धि (ऐश्वर्य) वाले होते हैं। उनके मनुष्य समान आकारवाला सप्त कुधातु रहित सुन्दर
वैक्रियक शरीर होता है। धर्म :- दुःख से मुक्ति दिलानेवाला निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग;
जिससे आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है। (रत्नत्रय अर्थात्
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र।) धर्म के भिन्न (१) वस्तु का स्वभाव वह धर्म; (२) अहिंसा; भिन्न लक्षण :- (३) उत्तमक्षमादि दश लक्षण और (४) निश्चयरत्नत्रय । पाप :- मिथ्यादर्शन, आत्माकी विपरीत समझ, हिंसादि
अशुभभाव सो पाप है। पुण्य :- दया, दान, पूजा, भक्ति, व्रतादि के शुभभाव; मंदकषाय,
वह जीव के चारित्रगुण की अशुभ दशा है। पुण्य-पाप
दोनों आस्रव हैं, बन्धन के कारण हैं। बोधि :- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता।
(साधु परमेष्ठी): - समस्त व्यापार से विमुक्त, चार प्रकार की आराधना में सदा लीन, निर्ग्रन्थ और निर्मोह - ऐसे सर्व साधु होते हैं। समस्त भावलिंगी मुनियों को
नग्न दिगम्बर दशा तथा साधु के २८ मूलगुण होते हैं। योग :- मन, वचन, काया के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों का
कम्पन होना, उसे द्रव्ययोग कहते हैं। कर्म और नोकर्म के
ग्रहण में निमित्तरूप जीव की शक्तिको भावयोग कहते हैं। शुभ उपयोग :- देवपूजा, स्वाध्याय, दया, दानादि, अणुव्रत-महाव्रतादि
शुभभावरूप आचरण। ५ महाव्रत, ५ समिति, ६ आवश्यक, ५ इन्द्रियजय, केशलोंच, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़ेखड़े आहार, दिन में एक बार आहार तथा नग्नता आदि का पालन - सो व्यवहार से सकलव्रत है और रत्नत्रय की एकतारूप आत्मस्वभाव में स्थिर होना, सो निश्चय
से सकलव्रत है। सकलव्रती :- (सकलव्रतों के धारक) रत्नत्रय की एकतारूप स्वभाव
में स्थिर रहनेवाले महाव्रत के धारक दिगम्बर मुनि वे निश्चय सकलव्रती हैं।
अन्तर-प्रदर्शन (१) अनुप्रेक्षा और भावना पर्यायवाची शब्द हैं; उनमें कोई अन्तर नहीं है। (२) धर्मभावना में तो बारम्बार विचार की मुख्यता है और धर्म में निज गुणों
में स्थिर होने की प्रधानता है। (३) व्यवहार सकलव्रत में तो पापों का सर्वदेश त्याग किया जाता है और
व्यवहार अणुव्रत में उनका एकदेश त्याग किया जाता है। इतना इन दोनों में अन्तर है।
पाँचवीं ढाल की प्रश्नावली (१) अनित्यभावना, अन्यत्वभावना, अविपाकनिर्जरा, अकामनिर्जरा,
अशरणभावना, अशुचिभावना, आस्रवभावना, एकत्वभावना, धर्मभावना, निश्चयधर्म, बोधिदुर्लभभावना, लोकभावना, संवरभावना,
सकामनिर्जरा, सविपाकनिर्जरा आदि के लक्षण समझाओ। (२) महाव्रत में और अणुव्रत में, अनुप्रेक्षा में और भावना में, धर्म में और
धर्मद्रव्य में, धर्म में और धर्मभावना में तथा एकत्वभावना और
मुनि :