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छहढाला
अन्वयार्थ :- ( जोबन ) यौवन, (गृह) मकान, (गौ) गाय-भैंस, (धन) लक्ष्मी, (नारी) स्त्री, (हय) घोड़ा, (गय) हाथी, (जन) कुटुम्ब, (आज्ञाकारी) नौकर-चाकर तथा (इन्द्रिय-भोग) पाँच इन्द्रियों के भोग - ये सब (सुरधनु) इन्द्रधनुष तथा (चपला ) बिजली की (चपलाई) चंचलता - क्षणिकता की भाँति ( छिन थाई) क्षणमात्र रहनेवाले हैं।
भावार्थ:- यौवन, मकान, गाय-भैंस, धन-सम्पत्ति, स्त्री, घोड़ा - हाथी, कुटुम्बीजन, नौकर-चाकर तथा पाँच इन्द्रियों के विषय ये सर्व वस्तुएँ क्षणिक हैं - अनित्य हैं - नाशवान हैं। जिसप्रकार इन्द्रधनुष और बिजली देखते ही देखते विलीन हो जाते हैं, उसीप्रकार ये यौवनादि कुछ ही काल में नाश को प्राप्त होते हैं। वे कोई पदार्थ नित्य और स्थायी नहीं हैं, अपितु निज शुद्धात्मा ही नित्य और स्थायी है।
ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके, सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह "अनित्य भावना” है। मिथ्यादृष्टि जीव को अनित्यादि एक भी भावना यथार्थ नहीं होती ॥ ३ ॥
२. अशरण भावना
सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि, काल दले ते । मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥४ ॥
अन्वयार्थ :- (सुर असुर खगाधिप) देवों के इन्द्र, असुरों के इन्द्र और खगेन्द्र [गरुड़, हंस ] (जेते) जो-जो हैं, (ते) उन सबका (मृग हरि ज्यों)
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पाँचवीं ढाल
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जिसप्रकार हिरन को सिंह मार डालता है; उसीप्रकार (काल) मृत्यु (दले) नाश करता है । (मणि) चिन्तामणि आदि मणिरत्न, (मंत्र) बड़े-बड़े रक्षामंत्र; (तंत्र) तंत्र, (बहु होई) बहुत से होने पर भी ( मरते) मरनेवाले को (कोई) वे कोई (न बचावे) नहीं बचा सकते।
भावार्थ :- इस संसार में जो-जो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, खगेन्द्र (पक्षियों के राजा) आदि हैं, उन सबका जिसप्रकार हिरन को सिंह मार डालता है, उसी प्रकार काल (मृत्यु) नाश करता है। चिंतामणि आदि मणि, मंत्र और तंत्र-तंत्रादि कोई भी मृत्यु से नहीं बचा सकता ।
यहाँ ऐसा समझना कि निज आत्मा ही शरण है; उसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है। कोई जीव अन्य जीव की रक्षा कर सकने में समर्थ नहीं है; इसलिये पर से रक्षा की आशा करना व्यर्थ है। सर्वत्र सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है। आत्मा निश्चय से मरता ही नहीं; क्योंकि वह अनादि अनन्त है - ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह "अशरण भावना" है ।।४ ॥
१३. संसार भावना
चहुँगति दुःख जीव भरै है, परिवर्तन पंच करै है ।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ।। ५ ।।
अन्वयार्थ (जीव) जीव (चहुँगति) चार गति में (दुःख) दुःख (भरै है) भोगता है और (पंच परिवर्तन) पाँच परावर्तन पाँच प्रकार से परिभ्रमण
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