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छहढाला
है। उसे निम्नोक्त आठ अंगों सहित धारण करना चाहिए। व्यवहार सम्यक्त्वी का स्वरूप पहले, दूसरे तथा तीसरे छंद के भावार्थ में समझाया है। निश्चय सम्यक्त्व के बिना मात्र व्यवहार को व्यवहार सम्यक्त्व नहीं कहा जाता ।। १० ।। सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण
वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो । शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ।। अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये । बिन जानें तैं दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये ।। ११ ।। अन्वयार्थ :- (वसु) आठ (मद) मद का (टारि) त्याग करके, (त्रिशठता) तीन प्रकार की मूढ़ता को (निवारि) हटाकर, (षट्) छह ('अनायतन) अनायतनों का (त्यागो) त्याग करना चाहिए। (शंकादिक) शंकादि (वसु) आठ (दोष बिना) दोषों से रहित होकर (संवेगादिक) संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम में (चित) मन को (पागो) लगाना चाहिए। अब, सम्यक्त्व के (अष्ट) आठ (अंग) अंग (अरु) और ( पचीसों दोष) पच्चीस दोषों को (संक्षेपै) संक्षेप में (कहिये) कहा जाता है; क्योंकि (बिन जानें तैं उन्हें जाने बिना (दोष) दोषों को (कैसे) किस प्रकार ( तजिये) छोड़ें और (गुननकों) गुणों को किस प्रकार ( गहिये) ग्रहण करें?
भावार्थ :- आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म - स्थान) और आठ शंकादि दोष - इसप्रकार सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं। संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यग्दृष्टि को होते हैं। सम्यक्त्व के अभिलाषी जीव को सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों का त्याग करके उन भावनाओं में मन लगाना चाहिए। अब सम्यक्त्व के आठ गुणों (अंगों) और पच्चीस दोषों का संक्षेप में वर्णन किया जाता है; क्योंकि जाने और समझे बिना दोषों को कैसे छोड़ा जा सकता है तथा गुणों को कैसे ग्रहण किया जा सकता है ? ।। ११ ।।
१. अन्+आयतन अनायतन धर्म का स्थान न होना।
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तीसरी ढाल
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सम्यक्त्व आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषों का लक्षण जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख- वांछा भानै । मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व - कुतत्त्व पिछानै ।। निज गुण अरु पर औगुण ढाँके, वा निजधर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-पर को सु दिढ़ावे ।। १२ ।।
छन्द १३ (पूर्वार्द्ध)
धर्मी सों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै; इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै ।