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छहढाला
चौथी ढाल
प्रत्यक्ष :- (१) आत्मा के आश्रय से होनेवाला अतीन्द्रिय ज्ञान है।
(२) अक्षप्रति - अक्ष = आत्मा अथवा ज्ञान प्रति =
(अक्ष के) सन्मुख - निकट। पर्याय :- गुणों के विशेष कार्य को (परिणमन को) पर्याय कहते हैं। भोग :- वह वस्तु जिसे एक ही बार भोगा जा सके। मतिज्ञान :- (१) पराश्रय की बुद्धि छोड़कर दर्शन-उपयोगपूर्वक
स्वसन्मुखता से प्रकट होनेवाले निज-आत्मा के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। (२) इन्द्रियाँ और मन जिसमें निमित्तमात्र हैं - ऐसे ज्ञान
को मतिज्ञान कहते है। महाव्रत:- हिंसादि पाँच पापों का सर्वथा त्याग।
(निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान और वीतरागचारित्ररहित मात्र व्यवहारव्रत के शुभभाव को महाव्रत नहीं कहा है, किन्तु
बालव्रत - अज्ञानव्रत कहा है। मनःपर्ययज्ञान :- द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की मर्यादा से दूसरे के मन में रहे
हुए सरल अथवा गूढ़ रूपी पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान । १. द्रव्य, गुण, पर्यायों को केवलज्ञानी भगवान जानते हैं, किन्तु उनके अपेक्षित धर्मों को
नहीं जान सकते - ऐसा मानना, सो असत्य है। और वह अनन्त को अथवा मात्र आत्मा को ही जानते हैं, किन्तु सर्व को नहीं जानते हैं - ऐसा मानना भी न्याय से विरुद्ध है। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, प्रश्न ८७, पृष्ठ २६) केवलज्ञानी भगवान क्षायोपशमिक ज्ञानवाले जीवों की भाँति अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप क्रम से नहीं जानते, किन्तु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को युगपत् (एकसाथ) जानते हैं । इसप्रकार उन्हें सब कुछ प्रत्यक्ष वर्तता है। (प्रवचनसार, गाथा २१ की टीका-भावार्थ ।) अति विस्तार से बस होओ, अनिवारित (रोका न जा सके ऐसा - अमर्यादित) जिसका विस्तार है - ऐसे प्रकाशवाला होने से क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान) अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है। (प्रवचनसार, गाथा ४७ की टीका। टिप्पणी :- श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान से सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य में निश्चित और क्रमबद्ध पर्यायें होती हैं - उलटी-सीधी नहीं।
केवलज्ञान :- जो तीनकाल और तीनलोकवर्ती सर्व पदार्थों को
(अनन्तधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को) प्रत्येक समय यथास्थित, परिपूर्णरूप से स्पष्ट और एकसाथ जानता
है. उसे केवलज्ञान कहते हैं। विपर्यय :- विपरीत ज्ञान । जैसे कि - सीप को चाँदी जानना और
चाँदी को सीप जानना । अथवा - शुभास्रव से वास्तव में आत्महित मानना; देहादि परद्रव्य को स्व रूप मानना,
अपने से भिन्न न मानना। व्रत :- शुभकार्य करना और अशुभकार्य को छोड़ना, सो व्रत है।
अथवा हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन पाँच पापों से भावपूर्वक विरक्त होने को व्रत कहते हैं। व्रत सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् होते हैं और आंशिक
वीतरागतारूप निश्चयव्रत सहित व्यवहारव्रत होते हैं। शिक्षाव्रत :- मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा देनेवाला व्रत। श्रुतज्ञान :- (१) मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थों के सम्बन्ध में अन्य
पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। (२) आत्मा की शुद्ध अनुभूतिरूप श्रुतज्ञान को भावश्रुतज्ञान
कहते हैं। संन्यास :- (संल्लेखना) आत्मा का धर्म समझकर अपनी शुद्धता के
लिए कषायों को और शरीर को कृश करना (शरीर की
ओर का लक्ष्य छोड़ देना), सो समाधि अथवा संल्लेखना
कहलाती है। संशय:- विरोधसहित अनेक प्रकारों का अवलम्बन करनेवाला
ज्ञान; जैसे कि - यह सीप होगी या चाँदी? आत्मा अपना ही कार्य कर सकता होगा या पर का भी? देव-गुरु-शास्त्र,