Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 69
________________ ૨૮ छहढाला छठवीं ढाल देखकर, उनके शरीर को पत्थर समझकर मृगों के झुण्ड (पशु) खाज (खुजली) खजाते हैं, तथापि वे मनि अपने ध्यान में निश्चल रहते हैं। उन भावलिंगी मुनियों को तीन गुप्तियाँ हैं। प्रश्न :- गुप्ति किसे कहते हैं? उत्तर :- मन-वचन-काया की बाह्य चेष्टा मिटाना चाहे, पाप का चितवन न करे, मौन धारण करे तथा गमनादि न करे; उसे अज्ञानी जीव गुप्ति मानते हैं। उस समय मन में तो भक्ति आदिरूप अनेक प्रकार के शुभरागादि विकल्प उठते हैं; इसलिये प्रवृत्ति में तो गुप्तिपना हो नहीं सकता। (सम्यग्दर्शन-ज्ञान और आत्मा में लीनता द्वारा) वीतरागभाव होने पर जहाँ (मन-वचन-काया की चेष्टा न हो, वही गुप्ति है । (मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृष्ठ २३५)। मुनि प्रिय (अनुकूल) और अप्रिय (प्रतिकूल) पाँच इन्द्रियों के पाँच रस, पाँच रूप, दो गंध, आठ स्पर्श तथा शब्दरूप विषयों में राग द्वेष नहीं करते। इसप्रकार (५) पाँच इन्द्रियों को जीतने के कारण वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं।४॥ मुनियों के छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण समता सम्हाएँ, थुति उचारे, वन्दना जिनदेव को। नित करें श्रुति-रति, करें प्रतिक्रम, तजैंतन अहमेव को।। जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अम्बर आवरन । भूमाहिं पिछली रयनि में कछु शयन एकासन करन ।।५।। अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि] (नित) सदा (समता) सामायिक (सम्हारे) सम्हालकर करते हैं, (थुति) स्तुति (उचारै) बोलते हैं (जिनदेव को) जिनेन्द्र १. इस सम्बन्ध में सुकुमाल मुनि का दृष्टान्तः - जब वे ध्यान में लीन थे, उस समय एक सियासिनी और उसके दो बच्चे उनका आधा पैर खा गये थे, किन्तु वे अपने ध्यान से किंचित् चलायमान नहीं हुए। (संयोग से दुःख होता ही नहीं, शरीरादि में ममत्व करे तो उस ममत्व भाव से ही दुःख का अनुभव होता है - ऐसा समझना।) भगवान की (वन्दना) वन्दना करते हैं, (श्रुतिरति) स्वाध्याय में प्रेम (करें) करते हैं, (प्रतिक्रम) प्रतिक्रमण (क) करते हैं, (तन) शरीर की (अहमेव को) ममता को (त6) छोड़ते हैं। (जिनके) जिन मुनियों को (न्हौन) स्नान और (दंतधोवन) दाँतों को स्वच्छ करना (न) नहीं होता, (अंबर आवरन) शरीर ढंकने के लिए वस्त्र (लेश) किंचित् भी उनके (न) नहीं होता और (पिछली रयनि में) रात्रि के पिछले भाग में (भूमाहि) धरती पर (एकासन) एक करवट (कछु) कुछ समय तक (शयन) शयन (करन) करते हैं। भावार्थ :- वीतरागी मुनि सदा (१) सामायिक, (२) सच्चे देव-गुरुशास्त्र की स्तुति, (३) जिनेन्द्र भगवान की वन्दना, (४) स्वाध्याय, (५) प्रतिक्रमण, (६) कायोत्सर्ग (शरीर के प्रति ममता का त्याग) करते हैं; इसलिये उनको छह आवश्यक होते हैं और वे मुनि कभी भी (१) स्नान नहीं करते, (२) दाँतों की सफाई नहीं करते, (३) शरीर को ढंकने के लिए थोड़ासा भी वस्त्र नहीं रखते तथा (४) रात्रि के पिछले भाग में एक करवट से भूमि पर कुछ समय शयन करते हैं ।।५।। मुनियों के शेष गुण तथा राग-द्वेष का अभाव इक बार दिन में लें अहार, खड़े अलप निज-पान में। कचलोंच करत न डरत परिषह सौं, लगे निज ध्यान में ।। 69

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