Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 67
________________ १२४ छहढाला छठवीं ढाल मुनि को किंचित् राग होने पर गमनादि क्रियाएँ होती हैं, वहाँ उन क्रियाओं में अति आसक्ति के अभाव से प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती तथा दूसरे जीवों को दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन सिद्ध नहीं करते, इसलिये उनसे स्वयं दया का पालन होता है - इसप्रकार सच्ची समिति है। मोक्षमार्ग-प्रकाशक (देहली) पृष्ठ ३३५)।।२।। एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावकतनैं घर अशन को। लैं तप बढ़ावन हेतु, नहिं तन-पोषते तजि रसन को।। शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिकै गहैं लखिमैं धरै। निर्जन्तु थान विलोकि तन-मल मूत्र श्लेष्म परिहरै।।३।। अन्वयार्थ :- [वे वीतरागी दिगम्बर जैन मुनि (चतुर्दस भेद) चौदह प्रकार के (अन्तर) अन्तरंग तथा (दसधा) दस प्रकार के (बाहिर) बहिरंग (संग) परिग्रह से (टलैं) रहित होते हैं । (परमाद) प्रमाद-असावधानी (तजि) छोड़कर (चौकर) चार हाथ (मही) जमीन (लखि) देखकर (ईर्या) ईर्या (समिति तैं) समिति से (चलैं) चलते हैं और (जिनके) जिन मुनिराजों के (मुखचन्द्र 6) मुखरूपी चन्द्र से (जग सुहितकर) जगत का सच्चा हित करनेवाला तथा (सब अहितहर) सर्व अहित का नाश करनेवाला, (श्रुति सुखद) सुनने में प्रिय लगे - ऐसा (सब संशय) समस्त संशयों का (हरें) नाशक और (भ्रम रोगहर) मिथ्यात्वरूपी रोग को हरनेवाला (वचन अमृत) वचनरूपी अमृत (झरे) झरता है।। भावार्थ :- वीतरागी मुनि चौदह प्रकार के अन्तरंग और दश प्रकार के बहिरंग परिग्रहों से रहित होते हैं, इसलिये उनको (५) परिग्रहत्याग महाव्रत होता है। दिन में सावधानीपूर्वक चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलने का विकल्प उठे, वह (१) ईर्या समिति है तथा जिसप्रकार चन्द्रमा से शीतलतारूप अमृत झरता है, उसीप्रकार मुनि के मुखचन्द्र से जगत का हित करनेवाले, सर्व अहित का नाश करनेवाले, सुनने में सुखकर, सर्व प्रकार की शंकाओं को दूर करनेवाले और मिथ्यात्व (विपरीतता या सन्देह) रूपी रोग का नाश करनेवाले ऐसे अमृतवचन निकलते हैं । इसप्रकार समितिरूप बोलने का विकल्प मुनि को उठता है, वह (२) भाषा समिति है।। प्रश्न :- सच्ची समिति किसे कहते हैं? । उत्तर :- पर जीवों की रक्षा हेतु यत्नाचार प्रवृत्ति को अज्ञानी जीव समिति मानते हैं; किन्तु हिंसा के परिणामों से तो पापबन्ध होता है। यदि रक्षा के परिणामों से संवर कहोगे तो पुण्यबन्ध का कारण क्या सिद्ध होगा? तथा मुनि एषणा समिति में दोष को टालते हैं; वहाँ रक्षा का प्रयोजन नहीं है, इसलिये रक्षा के हेतु ही समिति नहीं है तो फिर समिति किसप्रकार होती है? १. ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान । प्रतिष्ठापना जुतक्रिया, पाँचों समिति विधान ।। 67

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