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छहढाला
स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं। यह स्वरूपाचरणचारित्र चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर मुनिदशा में अधिक उच्च होता है। तत्पश्चात् शुक्लध्यान द्वारा चार घाति कर्मों का नाश होने पर वह जीव केवलज्ञान प्राप्त करके १८ दोष रहित श्री अरिहन्तपद प्राप्त करता है; फिर शेष चार अघातिकर्मों का भी नाश करके क्षणमात्र में मोक्ष प्राप्त कर लेता है; उस आत्मा में अनन्तकाल तक अनन्त चतुष्टय का (अनन्तज्ञान - दर्शन - सुख - वीर्य का) एक-सा अनुभव होता रहता है; फिर उसे पंचपरावर्तनरूप संसार में नहीं भटकना पड़ता; वह कभी अवतार धारण नहीं करता; सदैव अक्षय अनन्त सुख का अनुभव करता है। अखण्डित ज्ञान-आनन्दरूप अनन्तगुणों में निश्चल रहता है; उसे मोक्षस्वरूप कहते हैं।
जो जीव मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस रत्नत्रय को धारण करते हैं और करेंगे, उन्हें अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। प्रत्येक संसारी जीव मिथ्यात्व, कषाय और विषयों का सेवन तो अनादिकाल से करता आया है, किन्तु उससे उसे किंचित् शान्ति प्राप्त नहीं हुई। शान्ति का एकमात्र कारण तो मोक्षमार्ग है; उसमें उस जीव ने कभी तत्परतापूर्वक प्रवृत्ति नहीं की; इसलिये अब भी यदि शान्ति की (आत्महित की) इच्छा हो तो आलस्य को छोड़कर, (आत्मा का) कर्तव्य समझकर, रोग और वृद्धावस्थादि आने से पूर्व ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो जाना चाहिए; क्योंकि यह पुरुषपर्याय, सत्समागम आदि सुयोग बारम्बार प्राप्त नहीं होते; इसलिये उन्हें व्यर्थ न गँवाकर अवश्य ही आत्महित साध लेना चाहिए।
अन्तरंग तप के नाम :उपयोग :
छठवीं ढाल का भेद - संग्रह
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और
ध्यान ।
शुद्ध उपयोग, शुभ उपयोग और अशुभ उपयोग - ऐसे तीन उपयोग हैं। ये चारित्रगुण की अवस्थाएँ हैं। (जाननादेखना, वह ज्ञान - दर्शनगुण का उपयोग है - यह बात
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छठवीं ढाल
यहाँ नहीं है।)
छियालीस दोष :- दाता के आश्रित सोलह उद्गमादि दोष, पात्र के आश्रित सोलह उत्पादन दोष तथा आहार सम्बन्धी दश और भोजन क्रिया सम्बन्धी चार ऐसे छियालीस दोष हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ।
तीन रत्न :
तेरह प्रकार का चारित्र :- पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति । धर्म :
मुनि की क्रिया :
रत्नत्रय :
सिद्ध परमात्मा के गुण :
शील :
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उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ऐसे दश हैं। (दशों धर्मों को उत्तम संज्ञा है, इसलिये निश्चयसम्यग्दर्शनपूर्वक वीतरागभावना के ही वे दश प्रकार हैं।)
(मुनि के गुण) मूल गुण २८ हैं । निश्चय और व्यवहार अथवा मुख्य और उपचार - ऐसे दो प्रकार हैं।
सर्वगुणों में सम्पूर्ण शुद्धता प्रकट होने पर सर्वप्रकार से अशुद्ध पर्यायों का नाश होने से, ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का स्वयं सर्वथा नाश हो जाता है और गुण प्रकट
नहीं होते, किन्तु गुणों की निर्मल पर्यायें प्रकट होती हैं; जैसे कि अनन्तदर्शन ज्ञान सम्यक्त्व सुख, अनन्तवीर्य, अनंत अवगाहना, अमूर्तिक (सूक्ष्मत्व) और अगुरुलघुत्व । - ये आठ मुख्य गुण व्यवहार से कहे हैं, निश्चय से तो प्रत्येक सिद्ध के अनन्तगुण समझना चाहिए।
अचेतन स्त्री :- तीन (कठोर स्पर्श, कोमल स्पर्श, चित्रपट) प्रकार की, उसके साथ तीन करण (करना,