Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 61
________________ ११२ छहढाला निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ।। ११ ।। अन्वयार्थ :- जो (निज काल) अपनी-अपनी स्थिति (पाय) पूर्ण होने पर (विधि) कर्म (झरना) खिर जाते हैं, (तासों) उससे (निज काज) जीव का धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता; किन्तु (जो) [निर्जरा] ( तप करि) आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा (कर्म) कर्मों का (खिपावे) नाश करती है, [ वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा ] (सोई) वह (शिवसुख) मोक्ष का सुख (दरसावे) दिखलाती है। भावार्थ :- अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मों का खिर जाना तो प्रतिसमय अज्ञानी को भी होता है; वह कहीं शुद्धि का कारण नहीं होता, परन्तु सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र द्वारा अर्थात् आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं, वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है। तदनुसार शुद्धि की वृद्धि होते-होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है, तब जीव शिवसुख (सुख की पूर्णतारूप मोक्ष) प्राप्त करता है। ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य द्वारा जो शुद्धि की वृद्धि करता है, वह “निर्जरा भावना" है ।। ११ ।। म् १०. लोक भावना किनहू न करौ न धरै को, षड् द्रव्यमयी न हरै को । सो लोकमाहिं बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता ।। १२ ।। 61 पाँचवीं ढाल ११३ अन्वयार्थ :- इस लोक को (किनहू) किसी ने (न करौ) बनाया नहीं है, (को) किसी ने (न धरै) टिका नहीं रखा है, (को) कोई (न हरै) नाश नहीं कर सकता; [और यह लोक] (षड् द्रव्यमयी) छह प्रकार के द्रव्यस्वरूप है - छह द्रव्यों से परिपूर्ण है (सो) ऐसे ( लोकमाहिं) लोक में (बिन समता) वीतरागी समता बिना (नित) सदैव (भ्रमता) भटकता हुआ (जीव) जीव (दुख लहै) दुःख सहन करता है। भावार्थ :- ब्रह्मा आदि किसी ने इस लोक को बनाया नहीं है; विष्णु या शेषनाग आदि किसी ने इसे टिका नहीं रखा है तथा महादेव आदि किसी से यह नष्ट नहीं होता; किन्तु यह छह द्रव्यमय लोक स्वयं से ही अनादि - अनन्त है; छहों द्रव्य नित्य स्व-स्वरूप से स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई पर्यायों (अवस्थाओं) से उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं। एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अधिकार नहीं है। यह छह द्रव्य स्वरूप लोक, वह मेरा स्वरूप नहीं है । वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ; मेरा शाश्वत चैतन्य-लोक ही मेरा स्वरूप है - ऐसा धर्मी जीव विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटाकर, साम्यभाव- वीतरागता बढ़ाने का अभ्यास करता है। यह "लोक भावना" है ।। १२ ।। ११. बोधिदुर्लभ भावना अंतिम-ग्रीवकलों की हद, पायो अनन्त विरियाँ पद । पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ । । १३ ।। अन्वयार्थ :- (अंतिम) अंतिम-नववें (ग्रीवकलों की हद ) ग्रैवेयक

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