Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 52
________________ छहढाला चौथी ढाल जाता है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् वही लक्षण सम्यग्ज्ञान कहलाता है। इसप्रकार यद्यपि ये दोनों सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान साथ ही होते हैं; तथापि उनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं और कारण-कार्यभाव का अन्तर है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का निमित्तकारण है। ___जो स्वयं को और परवस्तुओं को स्वन्मुखतापूर्वक यथावत् जाने, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; उसकी वृद्धि होने पर अन्त में केवलज्ञान प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त सुखदायक वस्तु अन्य कोई नहीं है और वही जन्म, जरा तथा मरण का नाश करता है। मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यग्ज्ञान के बिना करोड़ों जन्म तक तप तपने से जितने कर्मों का नाश होता है, उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी जीव के त्रिगुप्ति से क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। पूर्वकाल में जो जीव मोक्ष गये हैं; भविष्य में जायेंगे और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र से जा रहे हैं - वह सब सम्यग्ज्ञान का प्रभाव है। जिसप्रकार मसलाधार वर्षा वन की भयंकर अग्नि को क्षणमात्र में बुझा देती है, उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान विषय-वासना को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। ___ पुण्य-पाप के भाव वे जीव के चारित्रगुण की विकारी (अशुद्ध) पर्यायें हैं; वे रहँट के घड़ों की भाँति उल्टी-सीधी होती रहती हैं; उन पुण्य-पाप के फलों में जो संयोग प्राप्त होते हैं, उनमें हर्ष-शोक करना मूर्खता है। प्रयोजनभूत बात तो यह है कि पुण्य-पाप, व्यवहार और निमित्त की रुचि छोड़कर स्वसन्मुख होकर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ___ आत्मा और परवस्तुओं का भेदविज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान होता है। इसलिये संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (तत्त्वार्थों का अनिर्धार) का त्याग करके तत्त्व के अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावक कुल और जिनवाणी का सुनना आदि सुयोग - जिसप्रकार समुद्र में डूबा हुआ रत्न पुनः हाथ नहीं आता, उसीप्रकार - बारम्बार प्राप्त नहीं होता । ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके सम्यग्धर्म प्राप्त न करना मूर्खता है। सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके 'फिर सम्यक्चारित्र प्रकट करना चाहिए; वहाँ सम्यक्चारित्र की भूमिका में जो कुछ भी राग रहता है, वह श्रावक को अणुव्रत और मुनि को पंचमहाव्रत के प्रकार का होता है; उसे सम्यग्दृष्टि पुण्य मानते हैं। जो श्रावक निरतिचार समाधि-मरण को धारण करता है, वह समतापूर्वक आयु पूर्ण होने से योग्यतानुसार सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है और वहाँ से आयु पूर्ण होने पर मनुष्यपर्याय प्राप्त करता है; फिर मुनिपद प्रकट करके मोक्ष में जाता है। इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्र का पालन करना, वह प्रत्येक आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है। निश्चय सम्यक्चारित्र ही सच्चा चारित्र है - ऐसी श्रद्धा करना तथा उस भूमिका में जो श्रावक और मुनिव्रत के विकल्प उठते हैं, वह सच्चा चारित्र नहीं, किन्तु चारित्र में होनेवाला दोष है; किन्तु उस भूमिका में वैसा राग आये बिना नहीं रहता और उस सम्यक्चारित्र में ऐसा राग निमित्त होता है; उसे सहचर मानकर व्यवहार सम्यक्चारित्र कहा जाता है। व्यवहार सम्यक्चारित्र को सच्चा सम्यक्चारित्र मानने की श्रद्धा छोड़ देना चाहिए। चौथी ढाल का भेद-संग्रह काल :- निश्चयकाल और व्यवहारकाल; अथवा भूत, भविष्य और वर्तमान। चारित्र :- मोह-क्षोभरहित आत्मा के शुद्ध परिणाम, भावलिंगी श्रावकपद तथा भावलिंगी मुनिपद। ज्ञान के दोष :- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (अनिश्चितता)। १. न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वक लभते। ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ।।३८ ।। अर्थ :- अज्ञानपूर्वक चारित्र सम्यक् नहीं कहलाता, इसलिये चारित्र का आराधन ज्ञान होने के पश्चात् कहा है। (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय गाथा-३८) 52

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