Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 55
________________ छहढाला चौथी ढाल जीवादि सात तत्त्व आदि का स्वरूप ऐसा ही होगा? - अथवा जैसा अन्य मत में कहा है, वैसा? निमित्त अथवा शुभराग द्वारा आत्मा का हित हो सकता है या नहीं? चौथी ढाल का अन्तर-प्रदर्शन (१) दिवत की मर्यादा तो जीवनपर्यंत के लिए है; किन्तु देशव्रत की मर्यादा घड़ी, घण्टा आदि नियत किये हुए समय तक की है। (२) परिग्रहपरिमाणव्रत में परिग्रह का जितना प्रमाण (मर्यादा) किया जाता है, उससे भी कम प्रमाण भोगोपभोगपरिमाणव्रत में किया जाता है। (३) प्रोषध में तो आरम्भ और कषाय-कषायादिक त्याग करने पर भी एकबार भोजन किया जाता है; जबकि उपवास में अन्न, जल, खाद्य और स्वाद्य - इन चारों आहारों का सर्वथा त्याग होता है। प्रोषध-उपवास में आरम्भ, विषय-कषाय और चारों आहारों का त्याग तथा उसके अगले दिन और पारणे के दिन अर्थात् पिछले दिन भी एकाशन किया जाता है। (४) भोग तो एक ही बार भोगने योग्य होता है, किन्तु उपभोग बारम्बार भोगा जा सकता है। (आत्मा परवस्तु को व्यवहार से भी नहीं भोग सकता; किन्तु मोह द्वारा, मैं इसे भोगता हूँ - ऐसा मानता है और तत्सम्बन्धी राग को, हर्ष-शोक को भोगता है। यह बतलाने के लिए उसका कथन करना, सो व्यवहार है। चौथी ढाल की प्रश्नावली १. अचौर्यव्रत, अणुव्रत, अतिचार, अतिथिसंविभाग, अनध्यवसाय, अनर्थदंड, अनर्थदंडव्रत, अपध्यान, अवधिज्ञान, अहिंसाणुव्रत, उपभोग, केवलज्ञान, गुणव्रत, दिग्वत, दुःश्रुति, देशव्रत, देशप्रत्यक्ष, परिग्रह - परिमाणाणु-व्रत, परोक्ष, पापोपदेश, प्रत्यक्ष, प्रमादचर्या, प्रोषध-उपवास, ब्रह्मचर्याणुव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत, भोग, मतिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, विपर्यय, व्रत, शिक्षाव्रत, श्रुतज्ञान, सकलप्रत्यक्ष, सम्यग्ज्ञान, सत्याणुव्रत, सामायिक, संशय, स्वस्त्री-संतोषव्रत तथा हिंसादान आदि केलक्षण बतलाओ। २. अणुव्रत, अनर्थदण्डव्रत, काल, गुणव्रत, देशप्रत्यक्ष, दिशा, परोक्ष, पर्व, पात्र, प्रत्यक्ष, विकथा, व्रत, रोगत्रय, शिक्षाव्रत सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान के दोष और संल्लेखना दोष - आदि के भेद बतलाओ। ३. अणुव्रत, अनर्थदण्डव्रत, गुणव्रत - ऐसे नाम रखने का कारण; अविचल ज्ञानप्राप्ति, ग्रैवेयक तक जाने पर भी सुख का अभाव, दिव्रत, देशव्रत, पापोपदेश - ऐसे नामों का कारण, पुण्य पाप के फल में हर्ष-शोक का निषेध, शिक्षाव्रत नाम का कारण, सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, ज्ञानों की परोक्षताप्रत्यक्षता-देशप्रत्यक्षता और सकलप्रत्यक्षता आदि के कारण बतलाओ। ४. अणुव्रत और महाव्रत में, दिग्वत और देशव्रत में, परिग्रह-परिमाणव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत में, प्रोषध और उपवास में तथा प्रोषधोपवास में, भोग और उपभोग में, यम और नियम में, ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश में तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या अन्तर है, वह बतलाओ। अनध्यवसाय, मनुष्यपर्याय आदि की दुर्लभता, विपर्यय, विषय-इच्छा, सम्यग्ज्ञान और संशय के दृष्टान्त दो। ६. अनर्थदण्डों का पूर्ण परिमाण, अविचल सुख का उपाय, आत्मज्ञान की प्राप्ति का उपाय, जन्म-मरण दूर करने का उपाय, दर्शन और ज्ञान में पहली उत्पत्ति; धनादिक से लाभ न होना, निरतिचार श्रावकव्रत-पालन से लाभ, ब्रह्मचर्याणुव्रती का विचार, भेदविज्ञान की आवश्यकता, मनुष्यपर्याय की दुर्लभता तथा उसकी सफलता का उपाय, मरणसमय का कर्तव्य; वैद्यडॉक्टर के द्वारा मरण हो, तथापि अहिंसा, शत्रु का सामना करना - न करना, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ज्ञान होने का समय और उसकी महिमा, संल्लेखना की विधि और कर्तव्य, ज्ञान के बिना मुक्ति तथा सुख का अभाव, ज्ञान का फल तथा ज्ञानी-अज्ञानी का कर्मनाश और विषयों की इच्छा को शांत करने का उपाय - आदि का वर्णन करो। ७. अचल रहनेवाला ज्ञान, अतिथिसंविभाग का दूसरा नाम, तीन रोगों का नाश करनेवाली वस्तु, मिथ्यादृष्टि मुनि, वर्तमान में मुक्ति हो सके - ऐसा 55

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