Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 53
________________ ९६ छहढाला चौथी ढाल दिशा:- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय-अण्नेय, ऊर्ध्व और अधो - ये दस हैं। पर्वचतुष्टय :- प्रत्येक मास की दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी। मुनि :- समस्त व्यापार से विरक्त, चार प्रकार की आराधना में तल्लीन, निर्ग्रन्थ और निर्मोह - ऐसे सर्व साधु होते हैं। (नियमसार, गाथा -७६)। वे निश्चयसम्यग्दर्शन सहित, विरागी होकर, समस्त परिग्रह त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके अन्तरंग में शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करते हैं। परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं करते । ज्ञानादि स्वभाव को ही अपना मानते हैं; परभावों में ममत्व नहीं करते। किसी को इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें राग-द्वेष नहीं करते । हिंसादि अशुभ उपयोग का तो उनके अस्तित्व ही नहीं होता। अनेक बार छठवें गुणस्थान में आते हैं, तब उन्हें अट्ठाईस मूलगुणों को अखण्डित रूप से पालन करने का शुभ-विकल्प आता है। उन्हें तीन कषायों के अभावरूप निश्चय-सम्यक्चारित्र होता है। भावलिंगी मुनि को सदा नग्न-दिगम्बर दशा होती है; उसमें कभी अपवाद नहीं होता। कभी भी वस्त्रादि सहित मुनि नहीं होते। विकथा :- स्त्री, आहार, देश और राज्य - इन चार की अशुभभावरूप कथा, सो विकथा है। श्रावकव्रत :- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - ऐसे बारह व्रत हैं। रोगत्रय:- जन्म, जरा और मृत्यु। हिंसा : (१) वास्तव में रागादि भावों का प्रकट न होना, सो अहिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति होना, सो हिंसा है - ऐसा जैनशास्त्रों का संक्षिप्त रहस्य है। (२) संकल्पी, आरम्भी, उद्योगिनी और विरोधिनी - ये चार अथवा द्रव्यहिंसा और भावहिंसा - ये दो। चौथी ढाल का लक्षण-संग्रह अणुव्रत :- (१) निश्चयसम्यग्दर्शन सहित चारित्रगुण की आंशिक शुद्धि होने से (अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानीय कषायों के अभावपूर्वक) उत्पन्न आत्मा की शुद्धिविशेष को देशचारित्र कहते हैं। श्रावकदशा में पाँच पापों का स्थूलरूप - एकदेश त्याग होता है, उसे अणुव्रत कहा जाता है। अतिचार :- व्रत की अपेक्षा रखने पर भी उसका एकदेश भंग होना, सो अतिचार है। अनध्यवसाय :- (मोह) - 'कुछ हैं', किन्तु क्या है, उसके निश्चयरहित ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। अनर्थदंड :- प्रयोजनरहित मन, वचन, काय की ओर की अशुभप्रवृत्ति । अनर्थदंडव्रत :- प्रयोजनरहित, मन, वचन, काय की ओर की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग। अवधिज्ञान :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को स्पष्ट जाननेवाला ज्ञान। उपभोग : जिसे बारम्बार भोगा जा सके - ऐसी वस्तु । गुण : द्रव्य के आश्रय से, उसकेसम्पूर्ण भाग में तथा उसकी समस्त पर्यायों में सदैव रहे, उसे गुण अथवा शक्ति कहते हैं। गुणव्रत :- अणुव्रतों को तथा मूलगुणों को पुष्ट करनेवाला व्रत। पर : आत्मा से (जीव से) भिन्न वस्तुओं को पर कहा जाता है। परोक्ष :- जिसमें इन्द्रियादि परवस्तुएँ निमित्तमात्र हैं - ऐसे ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहते हैं। 53

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